नई दिल्ली [हृदयनारायण दीक्षित]। दुष्कर्म दंडनीय ही नहीं होते। वे समाज के लिए पीड़ादायक होते हैं। वे राष्ट्र के लिए लज्जा और गहन व्यथा का विषय भी होते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी ने देश के बाहर लंदन में भी इन घटनाओं को लज्जाजनक बताया है। वह देश लौटे, उसी दिन मंत्रिपरिषद बैठी जिसने ‘क्रिमिनल लॉ (संशोधन) अध्यादेश’ पर सर्वसम्मति से सहमति दी। राष्ट्रपति ने भी इस अध्यादेश को मंजूरी दे दी है। अध्यादेश में 12 वर्ष तक की बच्चियों के साथ दुष्कर्म करने पर मृत्युदंड का प्रावधान है। इसी तरह बैंक से ऋण लेकर विदेश भागने वालों से कर्ज वसूली के लिए संपत्ति जब्ती के ‘दि फ्यूजीटिव इकोनॉमिक ऑफेंडर अध्यादेश 2018’ पर भी मंत्रिपरिषद की मुहर लग गई। इसके पहले निर्भया कांड ने देश को विचलित किया था। इस संदर्भ में भी विधि संशोधित की गई थी। किशोरों द्वारा किए जाने वाले जघन्य अपराधों में अभियुक्त की उम्र 18 वर्ष से घटाकर 16 वर्ष की गई थी। पॉक्सो अधिनियम में पहले ही सख्ती की जा चुकी है।

राजव्यवस्था और विधायिका अपना कत्र्तव्य निभा रही हैं, लेकिन राजनीति अपनी राह है। आरोपों-प्रत्यारोपों की आंधी है। समाज सन्न, स्तब्ध और कत्र्तव्य विमुख है। दुष्कर्म सामाजिक विफलता है। बच्चों का अपराधी बनते जाना समाज व्यवस्था के ध्वस्त हो जाने का सुबूत है। कानून का कठोर होना अच्छी बात है। कानून का भय होना और भी अच्छी बात है, लेकिन समाज का मूकदर्शक हो जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। गुप्तकाल में चीनी यात्री फाह्यान भारत आया था। उसने ‘फो-क्यो-की’ में लिखा था, ‘भारत के लोग सुखी समृद्ध हैं। गुप्त काल में चोरीडकैती का भय नहीं है। शासन सौम्य है। अपराधों की गुरुता के आधार पर दंड हैं।’ मेगस्थनीज ने भी ‘इंडिका’ में भारतीय समाज की प्रशंसा की थी। बुद्ध ने उत्तरदायी शासन के लिए वृद्धों के विचार को महत्व, स्त्री सम्मान व धर्म में विश्वास आदि सात सूत्र बताए थे। आधुनिक भारतीय समाज की चेतना से ये तीन प्रमुख सूत्र गायब हैं। बाजार संचालित समाज में मुनाफा और उपयोगिता ही स्वर्णसूत्र हैं। वरिष्ठ, वृद्ध, आचार्य और माता-पिता अनुपयोगी है। संप्रति स्त्री सम्मान कोई मूल्य नहीं है।

स्त्रियों पर उपयोगितावाद का सिद्धांत ही लागू है। प्रामाणिक युवा का निर्माण माता, पिता, आचार्य, नेता और समाज का दायित्व है। संस्कारी मनुष्य के निर्माण में राजव्यवस्था की भूमिका नगण्य होती है। जघन्य अपराधों की बढ़ोतरी कोई भी सरकार बर्दाश्त नहीं करती। अपराधवृद्धि के तमाम कारण होते हैं। इसलिए अपने सदस्यों को उच्चतर जीवन आदर्श देना समाज की ही जिम्मेदारी है, लेकिन समाज तटस्थ है। प्राचीन भारत में राजव्यवस्था मुक्त एक समाज था। महाभारत (भीष्म पर्व) में संजय बताते हैं, ‘यहां कोई राजा नहीं, कोई दंड नहीं और दंड देने वाला भी नहीं - न तत्र राजा, न दण्डो, न च दण्डिक:। समाज के लोग अपना अपना कत्र्तव्य पालन करते हैं।’ वामपंथियों की कल्पना वाला ‘राज्यविहीन समाज’ यहां इतिहास का अनुभव है। महाभारत में ऐसे चार जनपदों के नाम हैं - मंग, मशक, मानस और मगंद। कम से कम शासन हरेक राजव्यवस्था का आदर्श है, लेकिन अधिक से अधिक संस्कारशील पीढ़ी का निर्माण समाज व्यवस्था का ही आदर्श है।

समाज निर्माण की मूलभूत संस्था परिवार है। आदर्श परिवार की मूल संस्था विवाहित पति पत्नी हैं। ऋग्वेद में दोनों का साझा नाम है दंपती। दोनो का मन मिलाना अग्नि देवता का कत्र्तव्य है। ऋ ग्वेद के तमाम मंत्रों में दोनों मिलकर ‘सोम निचोड़ते हैं। साथ-साथ काम करते हैं। साथ-साथ आनंदित रहते हैं। इसी सहकार की उपलब्धि है संतान। यहां देवों से प्रार्थना है-हमें वैसे ही प्यार समृद्धि दो जैसे पिता देते हैं।’ यहां देवों से भी पिता के अनुसार आचरण की प्रार्थना है। पिता बड़ा है और देव छोटे। प्राचीन भारतीय समाज में माता-पिता की सर्वोच्च प्रतिष्ठा है। यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा, ‘आकाश से ऊंचा क्या? उत्तर मिला-पिता। फिर अगला प्रश्न है कि पृथ्वी से भारी क्या है? युधिष्ठिर ने कहा, ‘माता पृथ्वी से भारी है’ लेकिन आधुनिक समाज ने नई पीढ़ी के सामने माता-पिता को बोझ सिद्ध किया है। पिता मनचाहे प्रेम में बाधा है। वह ‘लिव इन रिलेशन’ में टांग अड़ाता है। माता-पिता देर रात घर आने वाले बच्चों को डांटते हैं। बच्चे दोनों को स्वतंत्रता का बाधक मानते हैं।

शिक्षा व्यवस्था में अंग्रेजी भाषा और आयातित सभ्यता के आदर्श हैं। युवा मन पर सिनेमा का प्रभाव बढ़ा है। नायक नायिकाएं माता पिता को डांटते दिखाई पड़ते हैं। नई पीढ़ी संरक्षकविहीन है और माता पिता असहाय। शिक्षा संस्कार नहीं देती। भय, लज्जा और ग्लानि सामाजिक सुधार के तीन प्रमुख मानस तत्व हैं। तीनों सिरे से गायब हैं। समाज ने कत्र्तव्य नहीं निभाया। आयातित जीवनशैली का हमला है। भूमंडलीकृत जीवन में बाजार ही सम्राट है। कड़े कानून स्वाग्तयोग्य हैं। आदर्श विधि व्यवस्था भी समाज की स्वाभाविक इच्छा है, लेकिन विधि व्यवस्था भी आदर्श समाज व्यवस्था की प्यासी होती है। विधि, विधेयक, अधिनियम व परंपरा को सम्मान देने वाले समाज का निर्माण सामाजिक दायित्व है।

पूर्वजों ने यही किया था। स्वाधीनता संग्राम के पहले देश में समाज सुधार के अनेक शक्तिपीठ थे। दयानंद, विवेकानंद, गांधी, तिलक, राजा राममोहन राय, डॉ. आंबेडकर, डॉ. हेडगेवार आदि संस्कृति का संवर्धन कर रहे थे। संप्रति प्रवचनकर्ता बढ़े हैं, प्रवचनों में भीड़ है। वे ईश्वर या मोक्ष प्राप्ति की गारंटी दे रहे हैं, लेकिन प्रामाणिक मनुष्य के निर्माण पर तटस्थ हैं। कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ लिखा। वह सशक्त राष्ट्र राज्य के पक्षधर थे। उन्होंने ‘आन्वीक्षकी, त्रयी, वार्ता और दंडनीति  चार विद्या बताई हैं। सांख्य योग आदि दर्शन आन्वीक्षकी हैं। तीन वेद त्रयी है। ‘वार्ता’ कृषि पशुपालन, खनिज आदि की समृद्धि है। चौथी ‘दंडनीति’ कानून है। सबकी उपयोगिता है।

मूलभूत प्रश्न है कि हमारा समाज प्रथम तीन की जिम्मेदारी न लेकर केवल दंडनीति से ही भारत को कैसे महान बना सकता है? भारत का मन कभी भी हिंसक नहीं रहा, लेकिन पीछे तीन दशक से यहां हिंसा व तनाव का वातावरण है। बीती सदी के अंत में अमेरिका में भी ऐसा ही वातावरण था। आज भी कमोबेश वैसा ही है। तब ‘हॉर्वर्ड एजुकेशनल रिव्यू’ पत्रिका ने ‘हिंसा और नौजवान’ विषय पर विशेषांक निकाला था। इसकी तमाम बातें भारत के वर्तमान संदर्भ में मिलती जुलती हैं।

इसमें अंतरराष्ट्रीय ख्याति के विद्वान चोम्स्की ने अमेरिकी अर्थशास्त्री सिल्विया एन ह्यूलेट की पुस्तक ‘धनी समाजों में बच्चों की उपेक्षा’ का उल्लेख किया है। संपादक ने पूछा कि 11 साल का बच्चा महंगे जूतों के लिए दूसरे बच्चे को क्यों मार देता है? चोम्स्की ने कहा टीवी बताता है कि यह जूता जिसके पास है वही मर्द है। बच्चे 11 से 12 घंटे टीवी से चिपके हैं। स्कूलों में लड़कियों को छेड़ते हैं। अध्यापक डांटने के बजाय स्कूल के बाहर मिलने का परामर्श देते हैं। टीवी अमेरिका में महत्वपूर्ण गुरु है तो भारत में भी। यहां भी बच्चे टीवी भरोसे हैं। आचार्य, माता, पिता, धर्मगुरु, सामाजिक कार्यकर्ता आगे आएं। भारतीय समाज का सांस्कृतिक चैतन्य जागृत करें। सामाजिक मर्यादा का भय हो। तभी कानून का भय भी होगा।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं)