शंकर शरण। चुनाव नतीजों और सरकार गठन के बाद कुछ विषयों पर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर विचार आवश्यक हो गया है। अन्यथा धर्म-संस्कृति ही नहीं, बल्कि उन्नति, एकता और विकास आदि की बातें बेमानी हो जाती हैं। ये विषय दलीय सीमाओं से बाहर हैं। इन्हें दलीय संकीर्णता में तय करने की कोशिशें अहितकारी भी हैं। स्वतंत्र भारत में संघीय और क्षेत्रीय अस्मिता का सामंजस्य ऐसा ही विषय है। आश्चर्य कि स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी हमारे नेताओं ने इस पर राष्ट्रीय सहमति बनाने की चिंता नहीं दिखाई है, बल्कि हालिया चुनाव में की गईं बयानबाजियां तो उलटा दिखा रही थीं।

अनेक नेता क्षेत्रीय विद्वेष, असंतोष या अहंकार उभारने में लगे थे। इसमें वे भी थे, जिन्हें राष्ट्रीय दल का दर्जा मिला हुआ है। महाराष्ट्र में गुजराती बनाम मराठी भी एक मुद्दा बना। फिर बिहार के एक नेता ने कहा कि कम सांसदों वाले राज्य के नेता पूरे देश पर शासन करते हैं, जबकि अधिक सांसदों वाले राज्य के लोग केवल मजदूरी करने हर कहीं भटकते हैं। यह कहकर उन्होंने असमान विकास के मुद्दे को पक्षपात से जोड़ा। एक राष्ट्रीय नेता ने पुरी के जगन्नाथ मंदिर की चाबी दक्षिण चली गई कहकर अनजाने ही दक्षिण भारत को कठघरे में कर दिया। यद्यपि उनका निशाना एक स्थानीय नेता थे।

तब एक तमिल नेता ने उन पर अनुचित दोष लगाने का आरोप लगाया। इसी तरह जब किसी राज्य और केंद्र की सत्ता भिन्न-भिन्न दलों के हाथ रहती है, तो केंद्रीय अनुदान में या एजेंसियों के उपयोग में भी भेदभाव की बातें उठती हैं। फिर एक ही नेता चेन्नई, दिल्ली और भुवनेश्वर में अंतर्विरोधी बातें कहते हैं। इससे बचा जा सकता है, यदि नेता कुछ विषयों को दलबंदी से अलग रखें, पर विचित्र बात है कि दिखाने के लिए जो लोग ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की बात करते हैं, वे व्यवहार में देश में, बल्कि एक राज्य, समुदाय और दल में भी ईर्ष्या-द्वेष और अविश्वास को हवा देते हैं। मानो देश तो क्या ये अपने समुदाय के भी सभी लोगों को अपना नहीं मानते।

राष्ट्रीय दलों के अंदर भी कभी-कभी उत्तर-दक्षिण गुट झलकता है। सो स्वतंत्र भारत में केंद्रीय बनाम क्षेत्रीय संबंध पर पेंडुलम सी स्थिति रही है। कभी अतिकेंद्रीयता, तो कभी बिखराव सा दिखता है। जब किसी राष्ट्रीय दल की ताकत बहुत बढ़ जाती है, तो केंद्रीयकरण प्रवृत्ति बढ़ती लगती है। जब केंद्र में किसी को बहुमत न मिले तो कई नीतियों में टाल-मटोल, अस्पष्टता दिखती है। यह सब संघ और राज्य के अधिकार और कर्तव्य पर सहमति के अभाव का ही संकेत है।

मजे की बात है कि अंग्रेजों ने देश भर में विशिष्ट क्षेत्रों, शासकों, समूहों को स्वायत्त रहने दिया, जबकि वे असंख्य छोटी-बड़ी रियासतों को खत्म करने में समर्थ थे। त्रावणकोर से कश्मीर और राजपूताना से मैसूर तक सैकड़ों छोटे-बड़े क्षेत्रों पर अंग्रेजों ने केवल औपचारिक अधिकार रखा था। वास्तविक सत्ता रियासतों के पास थी। यह भी ब्रिटिश राज के लंबे समय तक चलने का एक कारण रहा। सैकड़ों सशक्त भारतीय राजा और नवाब अंग्रेजों के प्रति सामान्य या मैत्री भाव रखे हुए थे, जिससे ब्रिटिश राज अधिक सबल, समृद्ध और दीर्घकालिक बना। स्वतंत्र भारत के शासक अभी तक वह संतुलित प्रणाली नहीं बना सके हैं।

