धर्मकीर्ति जोशी। लगातार परेशान करती महंगाई के बीच शनिवार की शाम एक राहत भरी खबर आई। केंद्र सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क घटाने का एलान किया, जिससे बेलगाम महंगाई पर कुछ लगाम लगने की उम्मीद बंधी है। इससे जहां लोगों का आवाजाही से जुड़ा खर्च घटेगा, वहीं आवश्यक वस्तुओं की ढुलाई सस्ती होने से भी राहत मिलेगी। पिछले कुछ अर्से से प्रत्येक वर्ग पर महंगाई का असर दिखने लगा था। विशेषकर निम्न आय वर्ग के लिए यह नासूर बनती जा रही थी। इस तबके की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा खानपान और ईंधन पर खर्च होता है। इस कारण बढ़ती कीमतों से उसका बजट बिगड़ता जा रहा था। ऐसे में सरकार के लिए कोई राहत देना आवश्यक हो गया था। इससे पहले गत नवंबर में भी केंद्र सरकार ने पेट्रोल-डीजल पर उत्पाद शुल्क घटाया था, लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी से उस कटौती का असर जाता रहा।

महंगाई इस समय केवल भारत की समस्या नहीं है। तमाम देश इससे बुरी तरह त्रस्त हैं। भारत में तो करीब छह प्रतिशत मुद्रास्फीति का लक्ष्य भी सहज मान लिया जाता है। वहीं अमेरिका इसके लिए अधिकतम दो प्रतिशत का लक्ष्य तय करता है, लेकिन वहां मुद्रास्फीति की दर 8.3 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गई है, जो महंगाई की विकराल स्थिति को दर्शाता है। यूरोप का भी यही हाल है। कुल मिलाकर अधिकांश देश अभी महंगाई की मार से बेहाल हैं। फिलहाल रूस-यूक्रेन युद्ध इसका तात्कालिक कारण है। इस युद्ध ने दुनिया भर में तेल और गैस के दाम आसमान पर चढ़ा दिए हैं। खाद्य वस्तुओं के दाम भी उसकी चपेट में आ गए हैं। रूस और यूक्रेन दुनिया को गेहूं की बड़े पैमाने पर आपूर्ति करते हैं। यूक्रेन सूरजमुखी तेल का भी बड़ा उत्पादक है। उसके रणक्षेत्र में बदलने से इन उत्पादों की आपूर्ति पर असर पड़ा है। इस लड़ाई ने वैश्विक आपूर्ति शृंखला को भी छिन्न-भिन्न कर दिया है। केवल यही नहीं, बल्कि इसके कारण आपूर्ति केंद्रों के समीकरण भी गड़बड़ा गए हैं और उन्हें नए सिरे से तय करना पड़ रहा है। यह प्रक्रिया खर्चीली होने के साथ ही ज्यादा समय भी ले रही है। इससे वस्तुओं के दाम बढऩे के साथ ही उनकी आपूर्ति का समय प्रभावित हो रहा है, जिससे उनकी किल्लत पैदा हो रही है। इस कारण भी कीमतों में बढ़ोतरी का रुझान दिख रहा है। वहीं चीन में कोविड के विस्फोट एवं उस पर काबू पाने की कड़ी नीति ने आर्थिक मोर्चे पर एक नया जोखिम उत्पन्न कर दिया है।

