[ डॉ. एके वर्मा ]: आज जब पूरा देश कोरोना से लड़ रहा है तब मुस्लिम समाज के एक छोटे समूह तब्लीगी जमात ने उसमें व्यवधान डाला है। इससे मुस्लिम समाज भी चिंतित है। उसे कुशल मुस्लिम नेतृत्व चाहिए, लेकिन अवांछित तत्वों ने मुस्लिम नेतृत्व हथिया लिया है। मुस्लिमों में नेतृत्व को लेकर शुरू से चुनौतियां रही हैं। 1947 में जो विभाजनकारी रेखा हिंदुओं और मुसलमानों के बीच खिंची वह ऐतिहासिक सत्य है।

भारत में हिंदुओं ने मुसलमानों को अपनाया, किंतु पाक में मुस्लिम हिंदुओं को नहीं अपना सके

जो मुसलमान भारत में रह गए, हिंदू समाज ने उनको अपनत्व दिया, बावजूद इसके कि पाकिस्तान में हिंदुओं के साथ दुर्व्यवहार होता रहा। आज से 60-70 वर्ष पहले मुस्लिम मित्रों के यहां जाना और उनका हमारे घरों में आना, खाना-पीना-खेलना सामान्य दिनचर्या थी। जब संयुक्त परिवार कम हुए तो हिंदू-मुस्लिम परिवारों में भी आना-जाना कम हो गया। धीरे-धीरे मुस्लिम समाज अपने में सिमटता चला गया और उन मंचों का अभाव भी होता चला गया जहां हिंदू-मुस्लिम मिलन होता था, जहां गंगा-जमुनी संस्कृति फलती-फूलती थी।

कांग्रेस के कारण अल्पसंख्यकवाद और मुस्लिम तुष्टीकरण की विषबेल पनपी

समय के साथ मुस्लिम समाज की एकाकी अस्मिता बलवती होती गई और वह मुख्यधारा से कटती चली गई। इसे दो प्रवृत्तियों ने और मजबूत किया। एक, स्वतंत्रता-संग्राम का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस ने गांधीजी की सलाह के विरुद्ध स्वयं को राजनीतिक पार्टी बना दिया और चुनावी स्पर्धा में मुस्लिमों को वोट-बैंक के रूप में देखने लगी। कांग्रेस ने मुसलमानों को आरएसएस और जनसंघ का भय दिखाकर और स्वयं को उनका हितैषी और सेकुलरिज्म का समर्थक बताकर उनकी अल्पसंख्यक अस्मिता को बलवती किया। इसी से अल्पसंख्यकवाद और मुस्लिम तुष्टीकरण की विषबेल पनपी। इसके चलते मुस्लिमों में पीड़ित और वंचित होने का भाव जगा, जिससे उनमें हिंदुओं के प्रति रोष उपजा। अन्य अनेक दल भी उनके हितैषी होने का स्वांग कर उनका राजनीतिक शोषण करते रहे और उन्हें मुख्यधारा में आने से रोकते रहे। दूसरा कारण मुस्लिम नेतृत्व की विफलता रही। स्वतंत्रता के बाद मुस्लिम समाज से कोई नेतृत्व नहीं निकला। जो नेता निकले भी वे कांग्रेस की कृपा से निकले।

मुस्लिम देश की मुख्यधारा में नहीं आ सके

चार नवंबर, 1947 को दिल्ली में मुस्लिमों को संबोधित करते हुए मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कहा था, ‘वे शपथ लें कि यह देश हमारा है और इसके भविष्य का निर्णय तब तक अपूर्ण रहेगा जब तक हम उसमें शिरकत नहीं करेंगे।’ दुर्भाग्य की बात है कि मौलाना आजाद और उनके सरीखे रफी अहमद किदवई की मृत्यु के बाद उनकी जगह लाए गए हाफिज इब्राहिम और एमसी छागला मुस्लिम समाज को अपेक्षित राजनीतिक नेतृत्व न दे सके। 1961 में जबलपुर और 1964 में जमशेदपुर एवं राउरकेला में हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए। 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद जब अब्दुल हमीद को मरणोपरांत सर्वोच्च सैनिक सम्मान परमवीर चक्र दिया गया तो पुन: मुस्लिमों के मुख्यधारा में आने की आशा जगी, लेकिन अनेक मुस्लिम नेता वैसा रवैया न अख्तियार कर सके जैसी वक्त की मांग थी।

