अभिषेक। कोरोना का टीका आने के बाद देश की अर्थव्यवस्था तेजी से पटरी पर लौटने लगी है। परंतु अर्थव्यवस्था को पहले की तरह पटरी पर तेजी से दौड़ने से जुड़ी एक चिंता कायम है, वह है रोजगार। आंकड़े बता रहे हैं कि जितनी तेजी से जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद पुराने स्तर की ओर अग्रसर है, उतनी तेजी रोजगार के अवसर सृजन करने में नहीं दिख रही है। बजट पूर्व चर्चाओं में लगभग सभी अर्थशास्त्रियों ने इस विषय को लेकर चिंता जाहिर की थी और अब जब बजट सामने है तो यह कहना गलत नहीं होगा की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने न सिर्फ इस चिंता को समझा, बल्कि जितना संभव था इस मामले के व्यावहारिक समाधान पर जोर दिया। वस्त्र उद्योग और मत्स्य उत्पादन जैसे श्रम गहन क्षेत्रों को लेकर जिन कदमों की घोषणा बजट में हुई उनको बजट के बाद की चर्चाओं में सभी ने सराहा है।

इन सबके बीच एक बात जो थोड़ी दबी रह गई, वह है वित्त मंत्री द्वारा अपने बजट भाषण में हाल ही में भारत और जापान के बीच निíदष्ट कुशल श्रमिकों को लेकर हुए समझौते का जिक्र करते हुए एक प्रकार से भारत के कुशल कामगारों के लिए विदेशों में सृजित होने वाले अवसरों को रेखांकित करना। दरअसल यह एक बहुत बड़ी विडंबना रही है कि विदेशी निवेश के मुकाबले कहीं ज्यादा विदेशी मुद्रा देश में लाने के बावजूद प्रवासी भारतीय श्रमिकों की चर्चा उतनी नहीं होती है, जितनी विदेशी व्यापार और निवेश के छोटे-छोटे मुद्दों की होती है। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार भारत विश्व के सबसे ज्यादा रेमिटेंस पाने वाले देशों यानी विदेशों में कार्यरत प्रवासी भारतीयों द्वारा भेजी जाने वाली रकम में से एक है। वर्ष 2020 में भी भारत को करीब 75 अरब अमेरिकी डॉलर मिलने का अनुमान लगाया गया है। इसी प्रकार अगर हम इन मजदूरों के योगदान की तुलना अनिवासी भारतीयों, विदेशों में बसे भारतीय मूल के लोगों, जिनकी चर्चा भी इन मजदूरों से कहीं ज्यादा होती है, उससे करें तो पता चलता है कि निजी तौर पर अनिवासी भारतीय अपनी कुल संपत्ति का कुछ हिस्सा शायद भारत के लिए लगाते हैं, जबकि ये मजदूर अपने जीवन का बड़ा हिस्सा भले जीवन निर्वहन के लिए विदेशों में खर्च करते हैं, परंतु अपना लगभग सारा निवेश भारत में ही करते हैं।

राजनीतिक प्रक्रिया में हिस्सेदारी : राजनीतिक रूप से देखें तो अनिवासी भारतीय देश के नागरिक नहीं हैं, जबकि ये कामगार इस देश के नागरिक हैं। यानी राजनीतिक प्रक्रिया में भी ये सीधी दखल रखते हैं। योगदान और अधिकार दोनों ही मामलों में इन कामगारों की किसी से भी तुलना नहीं की जा सकती है। वैसे इस मामले में एक अच्छी बात यह है कि पिछले कुछ वर्षो में इस स्थिति में थोड़ा परिवर्तन हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पश्चिम एशिया के देशों की यात्र के दौरान भारतीय कामगारों के योगदान का जिक्र कई बार किया और उन्हें भारत व खाड़ी देशों के बीच का सेतु माना। पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इन कामगारों से जुड़ी समस्याओं को लेकर काफी ध्यान दिया और कई बार विदेशों में फंसे भारतीयों को निकालने और उनकी सुरक्षित वापसी सुनिश्चित करने में उनकी सराहनीय भूमिका रही है।

विदेशों में व्यापक अवसर : विदेशों में भारत के कुशल श्रमिकों के लिए व्यापक अवसर हैं और हमें इसका फायदा उठाना चाहिए। यह सोच नई नहीं है। हमारे यहां से विदेशों में रोजगार के अवसरों को देखने और उनके फायदे उठाने की सोच पुरानी है। ब्रिटिश काल में हमारे देश से बड़ी संख्या में कामगार रोजगार की तलाश में अनेक देश गए। खाड़ी देशों में तेल मिलने के बाद जब कामगारों की जरूरत महसूस हुई तो पिछली सदी के छठे और सातवें दशक में केरल से बहुत बड़ी संख्या में लोग काम की तलाश में वहां गए। यह सिलसिला पिछली सदी के आठवें दशक में उल्लेखनीय ढंग से बढ़ा, जब वैश्विक स्तर पर तेल की कीमतों में वृद्धि हुई और तेल से आए पैसे को ये देश अपनी आधारभूत संरचना के विकास में लगाने लगे। इसके लिए बड़ी संख्या में मजदूरों की जरूरत थी जिसकी इन देशों में अनुपलब्धता थी, लिहाजा भारत और दक्षिण एशिया के अन्य देशों में कामगारों के लिए एक बड़ा अवसर साबित हुआ। खाड़ी देशों में रोजगार के ज्यादा अवसर और ज्यादा वेतन के कारण धीरे-धीरे यहां से जाने वाले कामगारों की संख्या बढ़ती गई। केरल की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा योगदान करने वाले इन प्रवासी मजदूरों ने इस राज्य को संपन्न राज्य बना दिया।

इसके बाद प्रवासन की एक दूसरी धारा सिलिकॉन वैली की ओर गई। वर्ष 1990 के बाद सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में व्यापक मांग सृजित होने के कारण भारत से बड़ी संख्या में पेशेवर कामगार अमेरिका गए। हालांकि इनमें से अनेक भारतीय तो वहीं के नागरिक हो गए, परंतु ज्यादातर भारत लौटे और यहां सॉफ्टवेयर क्षेत्र में कंपनियां बना कर रोजगार प्रदाता भी बने। सरकार के स्तर पर भी इस सोच को मान्यता मिली और पूर्व में योजना आयोग ने जनसंख्या में विभिन्न आयु वर्ग के अनुपात का भारत और विश्व के बीच तुलनात्मक अध्यन करते हुए यह माना था कि अगर हमारा देश अपनी युवा शक्ति को कुशल बना ले, तो कुशल श्रमिकों के मामले में हम दुनिया की राजधानी के रूप में विकसित हो सकते हैं।

कौशल विकास को प्राथमिकता : वर्ष 2014 में केंद्र की सत्ता में भाजपा के आने के बाद जिन मुद्दों को सबसे ज्यादा प्रधानता दी गई है, उनमें से एक कौशल विकास का रहा। कौशल विकास के लिए नए मंत्रलय का गठन हुआ और प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना की शुरुआत हुई। भारत के कुशल कामगारों को विभिन्न देशों में काम मिल सके, उनके कौशल को लेकर कोई संशय की स्थिति न हो इसके लिए सरकार ने न सिर्फ कौशल विकास प्रणाली को सुदृढ़ करने के लिए कई देशों मसलन जर्मनी, फ्रांस, चीन, ब्रिटेन आदि के साथ समझौते किए, बल्कि हमारे देश में प्रशिक्षित लोगों को दुनिया में कहीं भी काम मिल सके उसके लिए मानकों और प्रमाणों के बीच एकरूपता कायम करने का भी प्रयास किया। इसके साथ-साथ विभिन्न देशों के साथ समझौतों में भी कुशल कामगारों के आवागमन और उनके काम करने को लेकर कानूनी अड़चन नहीं आए। इसके लिए भी विशेष प्रविधान किए गए। उन प्रयासों के नतीजे अब सामने आने लगे हैं। भारत और जापान के बीच निíदष्ट कुशल श्रमिकों को लेकर हुए समझौते के अतिरिक्त अब जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया ने भी भारत के कुशल कामगारों को अपने यहां रोजगार देने में रूचि दिखाई है।

