[ संजय गुप्त ]: आज दुनिया में भारत लोकतंत्र के प्रति समर्पण, युवा आबादी, तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ अन्य अनेक अच्छी बातों के लिए जाना जाता है, लेकिन इसी के साथ उसकी पहचान इस रूप में भी है कि यहां साफ-सफाई के प्रति उतनी जागरूकता नहीं जितनी होनी चाहिए। गांवों और शहरों के सार्वजनिक स्थलों में गंदगी की समस्या को नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही गंभीरता के साथ लिया। तमाम चुनौतियों के बाद भी उन्होंने 2 अक्टूबर 2014 को राजपथ से स्वच्छ भारत का नारा दिया।

उन्होंने देशवासियों को महात्मा गांधी के स्वच्छ भारत के सपने की याद दिलाते हुए यह संकल्प लेने के लिए प्रेरित किया कि वे सप्ताह में कम से कम दो घंटे सफाई के लिए समय निकालें। उनकी अपील का असर हुआ। राज्य सरकारों के साथ स्थानीय निकायों और सामाजिक संगठनों के अतिरिक्त कॉरपोरेट जगत ने भी स्वच्छ भारत अभियान को अपनी-अपनी तरह से गति देनी शुरू की। इसी क्रम में दैनिक जागरण समूह ने भी स्वच्छता के इस अभियान को अपनाया। आज चार साल बाद यह कहा जा सकता है कि देश का शायद ही ऐसा कोई नागरिक हो जो स्वच्छता अभियान से परिचित न हो।

साफ-सफाई के प्रति जागरूकता एक बड़ी उपलब्धि इसलिए है, क्योंकि आम तौर पर हमारे देश में लोग सार्वजनिक स्थलों में गंदगी को लेकर बेपरवाह ही दिखते रहे हैं। चूंकि गंदगी के खिलाफ लड़ी जा रही लड़ाई लंबी चलेगी इसलिए प्रधानमंत्री ने एक बार फिर स्वच्छता ही सेवा के तहत देशवासियों को प्रेरित करने का काम किया। गत दिवस उन्होंने देश के अलग-अलग हिस्सों में वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये 17 जगहों पर विभिन्न लोगों से संवाद किया। इनमें नामचीन उद्योगपति, अभिनेता से लेकर आध्यात्मिक गुरु, मीडियाकर्मी, छात्र, ग्रामीण आदि शामिल थे।

स्वच्छता अभियान के बीते चार साल में कई उल्लेखनीय कार्य हुए हैं। इस दौरान करीब नौ करोड़ शौचालय बनाए गए। 2014 में महज 39 प्रतिशत आबादी शौचालय का इस्तेमाल करती थी। आज यह आंकड़ा 90 प्रतिशत तक पहुंच गया है। अभी तक 20 राज्य खुले में शौच से मुक्त हो चुके हैं। 20 राज्यों की इस उपलब्धि के बावजूद उत्तर और पूर्वी भारत के राज्यों में अभी काफी कुछ किया जाना शेष है। हमें इस पर ध्यान देना होगा कि स्वच्छता एक संस्कार के रूप में हमारी जीवनशैली में कैसे शामिल हो। इसके लिए हमें अपनी आदतों में परिवर्तन लाना होगा। आदत के कारण ही तमाम लोग शौचालय होने के बावजूद खुले में शौच की प्रवृत्ति नहीं छोड़ पा रहे हैं।

एक रिपोर्ट के अनुसार करीब 40 प्रतिशत लोग गंदगी के कारण बीमार पड़ते हैं। इस कारण उन्हें आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ता है। हालांकि स्थिति में बदलाव भी दिख रहा है। डायरिया के मामलों में कमी आई है। करीब तीन लाख बच्चों की जान बचाने में भी स्वच्छता अभियान की भूमिका मानी जा रही है। दरअसल लोगों को घर ही नहीं, आसपास भी सफाई की चिंता करनी होगी। आखिर क्या वजह है कि औसत नागरिक सड़क पर चलते अथवा ट्रेन-बस में सफर करते समय साफ-सफाई का ख्याल नहीं रखता? अपने घर का कूड़ा बाहर फेंक देना शिक्षित समाज की निशानी नहीं।

देश के अन्य शहरों को इंदौर से सीख लेनी चाहिए। सफाई के मामले में इंदौर की सफलता लगन और समर्पण की कहानी है। सफाई के मामले में 2016 में यह शहर 25वें स्थान पर था, लेकिन अब सिरमौर है। यहां हर घर और दुकान से कूड़ा इकट्ठा करते समय ही सूखे और गीले कचरे को अलग-अलग करने की व्यवस्था है ताकि उसका खाद और पशु चारे के तौर पर उपयोग किया जा सके। इंदौर की कायापलट इसलिए हो सकी, क्योंकि स्वच्छता अभियान ने लोगों की सोच बदलने का काम किया। अगर यह काम इंदौर या फिर भोपाल में हो सकता है तो फिर देश के दूसरे शहरों में भी तो हो सकता है। अगर दूसरे शहरों में ऐसा नहीं हो पा रहा है तो इसका प्रमुख कारण साफ-सफाई की ठोस योजनाओं का अभाव है।

स्वच्छता अभियान के कई आयाम हैं। जरूरी केवल यह नहीं कि सड़कों एवं अन्य सार्वजनिक स्थलों की नियमित सफाई हो। इसी के साथ सीवर सिस्टम को भी दुरूस्त करने की जरूरत है। सीवर सिस्टम के अभाव या फिर उसमें खराबी के कारण लाखों लोग नारकीय स्थितियों में रहने को विवश हैं। नियोजित बस्तियां तो अपेक्षाकृत साफ-सुथरी दिखती हैं, लेकिन अनियोजित अथवा अवैध बस्तियों में गंदगी का ही आलम नजर आता है।

हमारे शहरों की एक बड़ी समस्या कूड़ा निस्तारण की है। कूड़े के निस्तारण का उपयुक्त तंत्र न होने के कारण जगह-जगह कूड़े के ढेर लगे होते हैं। अंतत: इससे ड्रेनेज सिस्टम जाम होता है और बीमारियों का प्रकोप बढ़ता है। बरसात के दिनों में ड्रेनेज जाम होने से सड़कें तालाब बन जाती हैं। कई शहरों का नियोजित विकास नहीं हो पाने से वहां का सीवेज सिस्टम ध्वस्त हो चुका है। अगर सीवर लाइनें हैं भी तो उनके गंदे पानी के शोधन की ठोस व्यवस्था नहीं है। इस मामले में सरकारों को कहीं अधिक ध्यान देना होगा।

गंदगी के कारण शहरों की बदहाली का एक बड़ा कारण स्थानीय निकायों की निष्क्रियता है। यह नगर निकायों की जिम्मेदारी है कि वे शहर साफ रखें, लेकिन वे इस जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं कर पा रहे हैं। निकायों में भ्रष्टाचार एक बड़ी समस्या है। यह ठीक है कि उन्हें स्वायत्तता मिलनी चाहिए, लेकिन उन्हें अपनी कार्यप्रणाली भी दुरुस्त करनी होगी। कई निकाय तो अपने कर्मियों को वेतन देने भर की आमदनी भी नहीं जुटा पाते। बहुत कम स्थानीय निकाय ऐसे हैं जिनके पास पर्याप्त संसाधन हैं। बेहतर होगा कि स्थानीय निकायों का नेतृत्व करने वाले यह समझें कि ईमानदार कोशिश की कभी हार नहीं होती।

स्वच्छ समाज के निर्माण का हमारा सपना तब साकार होगा जब हम अपनी सोच में बुनियादी बदलाव लाएंगे। हम सभी को अपने आप से यह सवाल करना चाहिए कि क्या देश को गंदगी से मुक्त करना केवल सफाई कर्मियों का काम है? जिन सफाई कर्मियों को इस कारण विशेष महत्व मिलना चाहिए कि वे दूसरों की गंदगी साफ करते हैं उनके साथ अस्पृश्य सरीखा व्यवहार समझ से परे है। यह सबकी जिम्मेदारी है कि सफाईकर्मियों को यह आभास कराएं कि वे एक बड़ा काम कर रहे हैं। अभी हम इसके प्रति सचेत नहीं, इसका पता इससे भी चलता है कि रह-रह कर सीवर साफ करने वाले सफाई कर्मियों की मौत की खबरें आती रहती है। इन मौतों का एक बड़ा कारण सफाई कर्मियों की अनदेखी होती है। आखिर उन्हें आवश्यक उपकरण दिए बिना सीवर साफ करने के काम में लगाने का क्या मतलब?

अगर स्वच्छ भारत के सपने को साकार करना है तो सफाई कर्मियों को मुख्यधारा में शामिल करने के साथ उन्हें समुचित संसाधन भी उपलब्ध कराने होंगे। एक मीडिया समूह के नाते दैनिक जागरण का यही प्रयास है कि जहां सफाई कमिर्यों को समुचित महत्व और मान मिले वहीं हर व्यक्ति इस भावना से लैस हो कि सार्वजनिक स्थलों को साफ-सुथरा रखना खुद उसकी भी जिम्मेदारी है।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]