भारत बड़े पैमाने पर कच्चे तेल, गैस के अलावा तमाम औद्योगिक जिंसों और खाद्य तेल जैसी वस्तुओं का आयात करता है तो उस पर इनका असर पडऩा स्वाभाविक है। इसे आयातित महंगाई का नाम दिया जाता है। इसका आशय है आयात की जाने वाली वस्तुओं के कारण बढऩे वाली महंगाई। सामान्य परिस्थितियों में भारतीय महंगाई परिदृश्य में आयातित महंगाई का अनुपात करीब 28 से 30 प्रतिशत के दायरे में होता है, लेकिन इस समय यह 60 प्रतिशत से भी ऊपर है। यह स्थिति की गंभीरता को दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वैश्विक रुझान किस प्रकार भारत में महंगाई की आग को हवा दे रहे हैं। कीमतों पर असर डालने के अलावा ये आर्थिक गतिविधियों की धार कुंद करने पर भी आमादा हैं। जैसे चीन में कोविड के कारण लगे लाकडाउन से देसी कंप्यूटर हार्डवेयर, कंज्यूमर ड्यूरेबल्स और दूरसंचार क्षेत्र की आपूर्ति पर असर पड़ा है। भारत अपनी आवश्यकता का करीब 53 प्रतिशत कंप्यूटर हार्डवेयर, 52 प्रतिशत कंज्यूमर ड्यूरेबल्स और 43 प्रतिशत दूरसंचार उपकरण एवं उनके निर्माण में आवश्यक कलपुर्जे चीन से आयात करता है। ऐसे में यदि यह गतिरोध लंबा चला तो मुश्किलें और बढ़ सकती हैं। इस आयातित महंगाई का दीर्घकालिक समाधान यही है कि जहां भारत हाइड्रोकार्बन पर अपनी निर्भरता घटाए, वहीं अधिक से अधिक वस्तुओं का घरेलू उत्पादन करे। सरकार द्वारा हरित ऊर्जा पर जोर और सेमीकंडक्टर जैसे उद्योग की स्थापना के लिए प्रोत्साहन इस दिशा में स्वागतयोग्य हैं, लेकिन उनके अपेक्षित परिणाम आने में समय लगेगा।

मौजूदा परिस्थितियों की बात करें तो पेट्रोल-डीजल पर कर की दर घटाने की बहुत ज्यादा गुंजाइश न होने के बावजूद सरकार को ऐसा करने के लिए विवश होना पड़ा। दरअसल महंगाई नियंत्रण में मौद्रिक नीति के मोर्चे पर भारतीय रिजर्व बैंक ने नीतिगत ब्याज दरों में बढ़ोतरी की प्रक्रिया शुरू कर दी है और आगे भी उसने दरों में तेजी कायम रखने के संकेत दिए हैं। ऐसे में अब पूरा दारोमदार राजकोषीय नीति पर आ गया था कि सरकार अपने स्तर पर कोई कदम उठाए। पेट्रोलियम उत्पादों पर उत्पाद शुल्क की दरें घटाना इसी रणनीति का हिस्सा है। जल्द ही इसका असर देखने को मिलेगा, जब महंगाई के आंकड़े सामने आएंगे। फिर भी इसमें कुछ समय तो लगेगा। सरकार पर इस कटौती के असर को लेकर वित्त मंत्री ने स्वयं स्वीकार किया है कि इस कारण सरकारी खजाने पर करीब एक लाख करोड़ रुपये का बोझ बढ़ेगा। इससे पहले सरकार उर्वरक सब्सिडी में दोगुनी बढ़ोतरी कर चुकी है।

खाद्य सब्सिडी पर भी उसका खर्च बढऩा तय है। इन पहलुओं को जोड़कर देखा जाए तो सरकार के राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी निश्चित है। ऐसी स्थिति में सरकार को या तो बढ़े खर्च की पूर्ति के लिए ऋण लेना होगा, जिससे अन्य क्षेत्रों के लिए वित्तीय संसाधन सीमित होंगे या फिर सरकार को अपने पूंजीगत व्यय में कटौती करनी होगी। यानी सरकार के लिए एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई जैसी स्थिति है। इस मुश्किल माहौल में कुछ सकारात्मक पहलू भी हैं। जैसे अगर महंगाई बढ़ रही है तो उससे नामिनल जीडीपी में बढ़ोतरी होगी और उसी अनुपात में कर संग्र्रह में भी तेजी आएगी। कोविड के बाद आर्थिक गतिविधियों में भी खासी तेजी का रुख हौसला बढ़ाने वाला है। वहीं जीएसटी जैसे आर्थिक सुधार के सकारात्मक प्रभाव अब प्रत्यक्ष दिखने लगे हैं। मानसून पूरी तरह मेहरबान रह सकता है। ऐसे में यदि सरकार महंगाई पर काबू पाने में कामयाब रहती है तो आर्थिक वृद्धि की तस्वीर को बदरंग होने से बचाया जा सकता है। अनिश्चित वैश्विक परिदृश्य के कारण यह और भी आवश्यक हो गया है कि महंगाई पर लगाम लगाई जाए, क्योंकि उससे व्यापक राहत के आसार नहीं दिख रहे।

(लेखक क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री हैं)