[सूर्यकुमार पांडेय]। जब कोरोना ने भारत में प्रवेश किया और फिर यहां से निकलने से इन्कार कर दिया तो हमारे आइपीएल ने देश से निकलकर सीधा यूएई का रुख कर लिया। हम जिस देश की जमीन से निकले हुए तेल का आयात करते आए थे, आज उसकी जमीन पर क्रिकेट खेल रहे हैं। खेलप्रेमी कह रहे हैं-‘तुम हमें तेल दो, हम तुम्हें खेल देंगे।’

अब हम टीवी पर दर्शकविहीन स्टेडियमों में इन मैचों का आनंद लेने लग गए हैं। एक्चुअल मैच वर्चुअल लोगों की उपस्थिति में संपन्न हो रहे हैं। हमारी आंखें देख रही होती हैं कि इक्का-दुक्का लोगों को छोड़कर पूरा स्टेडियम खाली पड़ा हुआ है, लेकिन बल्ले से गेंद का सुखद स्पर्श होते ही ऐसा शोरशराबा सुनाई देता है, गोया क्रिकेट के उस स्टेडियम में उत्साह से लबरेज हजारों दर्शक आनंदित हो रहे हैं। हां, उन लोगों को जरूर घोर निराशा हुई है, जो टिकट लेकर क्रिकेट मैच देखने के शौकीन हैं। आज वे सब भी विवश होकर टीवी के पर्दे को निहार रहे हैं और आहें भरते हुए गा रहे हैं-ओ दूर के मुसाफिर हम को भी साथ ले ले, हम रह गए अकेले।

कोरोना ने कितना कुछ बदल कर रख दिया

क्या किया जाए, इस कोरोना ने न जाने कितने लोगों को अकेले रहने के लिए मजबूर कर रखा है। अकेली तो वह बेचारी क्रिकेट की गेंद भी अपने आपको अनुभव करती होगी, जिस पर छक्का जड़ा जाता है और वह सन्नाटे में निर्जन स्थान में जा गिरती है। ऐसी हर गेंद को लगता है, जैसे उसको कोरोना टेस्ट के बगैर ही क्वारंटाइन होने को कह दिया गया है। एक वह भी वक्त हुआ करता था, जब उस गेंद को दर्शकों से खचाखच भरे हुए स्टेडियम में कोई उत्साही दर्शक लपक कर वापस उसे मैदान में बड़ी बहादुरी के साथ फेंक दिया करता था। कई बार तो उसकी बहादुरी टीवी पर लाइव भी दिखा करती थी। आज हर छक्के के बाद नई गेंद से खेलते रहने की विवशता है। कोरोना ने कितना कुछ बदल कर रख दिया है। बिहार में कोरोना के बीच चुनाव भी होने जा रहा है। वह भी बदला- बदला दिखने लगा है।

एक समय था जब देश में क्रिकेट को धर्म कहा जाता था 

यूं भी पिछले कुछ दशकों में हमारी प्राथमिकताओं और अभिरुचियों में भारी बदलाव आ चुका है। क्रिकेट और फिल्म न केवल हमारा मनोरंजन करते रहे हैं, बल्कि हमारे सामाजिक जीवन में परिवर्तन लाने वाले कारक भी बन चुके हैं। एक समय क्रिकेट को इस देश में धर्म कहा जाने लगा था। उधर फिल्मी पर्दे की चकाचौंध के चलते हर युवा अपने आप को हीरो और हर युवती हीरोइन बनने के सपने देखने लग गई थी। वह तो अब जाकर पता चल रहा है कि हम जिनको ‘हीरोइन’ समझ रहे थे, उनमें से अधिकांश ‘हेरोइन’ की गिरफ्त में थीं।

क्रिकेट की मंडी में खिलाड़ियों की लगती है बोली

क्रिकेट में भी जब-तब मैच फिक्सिंग के मामले उजागर होते ही रहते हैं। क्रिकेट की मंडी में खिलाड़ियों की बोली लगती है। नीलामी होती है। उस पर तुर्रा यह कि कई खरीदार तो फिल्म उद्योग के लोग ही होते हैं। यह दौर ही कुछ ऐसा है कि सभी बिकने को तैयार बैठे हैं। पहले कहा जाता था कि लोग जिस पत्तल में खाते हैं, उसी में छेद कर देते हैं। समय बदला। लोग पत्तल की जगह पर थाली में खाने लगे। अब थाली में छेद करने की बातें होती हैं। संभव है, कल प्लेट में सुराख करने वाला मुहावरा चलन में आ जाए।

एक नशा है फिल्म भी और क्रिकेट भी। कुछ लोगों के लिए राजनीति भी एक नशा ही है। जैसे अभिनय की दुनिया के बहुत सारे कलाकार फ्लॉप हो जाया करते हैं और तमाम क्रिकेटर आउट ऑफ फॉर्म हो जाते हैं, वैसे ही राजनीति में भी बहुतेरे लोग अपनी नाक रगड़ते रह जाते हैं, लेकिन उनकी एक बार जिस तरह की छवि बन जाया करती है, उससे कभी भी बाहर नहीं निकल पाते हैं। तब ऐसे लोग भी अपनी बोरियत मिटाने के लिए देश से बाहर चले जाया करते हैं। हमारा आइपीएल भी मनोरंजक छवि बरकरार रखने के लिए बाहर निकल लिया है। फिलहाल, कोरोना से भयभीत, परेशान और टीवी चैनलों पर महीनों से चली आ रही एकरसता भरी खबरों और बेनतीजा बहसों से उकताए हुए लोगों के लिए यह आइपीएल एक नए आनंद का अवसर लेकर आया है, जिसमें परिणाम आने की पक्की गारंटी तो है।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]