सांप्रदायिक सौहार्द में विभाजक तत्व

मुस्लिमों की नई पीढ़ी अपने को भारतीय मानती थी। बरेलवी हों या देवबंदी, वे भारत के प्राचीन इतिहास में अपने पूर्वजों को तलाशने लगे, लेकिन फिर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, उर्दू और मुस्लिम पर्सनल लॉ मुस्लिम अस्मिता के नए प्रतीक बन गए। 1971 के बांग्लादेश युद्ध से भी हिंदू-मुस्लिम अलगाव उभरा। इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल में जब आरएसएस और जमात-ए-इस्लामी नेताओं को जेलों में बंद किया गया तो दोनों समुदायों के पास आने की आस जगी। संपूर्ण-क्रांति के प्रणेता जयप्रकाश बाबू के सुझाव पर आरएसएस ने मुसलमानों के लिए अपने द्वार खोलने का आश्वासन भी दिया, पर 1979-80 में ईरान में अयातुल्ला खोमैनी की क्रांति से भारत में इस्लामिक-उफान सा आ गया। कश्मीर तो हमेशा सांप्रदायिक सौहार्द में विभाजक तत्व रहा, अन्य मुद्दे जैसे शाहबानो, राममंदिर, गोधरा-कांड और गुजरात दंगे भी उसे हवा देते रहे। 1992 में बाबरी ढांचा ढहाए जाने से भी हालात बदले।

सांप्रदायिक सौहार्द के लिए मुसलमानों को सही बौद्धिक नेतृत्व नहीं मिला

सांप्रदायिक सौहार्द के लिए मुसलमानों को सही बौद्धिक नेतृत्व भी नहीं मिला। अपवादों को छोड़, मुस्लिम विद्वान मुस्लिम-केंद्रित अध्ययन-शोध में लीन रहकर यह प्रमाणित करते रहे कि मुस्लिम उपेक्षित और असुरक्षित हैं। सांप्रदायिक दंगों में वे मुस्लिमों के प्रति पुलिस की सख्ती को रेखांकित करते, लेकिन यह सत्य छिपाते रहे कि पुलिस को ऐसा करना क्यों पड़ता है?

राजनीतिक लाभ के लिए मुस्लिम तुष्टीकरण का प्रयास

अधिकतर दल राजनीतिक लाभ के लिए मुस्लिम तुष्टीकरण का प्रयास करते हैं और हिंदुओं की असुरक्षा और संवेदनाओं की घोर उपेक्षा करते हैं। मुस्लिम विद्वान भी मुसलमानों को यह नहीं समझा सके कि उनका भी हिंदुओं के प्रति कुछ फर्ज बनता है और गंगा-जमुनी तहजीब बनाए रखने की जिम्मेदारी उनकी भी उतनी ही है जितनी हिंदुओं की। मुस्लिम विश्वविद्यालय भी हिंदू-मुस्लिम सद्भाव के संवाहक नहीं बन सके, जबकि हिंदू-मुस्लिम विद्वानों में बेहद प्रेम है। इसी की आड़ लेकर कट्टरपंथी धर्मगुरुओं ने मुस्लिम बुद्धिजीवियों से नेतृत्व छीन लिया।

तब्लीगी जमात के मौलाना साद जैसे तत्व मुसलमानों को शर्मसार करते हैं 

कट्टरपंथी धर्मगुरु ‘पैन-इस्लामिज्म’ को लक्ष्य करते हैं, इसलिए उनकी तकरीरों में मुस्लिम-अस्मिता को मजबूत करने का प्रयत्न होता है, न कि मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने का। इसी कारण तब्लीगी जमात के मौलाना साद जैसे तत्व मुसलमानों को शर्मसार करते हैं और सूफी किस्म के धर्मगुरुओं के सांप्रदायिक-सौहार्द के प्रयासों पर पानी फेरते हैं।

मुस्लिमों का राजनीतिक नेतृत्व हथियाने के लिए आपराधिक किस्म के लोगों को किया प्रोत्साहित

राजनीति में अपराधियों के बढ़ते प्रभाव और मुस्लिमों को वोट-बैंक की तरह देखने के कारण दलों ने स्थानीय स्तर पर मुस्लिमों का राजनीतिक नेतृत्व हथियाने के लिए आपराधिक किस्म के लोगों को प्रोत्साहित किया है। इस प्रकार राजनीतिक, बौद्धिक, धार्मिक और सामाजिक मुस्लिम नेतृत्व के अभाव ने न केवल मुस्लिम अस्मिता, वरन सांप्रदायिक विद्वेष और राष्ट्र-विरोध को भी बलवती किया है। काश मुस्लिम नेतृत्व की कोई ऐसी धारा फूटती जो मुसलमानों को देश की मुख्यधारा, गंगा-जमुनी संस्कृति और सांप्रदायिक सौहार्द की ओर ले जाती।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं )