लोकतंत्र में आलोचना का विशेष महत्व है। प्रमुख विपक्षी दल से तो खास तौर पर यह अपेक्षा रहती है कि वह सरकार के काम-काज की गंभीर आलोचना करे। सोनिया गांधी ने जिस तरह अपने को पीछे कर राहुल गांधी को कांग्रेस नेतृत्व का भार सौपा और उनको भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया उससे राहुल पर संसद में बोलने और सरकार पर हमला करने का दायित्व और बढ़ गया, लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार आने के बाद इस संबंध में उन्होंने कोई ख्याति अर्जित नहीं की है, जबकि कांग्रेस के युवा सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया का प्रदर्शन लगातार बेहतर रहा है। राहुल गांधी के संसद में यदा-कदा बोलने पर सांसदों का मनोरंजन अधिक होता है, लेकिन ज्ञानवर्धन कम। उनके भाषण में त्रुटियां भी होती हैं और वैचारिक अपरिपक्वता भी। इस सबके बीच राहुल में कुछ बदलाव भी आया है। वह त्रुटियों को भी सत्तापक्ष पर कटाक्ष के लिए प्रयोग कर लेते हैं। जब सत्तापक्ष ने संसद में उनके द्वारा 'प्रधानमंत्री ' की जगह 'आपके प्रधानमंत्री ' के प्रयोग पर आपत्ति की तो वह यह कह कर बच निकले कि 'क्या मोदी जी आपके प्रधानमंत्री नहीं हैं '? इसी प्रकार जब राहुल ने गांधीजी और सावरकर का बंटवारा कर दिया यह कह कर कि 'गांधी हमारे, सावरकर आपके ' और विरोध हुआ तो यह कह कर बच निकले कि 'क्या सावरकर आपके नहीं हैं '?

पहले की अपेक्षा राहुल का आत्मविश्वास बढ़ा नजर आता है। वह शायद यह मानने लगे हैं कि उनका कद भावी प्रधानमंत्री का है इसलिए उनको केवल प्रधानमंत्री मोदी पर ही प्रहार करना चाहिए। उनकी आलोचनाओं में कुछ पैनापन भी आ गया है। शायद राहुल ने कृषि और किसानों की समस्याओं को अपना प्रमुख एजेंडा बना लिया है। वह किसानों, मजदूरों की लगातार बात कर रहे हैं। पिछले दिनों बारिश से फसलों को नुकसान पर उन्होंने केंद्र सरकार को याद दिलाया कि प्रभावित किसानों की मदद की जानी चाहिए। पिछले वर्ष तो उन्होंने मोदी सरकार को भूमि-अधिग्रहण पर किसान-विरोधी करार देकर इस कदर घेरा था कि सरकार को अपना निर्णय बदलना पड़ा और अंतत: भूमि-अधिग्रहण अध्यादेश नष्ट हो गया। राहुल को अब कृषि के मुद्दों पर मोदी सरकार के विरुद्ध तीखे तेवरों के लिए जाना जाता है। वह यह प्रमाणित करने पर आमादा हैं कि मोदी की नीतियां इस देश के 67 प्रतिशत लोगों अर्थात किसानों के हितों के अनुकूल न होकर कुछ पूंजीपतियों और कॉरपोरेट घरानों के हितों की रक्षा करने वाली है। वह पहले भी मोदी सरकार को 'सूट-बूट की सरकारÓ कह कर उसका उपहास उड़ा चुके हैं। बजट प्रावधानों पर बोलते हुए उन्होंने सरकार की काला धन को खजाने में लाने की योजना को 'फेयर एंड लवली योजनाÓ बता कर कटाक्ष किया, लेकिन 1997 में जब चिदंबरम वित्तमंत्री थे तब उन्होंने भी यही योजना लागू की थी और 3,50,000 लोगों ने 780 करोड़ रुपये टैक्स के तौर पर जमा किए थे। इसी प्रकार 1999 में अटल सरकार ने वालंटरी डिसक्लोजर स्कीम में काला धन को राजकोष में लाने की योजना लागू की जिसमें 25,000 करोड़ रुपये टैक्स के रूप में वसूले गए। अब देश को इस बात का इंतजार है कि विदेशी बैंकों का काला धन कब वापस आता है?

