दीपावली एक मंगल है। दीपावली एक उत्प्रेक्षा है। उस बहाने हम जीवन के रंग-बिरंगे पहलुओं पर सोच पाते हैं। ऐसे पर्व जीवन को उत्सव बना देते हैं। आजकल ‘उत्सव’ शब्द काफी चला हुआ लगता है, परंतु मनुष्य की उत्सवधर्मिता का अंत नहीं। बाहरी और भीतरी, दोनों तरह के प्रसंग जीवन को गतिशील उत्सव में बदल देते हैं। बाहर के मेले के साथ भीतर का मेला। एक रूपक निरंतर चलता रहता है। अंधेरे और उजाले के द्वंद्व के रूप में। दोनों के उपयोग हैं। यदि उजाला न हो तो जीवन का संसार न चले और उजाला चकाचौंध में बदल जाए तो जीना मुश्किल। अंधेरे की भी अपनी अहमियत है, लेकिन यह इतना भी नहीं होना चाहिए कि जीवन असंभव हो जाए। रात को शांत अंधेरा न हो तो सुकून न मिले। अंधेरे-उजाले की धूप छांव से क्षण-क्षण की नूतनता बनती है। परिवर्तनशीलता निर्मित होती है। अंधेरे को खलनायक न बनाएं। उसकी उपयोगिता है। निखिल विश्व में जो कुछ भी है उसकी अर्थवत्ता है। बगैर अंधेरे की अर्थवत्ता जाने उजाले को मूल्यवान नहीं बनाया जा सकता।
लघुताएं महत्वपूर्ण होती जा रही हैं। उनको भावपूर्ण तरीके से ग्रहण करना होगा। लघु मानव ही इस समय का महामानव है। लघुदीप हमारे रास्तों को जगमग कर देता है। यह समय आम आदमी का है। उसको अलक्षित करके शीर्ष का व्यक्ति भी धराशायी हो सकता है। कृषि का सम्मान आम आदमी का सम्मान है। कृषि पूरे विश्व में संघर्षशील पेशा है और अनेक बार दयनीयताओं से आक्रांत। इसीलिए भारत में कृषक के जीवन में अपेक्षाकृत अंधेरे ज्यादा हैं तथा अमेरिका वगैरह पश्चिमी देशों में सब्सिडी के आधार पर चलने के लिए बाध्य। लेकिन दीपावली और छठ कृषि संस्कृति के ही उत्सव हैं। जिनकी वजह से यह रंग हमारे जीवन में आता है उनके जीवन का रंग भी हमें ध्यान में रखना चाहिए। यदि खलिहान में जगरमगर नहीं है तो दीये में तेल कहां से आएगा? झालर में बिजली के लट्टू कहां से लगेंगे? वास्तव में खलिहान की देवी ही लक्ष्मी है, जो दीपावली का हेतु है। दीपावली इस धरती को और लभ्य बनाती है। वर्षों से हमने उजियारे की चाह में, उसके पथ पर चलते हुए हार्दिक स्नेह से इसे जोड़ा है। बदरंग और उदास आकारों को इसने काव्यात्मक बनाया है। इसने हमारे आंतरिक ‘स्वयं’ को गरिमा दी है। अज्ञेय के शब्दों में-‘यह दीप अकेला गर्व भरा मदमाता, इसको भी पंक्ति को दे दो।’ गौतम बुद्ध ने ‘अप्प दीपो भव’ कहा। रोशनी हमें जामुनी सुगंध से भर देती है दीपावली में। यह एक तरह से पृथ्वी का बखान है, इस अपरिहार्य पृथ्वी के फलों का विविध स्वाद। दीपावली हमारी आकांक्षाओं को गति देती है। अगाध प्रेम और आत्मीयता को मुकुलित करती हुई। महावीर व राम का स्वागत खट्टे मीठे अनुभवों की प्रस्तावना है। अपने पुरखों का अंतर्गान है। नवरात्र की शक्ति, विजयादशमी का अन्याय विरोध दीपावली में उजास की पुनीतता में परिवर्तित हो जाता है या नव आकार ले लेता है। इस दुनिया से लगाव भी जरूरी है। विरत जाने के विचार से परे इस दुनिया को बेहतर बनाना भी तभी होगा जब हम इसे प्यार करेंगे। सच्चा प्यार पृथ्वी का उत्सव है और वही आंतरिक उजाला है।
