[ संजय गुप्त ]: मोदी सरकार की दूसरी पारी शुरू हो चुकी है और उसका काम तेजी पकड़ रहा है, लेकिन इसके साथ ही लंबी चुनाव प्रक्रिया के कारण ठप सी रही शासन प्रक्रिया के दुष्परिणाम भी दिखने लगे हैैं। अर्थव्यवस्था में सुस्ती दिख रही है और बेरोजगारी का सवाल भी सिर उठाने लगा है। चूंकि प्रधानमंत्री को इसका अहसास है इसलिए उन्होंंने दो नई कैबिनेट समितियों निवेश-विकास और रोजगार-कौशल विकास का गठन खास तौर पर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए किया है। गृहमंत्री अमित शाह को इन दोनों समितियों के साथ शेष छह समितियों में भी शामिल किया गया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने पिछली सरकार के करीब 40 प्रतिशत मंत्रियों को इस बार मंत्रिपरिषद में जगह नहीं दी है। इसके पीछे इरादा यही है कि सरकार की कार्यशैली को गति और ऊर्जा मिले।

मोदी सरकार को अपनी दूसरी पारी शुरू करते हुए इस पर भी ध्यान देना है कि पिछली सरकार में जो लक्ष्य तय किए गए थे उनमें कहां कितनी सफलता मिली? नि:संदेह मोदी सरकार की कई बड़ी योजनाओं का काफी कुछ असर जमीन पर देखने को मिला है, लेकिन देश के एक हिस्से और खास तौर पर उत्तर भारत में अभी भी अनियोजित विकास की समस्या बनी हुई है। इस अनियोजित विकास के कारण दिल्ली-एनसीआर और मुंबई के अलावा देश के अन्य महानगरीय क्षेत्र का ढांचा चरमराता हुआ दिख रहा है। चूंकि सभी इससे परिचित हैैं कि बड़े शहर आर्थिक विकास के इंजन हैैं और आने वाले समय में वे आबादी के दबाव का और अधिक सामना करेंगे इसलिए उनके सुनियोजित विकास पर विशेष ध्यान दिया जाना आवश्यक है। अगर ऐसा नहीं किया गया तो अनियोजित विकास तमाम समस्याओं को जन्म देने के साथ ही शहरी जीवन के लिए परेशानी खड़ी कर सकता है।

एक अर्से से हमारे नेता देश को विकसित राष्ट्र बनाने का सपना दिखाते चले आ रहे हैैं, लेकिन हम इस पर गौर नहीं कर पा रहे हैैं कि विकासशील से विकसित देश की यात्रा तय करने के लिए फिलहाल जिन मानकों को अपना रहे हैैं उनसे बात बनने वाली नहीं है। इसलिए बनने वाली नहीं, क्योंकि विकास के हमारे जो मानक हैैं वे गुणवत्ता से हीन हैैं और शार्टकट तरीकों या फिर किसी तरह के जुगाड़ से लैस हैैं। विकास के ऐसे मानकों से विकसित राष्ट्र की इमारत खड़ी करना संभव नहीं, फिर भी मौजूदा समय विकास कार्यों में लगी सरकारी एजेंसियां जैसे-तैसे काम करने की प्रवृत्ति से ग्रस्त दिखती हैैं। वे गुणवत्ता पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे रही हैैं और इसी कारण उनकी ओर से जो आधारभूत ढांचा तैयार किया जाता है वह थोड़े समय बाद ही अपर्याप्त दिखने लगता है या फिर चरमराने लगता है।

समस्याएं इसलिए बढ़ रही हैैं, क्योंकि औसत भारतीय हर वक्त शार्टकट की ताक में रहता है। देश की राजधानी के वीआइपी इलाके यानी लुटियन दिल्ली से लेकर आम शहरों तक में आधारभूत ढांचे के निर्माण में कहींं पर्यावरण की अनदेखी होती है तो कहीं शहरीकरण संबंधी योजनाओं के बुनियादी नियमों का उल्लंघन होता है। यह कभी पैसे बचाने के लिए होता है तो कभी जल्द काम निपटाने की कोशिश में। मानकों की अनदेखी विभिन्न उत्पाद एवं उपकरण तैयार करने में भी होती है। जुगाड़ केवल वह वाहन ही नहीं है जिसे किसी इंजन के सहारे तैयार कर लिया जाता है और फिर उसे सवारियां या सामान ढोने के काम में लाया जाता है। यह एक प्रवृत्ति भी है। मुश्किल यह है कि कुछ लोगों की ओर से जुगाड़ की तारीफ की जाती है, जबकि वह अव्यवस्था-अराजकता का प्रतीक है।

आखिर सड़कों पर जोखिम भरा जुगाड़ नामक वाहन क्यों चलना चाहिए? यह ठीक है कि अब कहीं-कहीं जुगाड़ की जगह ई रिक्शा चलने लगे हैैं, लेकिन उनकी भी गुणवत्ता ठीक नहीं। इसके बावजूद उन्हें बढ़ावा दिया जा रहा है और उनके नियमन की भी कोई सही व्यवस्था नहीं की जा रही है। अगर उनकी गुणवत्ता बेहतर करके उनका नियमन सही तरह से किया जाए तो वे सुरक्षित बनने के साथ ही देश की अर्थव्यवस्था को गति देने में भी सहायक बन सकते हैैं। जैसे गुणवत्ताहीन ई रिक्शे का चलन बढ़ रहा है वैसे ही अन्य अनेक ऐसे काम हो रहे हैैं जो बेहतर नियमन की मांग करते हैैं।

मोदी सरकार के सामने विकास को सही रूप देने के साथ ही रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराने की भी चुनौती है। इसी के साथ जो निर्धन एवं वंचित हैैं उन्हें मुख्यधारा में भी लाने की चुनौती है। चूंकि इस चुनौैती का सामना करने के लिए जितना धन चाहिए उतना सरकार के पास है नहीं इसलिए उसे इसके प्रति सचेत रहना होगा कि बड़ी योजनाओं में धन का अपव्यय न होने पाए। अरबों रुपये की योजनाओं के क्रियान्वयन में तनिक भी देरी का मतलब है उनकी लागत में करोड़ों रुपये की अनावश्यक वृद्धि। धन के इस अपव्यय को प्राथमिकता के आधार पर रोकना होगा। इसी तरह उस भ्रष्टाचार को भी रोकना होगा जो ठेकेदारों और इंजीनियरों की साठगांठ से विभिन्न निर्माण कार्यों में हो रहा है। खराब निर्माण कार्य अर्थव्यवस्था को नुकसान ही पहुंचाता है।

मोदी सरकार को चाहिए कि वह अपनी योजनाओं के क्रियान्वयन की गति को बढ़ाए। तेज और विश्वस्तरीय विकास के मामले में अक्सर चीन का उदाहरण दिया जाता है तो इसीलिए कि उसने कहीं तेजी से गुणवत्तायुक्त आधारभूत ढांचे का निर्माण करने में सफलता हासिल की है। चीन के मुकाबले भारत बहुत पीछे दिख रहा है। मोदी सरकार को न केवल इस पर ध्यान देना होगा कि शहरी ढांचा सही तरह निर्मित हो, बल्कि यह भी देखना होगा कि ग्रामीण और अर्धशहरी इलाकों में भी हर क्षेत्र में मानकों के अनुरूप काम हो।

अपने देश में एक बड़ी आबादी अनियोजित कालोनियों या फिर अनधिकृत बस्तियोंं में रहती है। ऐसे आवासीय क्षेत्र अन्य समस्याओं को जन्म देने के साथ ही पर्यावरण का संकट बढ़ाने का भी काम करते हैैं। पर्यावरण के प्रति सजगता तभी काम आएगी जब हर क्षेत्र में मानकों के हिसाब से काम होगा। ऐसी नीतियों का निर्माण और उन पर अमल आवश्यक है जिससे लोगों की दैनिक चर्या पर्यावरण को नुकसान न पहुंचा सके। खराब पर्यावरण लोगों की सेहत के लिए संकट पैदा करने के साथ ही अर्थव्यवस्था को भी नुकसान पहुंचाने का काम करता है।

केंद्र की अधिकांश योजनाएं राज्यों को ही लागू करनी होती हैं। आज देश के 16 राज्यों में भाजपा या फिर उसके सहयोगी दलों की सरकारें हैैं। इनमें महाराष्ट्र, बिहार, मेघालय, नगालैैंड में गठबंधन सरकारें हैैं। तीन राज्य मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ उसके हाथ से निकल गए हैैं। दक्षिण में तमिलनाडु को छोड़ दें तो कहीं भी भाजपा या उसके सहयोगी दल की सरकार नहीं। कई गैर भाजपा शासित राज्य केंद्र से असहयोग भी कर रहे हैैं। ऐसे में मोदी सरकार के लिए राज्यों का सहयोग लेकर अपनी नीतियों को लागू करना और बेहतर नतीजे देना मुश्किल हो सकता है। इस मुश्किल के बावजूद चूंकि मोदी सरकार प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई है इसलिए उसके पास अपने वायदों को पूरा करने से बचने के लिए किसी दलील की कोई गुंजाइश नहीं है।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]

लोकसभा चुनाव और क्रिकेट से संबंधित अपडेट पाने के लिए डाउनलोड करें जागरण एप