राहुल के अनुसार मोदी सरकार गरीबों और पिछड़ों, दलित और अल्पसंख्यकों, कामगार और नौकरी-पेशा लोगों, महिलाओं और नवयुवकों की नहीं, वरन धनवानों और उद्योगपतियों की सरकार है जो कुछ लोगों के लिए काम कर रही है। उन्होंने मोदी को मनरेगा पर घेरा। इसके बाद रोहित वेमुला और कन्हैया कुमार के मुद्दे को गरीब, दलितों और आदिवासियों से जोड़ा और उनको याद दिलाया कि प्रधानमंत्री देश नहीं, न ही देश प्रधानमंत्री है, लेकिन वह भूल गए कि ऐसा दावा तो कभी प्रधानमंत्री ने किया नहीं। हां, केवल कांग्रेस ही अपने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बारे में ऐसा दावा कर चुकी है जब देवकांत बरुआ ने कहा था इंडिया इज इंदिरा एंड इंदिरा इज इंडिया अर्थात भारत इंदिरा है और इंदिरा ही भारत है।

यदि संसद में विपक्षी दलों द्वारा गंभीर आलोचनाएं हों तो सरकार को उसकी काट प्रस्तुत करने का अवसर मिले और जनता को उन दोनों की दलीलों को सुनने और विभिन्न दलों के प्रति अपना नजरिया बनाने का मौका मिले, लेकिन क्या संसद को आलोचना की जगह आरोप का मंच बनाना उचित है? आरोपों में हल्कापन होता है, आलोचना में गंभीरता। आलोचना तथ्यों और तर्क पर आधारित होती है और उसके लिए अध्ययन की जरूरत होती है। बड़े नेताओं के पास काम बहुत होते हैं, फिर भी उनको जिस विषय पर बोलना हो उसके लिए तैयारी जरूर करनी चाहिए। चूंकि राहुल को स्वाभाविक तौर पर मीडिया अटेंशन प्राप्त है इसलिए यदि वह तैयारी से बोलें तो स्वर तीखे होने पर भी उनको जन-स्वीकार्यता और समर्थन मिल सकता है, लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि उनकी काट करने का हक मोदी और उनकी सरकार को भी है और वाकपटुता में मोदी को आसानी से शिकस्त नहीं दी जा सकती। भूमि-अधिग्रहण बिल पर कदम खींचकर मोदी ने राहुल के आरोपों की धार कुंद कर दी और हाल के बजट को कृषि और किसान केंद्रित कर उन पर गंभीर पलटवार किया। जाहिर है कि बजट के बाद कोई भी मोदी सरकार पर किसानों की उपेक्षा का आरोप नहीं लगा सकता. आलोचना का तो जवाब दिया जा सकता है, लेकिन आरोपों पर अनावश्यक क्यों बोला जाए?

आरोपों और आलोचना दोनों का सटीक जवाब 'सुशासन ' द्वारा दिया जाना चाहिए जो संभवत: मोदी सरकार की कोशिश है। क्या इसे बड़ी उपलब्धि नहीं कहा जाना चाहिए कि कांग्रेस की संप्रग सरकार के दस वर्षों के शासन के दौरान भ्रष्टाचार लोक-विमर्श का प्रमुख मुद्दा बन गया था जो पिछले 20 माह में अचानक ख़त्म हो गया है? ऐसा नहीं कि देश में भ्रष्टाचार समाप्त हो गया है, लेकिन कम-से-कम उसमें मोदी सरकार की संलिप्तता तो नहीं। मोदी के आने से देश के शासन में विचारधारामूलक परिवर्तन हुआ है। जनता ने दक्षिणपंथी विचारधारा की सरकार बनाने का जनादेश दिया और वह भी एक ऐसे शख्स के नेतृत्व में जो 2002 से 2014 तक अनवरत आलोचना की भट्ठी से तप कर निकला है। मोदी सरकार के खिलाफ राहुल की आक्रामकता बढ़ी जरूर है, लेकिन उनको देखना होगा कि वह 'बैक-फायर ' न कर जाए और मोदी को नुकसान की जगह फायदा न मिल जाए। 'लेफ्टÓ (वामपंथ) और 'लेफ्ट ऑफ द सेंटर ' (कांग्रेस और अन्य दलों) का मोदी सरकार को निशाने पर लेना स्वाभाविक और लोकतंत्र के अनुरूप है, लेकिन भ्रष्टाचार की जगह असहिष्णुता को अपनी आलोचना का केंद्र बनाना जनता को पच नहीं रहा। अगर देश में वास्तव में असहिष्णुता होती तो विरोध और आलोचना के जो स्वर पूरे देश में गूंजते रहते हैं उनका अस्तित्व न होता।

[लेखक डॉ. एके वर्मा, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं]