[ ज्ञान चतुर्वेदी ]: देश के अहाते में सालों से खड़ी एक इमारत अब ध्वस्त सी हो गई है। हम उसी में रह रहे हैं। पर करें क्या? कहां जाएं? व्यवस्था का यह भवन जर्जर हो गया है। पलस्तर झड़ रहा है। कहीं से गुजरो, सिर पर धूल गिरती है। कायदों का सीमेंट टूटकर गिर रहा है। नागरिक के सिर पर कायदे गिर रहे हैं। कभी शिकायत करो तो कहते हैं कि तुम कतई चिंता मत करो। ‘अरे, इसकी नींव बड़ी मजबूत है। नींव पर भरोसा रखो। छत गिर भी जाए, पर नींव बचा ले जाएगी तुम्हें। कमाल की नींव रखकर गए हैं इमारत बनाने वाले।’

संविधान की नींव पर नाज

संविधान की इस नींव पर बड़ा नाज है इमारत के मालिकों को। इमारत बड़ी अजीब हो गई है। मजबूत नींव। ढीले-ढाले नियमों का ईंट-गारा। कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा। भाई से ईंट, भतीजे से रोड़ा। फाइलों की रेत, अफसरी का चूना। नियमों की छत हर जगह से टपकती है। चुनाव का पानी बरसता तो पांच वर्षों में बस एक बार है, पर राजनीति के बरसाती पानी के निकास की कोई भी व्यवस्था पूरी इमारत में बनाई ही नहीं गई है।

राजनीति की सीलन

इमारत का कोना-कोना रिसता है। चारों तरफ राजनीति की सीलन का कब्जा है। सिफारिशों के जाले हर कोने में हैं। चापलूसी की फफूंद। ईंटें हिल रही हैं। सब तरफ दरारें हैं। कहने को इमारत की मरम्मत का काम भी अहर्निश जारी है। रंग-रोगन लगातार चलता रहता है। बिल बनते हैं। बिल पास होते हैं। दौरे। निरीक्षण। तबादले। जांचें। पोस्टिंग। वार्निंग। सस्पेंड। बर्खास्त। कंपल्सरी रिटायरमेंट। शपथ। बड़े साहब। उनसे भी बड़े साहब। छोटे साहब। उनसे भी छोटे साहब। सब साहब हैं। सब तरफ साहबी है। पलस्तर पर पलस्तर। रंग पर नया रंग। दरारें पुरती नहीं। दरवाजे ढीले हैं। खिड़कियां गायब। सरिये उखड़ रहे हैं। सही बात तो यह है कि पूरी इमारत ही ध्वस्त हो गई है।

पुरानी इमारत, नीतियां नई

देश इसी इमारत में रहने को अभिशप्त भी है। देश डरा-डरा रहता है इसके नीचे। देश को इस व्यवस्था पर मानो भरोसा ही नहीं रहा। हर सहारे पर शक हो चला है। सीढ़ियां कहीं पहुंचाती नहीं। नालियां चोक हैं। नल या तो बंद हैं या उनकी टोंटियां गायब हैं। तो फिर इसे खतरनाक घोषित क्यों नहीं करते? इसे ठीक क्यों नहीं करते? गिरा क्यों नहीं देते? जर्जर इमारतों को खतरनाक घोषित कर गिराने की व्यवस्था है संविधान में। एक राजनीतिक प्रणाली काम पर है। फिर गिराते क्यों नहीं। गिराने के टोटके भर चलते हैं। इसे गिराने की व्यवस्था जिन्हें करनी है वे कीचड़ की बाल्टियां और क्रिकेट का बल्ला लेकर गिराने निकले हैं। नारा लगाकर, शहर में पोस्टर चिपकवाकर, वे इस इमारत को देश के सिर पर ही गिराने की कोशिश में हैं। ये ऐसा क्यों कर रहे हैं?

बिना नींव की राजनीति की इमारत

क्योंकि उन्होंने स्वयं एक ऐसी इमारत बनाई है। वह भी इसी अहाते में है। राजनीति की इमारत व्यवस्था इमारत से भी खतरनाक है। इनकी इमारत तो बिना नींव की है। वैसे कभी इसकी मजबूत सी नींव भी थी। स्वतंत्रता आंदोलन की गहरी नींव। इन्होंने उसे उतना ही गहरा खोद डाला। अब पूरी इमारत हवा में है। नियम कायदे की एक ईंट भी नहीं। बातों की ईंटें। बयानों का चूना। बिना छत का भवन। चूहों का कब्जा है पूरी इमारत पर। चूहे भी ऐसे कि बिल्लियों को पाल लिया है इन चूहों ने। चूहे बेखौफ हैं अब। बिल्लियां चूहों की सुरक्षा कर रही हैं। पालतू बिल्लियों को दूध मिल रहा है। बिल्लियां खुश हैं। वे चूहों की प्रशस्ति गा रही हैं। बिल्ली बुद्धिमान जीव है। बुद्धिजीवी को पालतू बना लो तो चूहा होने की सार्थकता को सिद्ध करने वाले मिल जाते हैं।

राजनीति की इमारत और प्रशासन की इमारत

देश ऐसे में क्या करे? इन इमारतों का क्या करे? गिरा दे तो रहे कहां? दोनों इमारतें एक ही अहाते में है। एक ही परिसर में। एक सी खतरनाक। राजनीति की इमारत ज्यादा खतरनाक है या प्रशासन की? वैसे, दोनों ही एक जैसी डरावनी हो गई हैं। कहीं दोनों इमारतें एक दूजे का एक्सटेंशन तो नहीं हैं? ऐसा क्यों? क्योंकि, दोनों इमारतें कई जगह पर एक दूसरे से जुड़ी हुई है। वही गलियारे हैं। सुरंगे हैं। दोनों के बीच विश्वस्त चोर दरवाजे हैं। दोनों एक सी लगती हैं। दोनों एक ही हैं। पूरे अहाते को ही खतरनाक बना दिया है इन इमारतों ने। फिर क्या हो?

न्याय की इमारत

नागरिक इन इमारतों में रहने को मजबूर हैं। सब चाहते हैं कि ये इमारतें खतरनाक घोषित हों। पर जो तीसरी इमारत इन्हें खतरनाक घोषित कर सकती है, दरारें उसमें भी आने लगी हैं। यह है न्याय की इमारत। इससे पहले कि पूरा अहाता ही खतरनाक हो जाए कुछ तो करना होगा। बल्ले या कीचड़ की बाल्टी को जो लोग औजार मान बैठे हैं, वे भोले हैं, अपराधी हैं या नितांत गैर-जिम्मेदार वे हैं इन्हीं इमारतों के मालिकों की औलाद। अब तो अहाते के मालिकों को ही कुछ करना होगा। पहले तो उन्हें समझना होगा कि असली मालिक वे ही हैं। जमीन उनकी है। ये मालिक लोग सुन रहे हैं न? नागरिक बहरे तो नहीं हो रहे? याद रहे कि उत्सव का शोर कान खराब भी कर देता है। सुन रहे हों तो अहाते को बचाने बाहर निकलें।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]