जागरण संपादकीय: नए वर्ष में अंतरराष्ट्रीय चुनौतियां, इस साल से बड़ी उम्मीदें
आर्थिक एवं रणनीतिक मोर्चे पर ट्रंप का पहला कार्यकाल शेष विश्व के साथ अमेरिका की सक्रियता-सहभागिता के स्तर को नए सिरे से निर्धारित करने वाला रहा था। अमेरिकी राजनीति का इस कदर अंतर्मुखी होते जाना शेष विश्व के लिए एक चेतावनी भरी खतरे की घंटी है जो वैश्विक सुरक्षा के प्रमुख गारंटर के रूप में अमेरिका पर हद से ज्यादा निर्भर रहा है।
हर्ष वी. पंत। नए वर्ष की दस्तक के साथ नई उम्मीदों का परवान चढ़ना बहुत स्वाभाविक है। चूंकि पिछला साल और उससे पिछले के कुछ साल भू-राजनीतिक ढांचे में खासी हलचल मचाने वाले रहे, इसलिए इस साल से सबसे बड़ी उम्मीद तो यही है कि दुनिया में स्थायित्व एवं स्थिरता का भाव बढ़े। पिछले साल का सरसरी तौर पर एक सिंहावलोकन करें तो पाएंगे कि कई देशों में चुनाव से लेकर तख्तापलट के नाम रहा 2024 बड़े उतार-चढ़ाव से गुजरा।
यूरोप से लेकर एशिया और दक्षिण अमेरिका से लेकर अफ्रीका तक राजनीतिक वर्ग जनता की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा। कई वैश्विक नेताओं को साख के संकट का सामना करना पड़ा। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की नाटकीय रूप से सत्ता में वापसी और सीरिया में बशर अल-असद के दशकों से स्थापित शासन का पतन जैसे अलग-अलग राजनीतिक रंगों को देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि वैश्विक ढांचा दूसरे विश्व युद्ध के बाद से सबसे नाजुक दौर से गुजर रहा है। ऐसे में इस साल से बड़ी उम्मीदें हैं।
दुनिया के अलग-अलग कोने संघर्ष का मैदान बने हुए हैं। यह कोई दबी-छिपी बात नहीं कि किसी भी युद्ध की बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। राजनीतिक, आर्थिक एवं नैतिक सभी स्तरों पर इसका असर पड़ता है। जो लोग प्रत्यक्ष रूप से युद्ध का हिस्सा नहीं होते, वे भी किसी न किसी रूप में उससे प्रभावित होते हैं। विकसित देशों में लंबे समय से यह धारणा स्थापित हुई कि सुदूर लड़े जाने वाले युद्धों से उन पर कोई असर नहीं पड़ेगा। बीता साल उस धारणा को ध्वस्त करने वाला सिद्ध हुआ।
ऐसे में, स्वाभाविक है कि स्थायित्व एवं स्थिरता के लिए इस साल कुछ नया गुणा-गणित करना होगा। इसकी आवश्यकता इसलिए भी कहीं अधिक बढ़ गई है, क्योंकि भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का नए सिरे से बढ़ना चिंताजनक है। इस कड़ी में विशेषकर पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों का रूस-चीन जैसी अधिनायकवादी शक्तियों के साथ संघर्ष तो बढ़ा ही है, यूरोप एवं पश्चिम एशिया में युद्ध के नए मोर्चे भी बन गए हैं।
इसने शीत युद्ध के उपरांत उदार लोकतांत्रिक स्थायित्व से जुड़े आशावाद को चुनौती दी है। इस रुझान ने वैश्विक ढांचे के नाजुक पहलुओं को रेखांकित करने के साथ ही परस्पर आर्थिक निर्भरता और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों को भी सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है। पारंपरिक सत्ता-शक्ति वाली राजनीति की वापसी ने यही दर्शाया है कि वैचारिक एवं भू-राजनीतिक टकरावों की गुंजाइश अब भी कायम है। यह वही राजनीति है जो सेना के जरिये सीमाओं को नए सिरे से खींचने में विश्वास रखती है। तकनीकी प्रगति भी सैन्य रणनीतियों से लेकर युद्ध क्षेत्रों को बड़े पैमाने पर प्रभावित कर रही है।
नए वर्ष की शुरुआत एक ऐसे समय पर हो रही है, जब दुनिया भू-राजनीति की शक्तियों के विभिन्न पहलुओं के अनुरूप ढल रही है। यूक्रेन युद्ध, इजरायल-हमास टकराव, प्रमुख व्यापारिक सामुद्रिक मार्गों के समक्ष उत्पन्न हो रहे खतरों से लेकर स्वाभाविक रूप से चीनी चुनौती दुनिया भर के नीति-निर्माताओं को अपनी नैया पार लगाने के लिए नए चश्मे से नीतियां बनाने की ओर उन्मुख कर रही हैं।
वर्तमान स्थितियां ऐसी हैं, जो आर्थिक पहलुओं के जरिये वैश्विक राजनीति को प्रभावित करने वाली अवधारणा को लेकर पुनर्विचार करने पर मजबूर कर रही हैं। डोनाल्ड ट्रंप का उभार इसी का संकेत है, जो वैश्वीकरण के असमान फायदों का राग अलाप रहे हैं। उन्होंने अमेरिकी राजनीति की धारा को इस मुद्दे के जरिये नाटकीय रूप से बदल भी दिया।
आर्थिक एवं रणनीतिक मोर्चे पर ट्रंप का पहला कार्यकाल शेष विश्व के साथ अमेरिका की सक्रियता-सहभागिता के स्तर को नए सिरे से निर्धारित करने वाला रहा था। अमेरिकी राजनीति का इस कदर अंतर्मुखी होते जाना शेष विश्व के लिए एक चेतावनी भरी खतरे की घंटी है, जो वैश्विक सुरक्षा के प्रमुख गारंटर के रूप में अमेरिका पर हद से ज्यादा निर्भर रहा है।
एक ऐसे समय जब बड़ी शक्तियों के साथ वैश्विक समुदाय का मोहभंग हो रहा है तब ग्लोबल साउथ यानी विकासशील देशों की भूमिका स्वत: महत्वपूर्ण हो जाती है। मौजूदा रुझानों को देखा जाए तो आने वाले समय में वैश्विक वृद्धि की दशा-दिशा में ग्लोबल साउथ की अहम भूमिका रहेगी, जिसमें भारत शीर्ष पर रहने वाले देशों में से एक होगा।
इसलिए विकासशील देशों के लिए यह आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य हो जाता है कि वे इस वास्तविकता को समझकर उसे ग्लोबल गवर्नेंस के ढांचे में भी दर्शाएं। चाहे जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए बनने वाली योजनाओं की बात हो या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआइ के नियमन की बात हो, ऐसे संक्रमण काल में ग्लोबल साउथ और भारत जैसे देशों की भूमिका निर्णायक होनी चाहिए। इसके लिए नया खाका और अधिक केंद्रित एजेंडा तैयार करना होगा।
वर्तमान परिस्थितियां भारत के लिए एक बड़ा अवसर प्रस्तुत कर रही हैं। इस नए वर्ष में जब चीन अपनी आभा खोता दिख रहा है, तब भारत एक अत्यंत अनुकूल भू-राजनीतिक एवं भू-आर्थिक स्थिति में नजर आ रहा है। जब विकसित देश आत्मकेंद्रित होकर अंतर्मुखी होते जा रहे हैं और चीन का अन्य देशों के प्रति आक्रामक रवैया जगजाहिर है, तब वैश्विक नेतृत्व के मोर्चे पर एक निर्वात की स्थिति उत्पन्न हो रही है, जिसे भरना आवश्यक होगा।
यह काफी हद तक नई दिल्ली के रवैये पर निर्भर होगा कि वह शेष विश्व के साथ कैसे तालमेल बिठाती है। इसमें केवल अपनी चिंता और हितों की परवाह ही नहीं, बल्कि दुनिया के बड़े हिस्सों के हितों एवं चिंताओं को भी देखना होगा, जिनकी अभी तक वैश्विक विमर्श में अनदेखी होती आई है।
(लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में उपाध्यक्ष और लंदन स्थित किंग्स कालेज में प्रोफेसर हैं)














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