कृषि व उद्योगों को रियायत के बल पर अग्रगामी, अर्थनीति का वाहक नहीं बनाया जा सकता। उसे स्वावलंबी बनाना होगा। उसे स्वराज देना होगा। दीपावली उसी स्वराज का आह्वान है। स्मरण करें दीपावली व छठ, दोनों ऊष्मा के पर्व हैं, ऊर्जा के बिंब वाले। दोनों ज्योति के आमंत्रण हैं। दोनों स्वच्छता और सामुदायिकता के आधार हैं। दोनों सामान्य जनजीवन के संगीत के हेतु हैं। छठ में उगते और डूबते सूर्य, दोनों को अघ्र्य देते हैं यानी हर परिस्थिति में आपका साथ। यह नहीं कि चमक में तो साथ रहे, जब
धूमिल हुए तो साथ छोड़ दिया। गरिमामय व्यक्ति का उदय व अस्त, दोनों गरिमापूर्ण होते हैं या होने चाहिए। रंग बिरंगी आकांक्षाएं सुनहरी धूप में दीपों की तरह जगमगाती हैं। दीप में क्या जलता है, हमारी अंत:प्रज्ञा। सूर्य में क्या जलता है, हमारी ऊर्जस्विता। यदि प्रज्ञा व ऊर्जा हो तो अंधेरे में भी रास्ता है, दुर्दिन भी मंगलमय है। संपत्ति धन को नहीं सुमति को कहते हैं। जहां सुमति तंह संपति नाना। असली कोष सुमति है जो अंधेरे में जगमगाती है-व्यक्ति में, परिवार में, देश में, दुनिया मेंर्। हिंसक, आततायी व अन्यायशील समय में अहिंसा, प्रेम व न्याय को पाना एक बड़ा उपक्रम है, एक महत् संकल्प है। यह संकल्प स्वप्नभरी आंखों में केवल अंधेरे में टटोलना नहीं, क्रियाशीलता, परिवर्तन, कल्पनाशीलता की प्रासंगिकता को स्वप्न से जोड़ना है। उजाले की सृजनात्मकता हमारी आंतरिक संरचना हो, दीपावली इसी मंत्र का जादुई उच्चारण है।
दीपावली के वैभव से किसान का वैभव रचा जाना चाहिए। इसका मतलब यह है कि किसान के वैभव में ही दीपावली का वैभव छुपा हुआ है। किसान के लिए नई नीति तैयार की जानी चाहिए ताकि उसे कर्ज से मुक्ति मिल सके। उसे नई नीति बनाकर आत्मनिर्भर बनाया जाना चाहिए। आजीविका की खोज में दौड़ रहे युवाओं को स्वावलंबी बना सकें तो यह बड़ा कार्य होगा। धर्मों, जातियों, प्रांतों, भाषाओं की खींचतान के बदले एक ऐसा समंजनपूर्ण विकास चाहिए जो गत्यात्मक व विवेकपूर्ण हो। विनाश के तट पर खड़ा विकास नहीं चाहिए। केवल गांव या केवल शहर की अतिवादी सोच नहीं चलेगी। विकसित गांव व मानवीय शहर ही हमारे भविष्य की दीपावली को नया पथ दे सकते हैं। शहर तो हमें चाहिए, परंतु ऐसे जो मानवीय संबंधों को बचाए रख सकें। दीये में दो बातियां मिलती हैं। बाती स्नेहसिक्त होनी चाहिए। यानी स्नेह के बगैर प्रकाश की कल्पना भी संभव नहीं। स्नेह से ही पर्यावरण बनता है, असल कलात्मकता आती है। दीपावली सौंदर्य की महत्ता का पर्व है। उत्सव साधनों से अधिक मन का रचाव है। सारे लोकगीत, परंपराएं, चलन निम्नवर्गीय समाजों से आते हैं। भारतीय पर्व बाजारों के दबाव के बावजूद अमारी-गरीबी के भेद कम करते हैं। दीपावली गरीब-अमीर की मीमांसा की हदबंदियों से निकलकर नए क्षितिज छू लेती है।
[ लेखक परिचय दास, हिंदी-भोजपुरी अकादमी, दिल्ली के सचिव रहे हैं ]