विश्व के तकनीकी दिग्गज देश भी भारतीय मजदूरों की कुशलता का लोहा मान रहे हैं। भारत सरकार के साथ इन देशों द्वारा किए जाने वाले समझौतों से यह स्पष्ट हो रहा है। इससे हमारे श्रमिकों के लिए रोजगार के नए अवसर तो बनेंगे ही, साथ ही एक निश्चित अवधि के बाद जब ये श्रमिक वापस आएंगे तो अपने साथ नई तकनीकों से संबंधित अनुभव भी लाएंगे जिसका उपयोग यहां किया जा सकता है। इससे विदेशों से आने वाली रेमिटेंस की रकम में भी व्यापक इजाफा होगा। विदेश में काम करने के दौरान श्रमिकों को कई समस्याओं का भी सामना करना पड़ता था जिन्हें द्विपक्षीय समझौतों के माध्यम से निपटाने में मदद मिल सकती है। इससे प्रवास को लेकर जो हिचक श्रमिकों में होती है, वो कम होगी और वे अपनी योग्यता और कुशलता के आधार पर स्वतंत्रता से इसका निर्णय कर पाएंगे कि उनके लिए कहां जाना ज्यादा बेहतर हो सकता है।

प्रवासन के मामले में एक और बात जो पिछले कुछ वर्षो में देखने को मिली है, वह यह है कि अब दक्षिण भारत के विकसित राज्यों के मुकाबले पूर्वाचल (पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार-झारखंड) के श्रमिक ज्यादा आगे आ रहे हैं। उनके द्वारा इन क्षेत्रों में भेजे जाने वाली रकम का प्रभाव सामाजिक और आíथक विकास के मानकों में प्रगति का एक बहुत बड़ा कारक है। जनसंख्या में विभिन्न आयु वर्गो के अनुपात की दृष्टि से भी यह क्षेत्र भारत के ही अन्य क्षेत्रों की तुलना में ज्यादा युवा है। आजकल अक्सर जिस डेमोग्राफिक डिविडेंड की बात होती है उसके हिसाब से भी देखें तो इन क्षेत्रों में डेमोग्राफिक डिविडेंड की स्थिति वर्ष 2050 तक बानी रहेगी यानी अगर मौके मिलते रहे तो यह संभावना बनती है कि इन क्षेत्रों में भी केरल की तरह आर्थिक विकास की दर को हासिल किया जा सकता है।

दरअसल ये समझौते भारत और दूसरे वे देश जो कामगारों की कमी से जूझ रहे हैं, उनके लिए परस्पर फायदे का सौदा है। यह सर्वविदित है कि दुनिया के ज्यादातर विकसित देशों की आबादी में युवाओं का अनुपात अभी भी कम है, जिसके आगे और भी कम होने की आशंका कायम है। ऐसे में उनके यहां रोबोट और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के बावजूद काम करने के लिए लोगों की कमी रहेगी, यह तय है। वहीं दूसरी ओर भारत में स्थिति एकदम उलट है, यहां कुल जनसंख्या में युवाओं का अनुपात ज्यादा है और अगले 20 वर्षो तक यह स्थिति बनी रहेगी। रोजगार और खास कर अच्छे रोजगार के मामले में तमाम प्रगति और कोशिश के बावजूद स्थिति उतनी अच्छी नहीं है। ऐसे में अगर यहां के लोगों को अच्छी शर्तो के साथ कहीं रोजगार मिलता है तो इसमें हमारे देश और देशवासी, दोनों ही की भलाई है।

भारत और जापान के बीच कुशल श्रमिकों को लेकर हुए इस समझौते के तहत जापान में रोजगार प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्ति को दैनिक जीवन में काम चलने योग्य जापानी भाषा आनी चाहिए। इसको लेकर आधारभूत संरचनाएं पहले से ही तैयार हैं और उनकी बेहतरी के लिए कदम भी उठाए जा रहे हैं। उदहारण के लिए भाषा सिखाने वाले शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में केंद्र स्थापित किया जा चुका है। इस समझौते के तहत जाने वाला व्यक्ति पांच साल तक जापान में रह सकता है और 14 निíदष्ट क्षेत्रों, भवन की सफाई, सामग्री प्रसंस्करण, औद्योगिक मशीनरी विनिर्माण, बिजली और इलेक्ट्रॉनिक क्षेत्र, निर्माण, ऑटोमोबाइल, विमानन, आवास, कृषि, मत्स्य पालन, खाद्य और पेय पदार्थ निर्माण व खानपान आदि क्षेत्रों में कार्य कर सकता है।

[शोधार्थी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय]