[ हर्ष वी पंत ]: ईरान की पहेली एक बार फिर भारतीय विदेश नीति को उलझा रही है। कुछ सालों के अंतराल में ऐसा अक्सर होने लगा है। इसी के साथ बातें होने लगती हैं कि कहीं नई दिल्ली ईरान को गंवाने के करीब तो नहीं? भारत के रणनीतिक हितों के लिए ईरान की महत्ता समझाई जाती है। इसके लिए प्राचीन सभ्यता के दौरान रिश्तों की घिसी-पिटी दुहाई तक दी जाती है। फिर बताया जाता है कि अमेरिकी दबाव में भारत ईरान के साथ अपने रिश्तों की कैसे अनदेखी कर रहा है और चूंकि हम ईरान का ख्याल नहीं रख पा रहे हैं तो यह भारत की विदेश नीति के समग्र ढांचे को क्षति पहुंचा सकता है। इस प्रकार देखें तो बीते दो दशकों में भारतीय विदेश नीति से जुड़े विमर्श को शायद ही किसी देश ने इतना प्रभावित किया हो जितना ईरान ने किया है। 

भारत-ईरान संबंधों को झटका रेल परियोजना को लेकर लगा

भारत-ईरान संबंधों को हालिया झटका एक रेल परियोजना को लेकर लगा। ऐसी खबरें आईं कि ईरान ने चाबहार बंदरगाह से जाहेदान के बीच विकसित होने वाली परियोजना से भारत को बाहर कर दिया। यह रेललाइन एक त्रिपक्षीय समझौते का हिस्सा है। यह करार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 2016 की तेहरान यात्रा के दौरान हुआ था। इसमें ईरान और अफगानिस्तान की भारत के साथ सहमति बनी थी कि वह अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए एक वैकल्पिक व्यापार मार्ग विकसित करेगा। करीब 1.6 अरब डॉलर की इस परियोजना का जिम्मा भारतीय रेलवे कंस्ट्रक्शन लिमिटेड यानी इरकॉन को मिला। भारत और ईरान के बीच केवल यही एक पेच नहीं फंसा। इसी साल ईरान ने फरजाद-बी गैस क्षेत्र के विकास का दारोमदार एक देसी कंपनी को दे दिया। पहले इसे ईरान और ओएनजीसी विदेश यानी ओवीएल के बीच संयुक्त उपक्रम के रूप में विकसित किया जाना था। हालांकि इस पर तेहरान ने यह कहा कि हाल-फिलहाल ईरान इसे स्वयं विकसित करेगा और वह परियोजना के आगे के चरण में उचित पड़ाव पर भारत को इसमें अवश्य शामिल करेगा।

तेहरान की विदेश नीति का गुणा-गणित अमेरिका को ध्यान में रखकर लगाया जाता है

इन फैसलों ने भारत में विदेश नीति की नाकामी को लेकर एक तीखी बहस छेड़ दी। ऐसी बहस छेड़ने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि विदेश नीति ऐसा मसला नहीं कि कोई देश खुद ही इसे अपने हिसाब से तय कर सकता है। इसमें कई और पक्ष एवं पहलू भी जुड़े होते हैं। जैसे भारत का अपना एजेंडा और प्राथमिकताएं हो सकती हैं तो वहीं ईरान की वरीयताएं एकदम अलग हो सकती हैं। तेहरान के लिए भारत महत्वपूर्ण अवश्य है, लेकिन इतना भी नहीं कि वह उसकी विदेश नीति को निर्धारित कर सके। असल में तेहरान की विदेश नीति का गुणा-गणित अमेरिका को ध्यान में रखकर लगाया जाता है। अक्सर यह कहा जाता है कि नई दिल्ली अमेरिकी दबाव में तेहरान को अनदेखा कर रही है, जबकि हकीकत इसके उलट है। तेहरान ने न केवल नई दिल्ली को नजरअंदाज किया, बल्कि भारत के घरेलू मामलों में दखलंदाजी कर रिश्तों को पटरी से उतारने का प्रयास भी किया।

ईरानी कूटनीति के लिए सबसे बड़ी चुनौती अमेरिकी प्रतिबंधों का तोड़ निकालने की है

ईरानी कूटनीति के लिए अभी सबसे बड़ी चुनौती अमेरिकी प्रतिबंधों का तोड़ निकालने की है। ट्रंप प्रशासन ने ईरान पर अपना शिकंजा और कड़ा कर दिया है। वहीं यूरोप ईरान से किए वादे को पूरा नहीं कर पाया है। ऐसे में चीन की ओर तेहरान का झुकाव स्वाभाविक ही है। बीते कुछ दशकों के दौरान ईरान में चीन की पैठ बढ़ी है जो और गहरी हो सकती है, क्योंकि ईरान के पास कोई और विकल्प ही नहीं है।

ईरान चीन के साथ आर्थिक एवं सुरक्षा साझेदारी

ऐसी खबरें आ रही हैं कि ईरान चीन के साथ आर्थिक एवं सुरक्षा साझेदारी के लिए 25 वर्षों की मियाद वाला 400 अरब डॉलर के समझौते पर विचार कर रहा है। यह ईरानी शासन की व्यग्रता को ही दर्शाता है जिसने शुरुआत में पश्चिम से उम्मीदें लगाई थीं। वास्तव में अमेरिकी प्रतिबंधों के दौर में अगर ईरान में कोई देश कुछ ठोस करने में सक्षम हुआ तो वह भारत ही है।

चाबहार परियोजना: पाक को बाईपास कर अफगान, मध्य एशिया तक भारत आसानी से पहुंच सकता है

शुरुआती चरण में कुछ देरी के बावजूद भारत ने दिसंबर 2017 में चाबहार परियोजना के पहले चरण को आरंभ कर दिया। तबसे शाहिद बेहेस्ती टर्मिनल का जिम्मा उसने ही संभाला हुआ है। भारत के लिए यह एक रणनीतिक निवेश है जिससे वह पाकिस्तान को बाईपास कर अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक आसानी से पहुंच सकता है। अमेरिकी प्रतिबंधों के दौर में नई दिल्ली अपने इस अहम निवेश को सिरे चढ़ाने में सफल रही। इसमें ईरान के साथ एकजुटता से अधिक भारत के लिए रणनीतिक महत्व अधिक था।

भारत और ईरान रेल लाइन के विकास को लेकर प्रतिबद्ध हैं: ईरान के रेल मंत्री

हालांकि ईरान के रेल मंत्री ने स्पष्ट किया है कि भारत और ईरान रेल लाइन के विकास को लेकर प्रतिबद्ध हैं और कुछ निहित स्वार्थी तत्व भारत को इस परियोजना से बाहर करने का दुष्प्रचार कर रहे हैं, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि भारत सहित पूरी दुनिया के साथ ईरान के संबंधों का स्वरूप तय करने में अमेरिकी प्रतिबंध लंबे समय तक अपनी भूमिका निभाएंगे। ईरान अपने इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स कॉर्प्स से जुड़ी खातम-अल-अनबिया कंस्ट्रक्शंस को परियोजना में शामिल करने पर जोर दे रहा है। अमेरिकी प्रतिबंध को देखते हुए भारत को इस पर एतराज है। यही मौजूदा गतिरोध का कारण है। यहां तक कि चीन भी अमेरिकी प्रतिबंधों को देखते हुए खासी एहतियात बरत रहा है। फिर भी ईरान के साथ उसकी 400 अरब डॉलर की साझेदारी एक बड़ी बात अवश्य है, लेकिन यह देखने वाली बात होगी कि बीजिंग इसे कैसे फलीभूत करता है और क्या इसमें ईरान के लिए कोई जाल तो नहीं होगा।

भारत के अमेरिका और अन्य अरब देशों के साथ तमाम हित दांव पर लगे हैं

जैसे ईरान की विदेश नीति के निर्धारण में अमेरिकी पहलू बहुत अहम हैं उसी तरह भारत के भी अमेरिका और अन्य अरब देशों के साथ तमाम हित दांव पर लगे हैं जिन्हें ईरान के साथ रिश्तों की खातिर अनदेखा नहीं किया जा सकता। भारत में अनुच्छेद 370 हटाने और दिल्ली में दंगों को लेकर जहां ईरानी नेतृत्व भारत के आंतरिक मामलों में मुखर रहा वहीं अरब की अन्य शक्तियों का रुख खासा बदला हुआ रहा, जो भारत के साथ और व्यावहारिक रूप से व्यवहार कर रही हैं। तेहरान को समझना होगा कि इस क्षेत्र और उससे परे भी नई दिल्ली के साझेदार हैं, जिनके साथ उसके ऊंचे दांव लगे हुए हैं।

द्विपक्षीय रिश्तों को संभालना केवल भारत की ही जिम्मेदारी नहीं है

भारत ने ईरान की महत्वाकांक्षाओं का निरंतर समर्थन किया है। वैसे भी द्विपक्षीय रिश्तों को संभालना केवल भारत की ही जिम्मेदारी नहीं है। अगर ईरान भारत का साथ छोड़ने को तत्पर है तो नई दिल्ली के लिए भी ऐसा करना आसान है। भारत को निश्चित रूप से उसकी कीमत चुकानी होगी, लेकिन यह ईरान को कहीं ज्यादा भारी पड़ेगा।

( लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक हैं )