कभी केंद्र अत्यधिक हस्तक्षेपकारी हो जाता है, तो कभी एकदम ढुलमुल। एक समय तो केंद्र में भारी बहुमत से आई सरकार मनमाने तौर पर राज्य सरकारों को बर्खास्त कर देती थी, ताकि राज्यों में भी केंद्रीय सत्ताधारी दल के लोगों की सत्ता बन जाए। राज्यपालों के माध्यम से राज्य में दखलंदाजी पर भी सवाल उठते थे। क्षेत्रीय भावनाओं पर चोट का तीसरा रूप केंद्रीय नेताओं द्वारा उन राज्यों के मुख्यमंत्रियों को मनमाने तरीके से नियुक्त करना, बदलना रहा है, जहां उनके दल की सरकार हो। इसमें राज्य के जन-गण और विधायकों की इच्छा को भी दरकिनार कर केंद्रीय नेता अपनी पसंद थोपते हैं। इससे राज्य में सुयोग्य नेता भी उपेक्षित किए जाते हैं और एक नेता द्वारा देश के हर कोने पर एकाधिकारी निर्णय करने का संदेश जाता है। यह राष्ट्रीय हित की दृष्टि से अनावश्यक है।

ऐसे कदम क्षेत्रीय असंतोष पैदा करते रहते हैं, विशेषकर जब कोई राज्य और केंद्र में सत्ता के दौरान अंतर्विरोधी नीतियां अपनाता दिखे। जैसे राज्यसभा में किसी राज्य की सीटों पर पर उसी राज्य के व्यक्ति जाएं या किसी भी राज्य के व्यक्ति जा सकते हैं? अथवा क्या नेताओं के लिए रिटायरमेंट की कोई आयु है? ऐसी बातों पर जब जैसा तब तैसा से क्षेत्रवाद या भेदभाव की सुगबुगाहट होती है। उसी तरह भाषा, शिक्षा, सांस्कृतिक, सामाजिक/राष्ट्रीय त्योहारों पर केंद्र से सब कुछ तय करना अनुपयुक्त है। वस्तुत: राजनीतिक केंद्रीयकरण भारतीय मिजाज और परंपरा के विपरीत है।

देश की सामरिक एवं विदेश नीति में केंद्र का महत्व होना उचित है। काफी हद तक मुद्रा और विदेश-व्यापार में भी। शेष सभी विषय-भाषा, शिक्षा, संस्कृति, कराधान और स्थानीय प्रशासन आदि में क्षेत्रीय रुचियों और क्षमताओं को प्रमुखता देना ही अच्छा है। वह देशवासियों के बीच सहयोग, सौहार्द और अपनी-अपनी प्रतिभाओं के मुक्त विकास में भी सहायक हो सकता है।

हर चीज का केंद्रीयकरण करने से अंततः अधिकांश क्षेत्रों में दक्षता गिरती है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति या समिति विविध प्रकार के नियमित मामलों, समस्याओं, शिकायतों और सुझावों आदि को स्वयं देख ही नहीं सकते, जो केरल से असम तक से आती रहती हैं। सो अंततः यह सब केंद्रीय संस्थानों के मातहत मामूली कर्मचारी ही देखते हैं, जो सीमित समझ रखते हैं। इस प्रकार असंख्य विषयों में जो कार्य स्थानीय जानकार और अनुभवी अधिक अच्छे से करते, वह केंद्रीय स्तर से होने पर प्रायः जैसे-तैसे और दिखावटी होकर रह जाते हैं।

केंद्र स्तर पर कम से कम विषयों पर अधिकार रखना ही उचित है। यह देश की सांस्कृतिक एकता के लिए भी उपयुक्त है। इसलिए हमारे नेताओं को राजनीतिक ही नहीं, शैक्षिक, सांस्कृतिक और व्यापारिक विषयों पर भी केंद्र और राज्यों के बीच उदार संबंध बनाने की पहल करनी चाहिए। यह दलबंदी से ऊपर उठकर ही संभव है। यह सच्ची इच्छाशक्ति और सद्भावना की मांग करता है। शेष सभी उपाय स्वत: मिल जाएंगे।

(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)