जिनके पास जो नहीं रहता, उसी के विषय में जिज्ञासा की जाती है। जिसका परिचय होता है, उसका परिचय नहीं पूछा जाता। जानने वाले जान जाते हैं। किसी से मिलते ही परिचय जानने की छटपटाहट समस्याएं उत्पन्न करती है। प्रसंग और संदर्भ में तो परिचय का महत्व होता है, पर अपनी धुन में चले जा रहे व्यक्ति का परिचय जानने के लिए पग-पग पर टोकना आहत करता है। किसी को अपनी ओर आकर्षित करने की अनेक विद्याएं निकाली जाती हैं। परिचय जानने वाले दो प्रकार के होते हैं। प्रथम वे होते हैं, जो स्वयं को महान मानकर सामने वाले के अनादर से नहीं हिचकिचाते। अपने प्रश्न के स्तर का उत्तर चाहते हैं। वे स्वयं को दुधमुंहे बच्चे की भांति नवजात आयु का मानते हैं। ऐसे लोग नहीं जानते पात्रता के अनुसार कार्य करने वाले जीवन भर सुंदर लगते हैं। होनहार लोग प्रतिकूलता को अनुकूलता बनाने में आयु खपाते हैं।
दूसरे प्रकार के वे अच्छे लोग हैं, जो हाव-भाव या अपने मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से अपने पारिवारिक संस्कारों का परिचय देते हैं। गुण ग्राहकता जन्मजात होती है। दूसरों में गुण तलाशने का तप गुदड़ी के लाल करते हैं। विद्वानों को आगे बढ़ाने वाले सरस्वती पुत्र कम बचे हैं। चरण खींचकर हाशिये पर करने की होड़ में उच्चकुल नहीं रहता। इतिहास में चमकने वाले महान व्यक्तित्वों को ऊंचाई देने का श्रेय ऐसे लोगों को है, जिन्होंने उनके गुणों को परखकर उन्हें आगे बढ़ाकर मानव से महामानव बनाया। दृष्टिकोण के अनुसार विश्व दिखाई देता है। अचानक मिलने वाले अपने सकारात्मक प्रभाव से किसी को भी विश्वविख्यात बना देते हैं। परिचय की श्रेष्ठता एक-दूसरे से जोड़ने का अवसर देती है। कभी-कभी परिचय अनहोनी होनी बनकर जौहरी से हीरे को मिलाती है। शब्द की ऊर्जा का आलोक संगीत की झंकार बनता है। बड़े-बड़े गुमनाम हो जाते हैं, जब परिचय कराने वाले गूंगे बनकर छलते हैं। जिनके परिचय देने से किसी की हिमालय जैसी ऊंचाई संसार जान जाता है, उनसे राह बचाई जाती है। अपने दायित्व से मुकरने वालों को कभी इतिहास क्षमा नहीं करता। अच्छाई की अनदेखी एक दिन खुल ही जाती है। कुछ लोग पद और धन जांचते हैं और वहींकुछ लोग उपलब्धि और प्रतिष्ठा भांपते हैं। यही परिचय का वास्तविक अर्थ है।
[ डॉ. हरिप्रसाद दुबे ]