[प्रेमपाल शर्मा]। भारत सरकार का सबसे बड़ा विभाग रेलवे जहां निजीकरण की राह पर है वहीं उसके आंतरिक ढांचे में भी बुनियादी बदलाव की घोषणा हो चुकी है। इस बार आम बजट में रेलवे को पिछले वर्ष की तुलना में तीन प्रतिशत की बढ़ोतरी के साथ 1.61 लाख करोड़ रुपये आवंटित हुए जबकि पिछले बजट में यह वृद्धि 17 प्रतिशत से अधिक की हुई थी।

ऐसे में रेलवे के आधुनिकीकरण के लिए शेष चार लाख करोड़ रुपये सालाना की पूंजी सार्वजनिक निजी भागीदारी यानी पीपीपी के जरिये जुटाई जाएगी। इसीलिए 150 निजी ट्रेनों की घोषणा हुई है। आम बजट से महीना भर पहले ही रेल मंत्री ने रेलवे के लिए बड़ी घोषणाएं की कर दी थीं। उनमें प्रमुख एलान आठ विशेषज्ञ सेवाओं को मिलाकर एक रेलवे प्रबंधन सेवा बनाने का था। जिस दौर में विशेषज्ञता से सामान्य व्यवस्था की ओर बढ़ने की तैयारी हो रही है जिसमें प्रयोगधर्मिता और निजीकरण की जो बातें हो रही हैं, उसने रेल कर्मचारियों के भीतर हलचल मचा दी है। इसके वाजिब कारण भी हैं।

सेवाओं में कैसे होगा सुधार

नि:संदेह करोड़ों रेल यात्रियों को बेहतर सुविधाएं, सुरक्षित यात्रा चाहिए और 21वीं सदी में वह स्पीड भी चाहिए जिस पर आज जापान, चीन और फ्रांस जैसे देशों की रेलगाड़ियां दौड़ रही हैं। ऐसे में बड़ी चुनौती यही है कि जब रेल विभाग की वित्तीय हालत पतली है तब इन अपेक्षाओं को कैसे पूरा किया जाए? जिस विभाग को 98 रुपये खर्च करके महज 100 रुपये की ही कमाई हो रही हो, उसके कायाकल्प की कोई भी योजना मुश्किल दिखती है। ऐसी खस्ताहाल वित्तीय स्थिति में सेवाओं में सुधार कैसे होगा? कैसे नई लाइनें बिछेंगी? कैसे नई तकनीक, नए इंजन और एक नई शुरुआत होगी?

एक प्रश्न यह भी उठता है कि क्या आनन-फानन में सभी रेल सेवाओं के एकीकरण से सारी समस्याएं हल हो जाएंगी? पिछले 20 वर्षों के दौरान रेलवे में बदलाव के लिए कई उच्चस्तरीय समितियों ने विचार किया है। इनमें 1994 में गठित प्रकाश टंडन समिति, 2000 में राकेश मोहन समिति, 2012 में पित्रोदा समिति और 2016 में बिबेक देवराय समिति प्रमुख हैं। कुछ बातें सभी समितियों ने दोहराई हैं। जैसे रेल के विभिन्न विभागों में आपसी खींचतान के कारण निर्णय में देरी होती है।

चेयरमैन सहित पांच सदस्यीय बोर्ड

रेल मंत्री ने भी अपने निर्णय के पीछे इन बातों के अलावा सुस्ती, केंद्रीकरण और अकर्मण्यता को दोहराया है। समाधान के रूप में जो घोषणाएं की गई हैं उनमें प्रमुख यही है कि मौजूदा नौ सदस्यीय रेलवे बोर्ड की जगह अब चेयरमैन सहित पांच सदस्यीय बोर्ड होगा। इसमें इन्फ्रास्ट्रक्चर, ऑपरेशन, वित्त और र्रोंलग स्टॉक के सदस्यों के अलावा चेयरमैन बतौर सीईओ के रूप में होंगे। फील्ड के सभी जनरल मैनेजरों को सचिव के स्तर का पद दिया जाएगा। बोर्ड का आकार छोटा करना और फील्ड महाप्रबंधकों को और ताकत देना यकीनन अच्छे कदम हैं, लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि आठ सेवाओं को पूरी तैयारी के बिना मूर्त रूप देने की कोशिश रेल प्रणाली को मुश्किल में न डाल दे।

रेलवे कर्मचारियों को दो श्रेणी में बांटा जा सकता है

रेलवे में लगभग 12 लाख कर्मचारी हैं। इनमें से 8,000 अधिकारी स्तर के हैं। भर्ती प्रक्रिया के अनुसार इन्हें मुख्य रूप से दो श्रेणियों में बांटा जा सकता हैं। एक तो यूपीएससी द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा से चुने हुए अधिकारी जो भारतीय यातायात सेवा, लेखा और कार्मिक जैसी सेवाओं में कार्यरत हैं। वहीं दूसरे अधिकारी हैं जो इंजीनिर्यंरग सेवा परीक्षा के माध्यम से चुने जाते हैं। ये सिविल, मैकेनिकल, इलेक्ट्रिकल और सिग्नल इंजीनियर के रूप में सेवाएं देते हैं। रेलवे की प्रतिष्ठा, प्रोन्नति और सुविधाओं को देखते हुए अच्छी रैंक वाले इन सेवाओं में आने को लालायित रहते हैं।

हालांकि रेल मंत्री की घोषणाओं के बाद इन सेवाओं के प्रति आकर्षण कुछ घट सकता है। इसीलिए बदलाव का स्वागत कुछ संशोधनों के साथ करना होगा। रेल विभाग की तकरीबन 166 वर्ष पुरानी तकनीकी विरासत, अनुभव और विशेषज्ञता को देखते हुए अच्छा हो कि केवल एक कैडर के बजाय तकनीकी और गैर- तकनीकी दो कैडर बनाए जाएं। यह भी सुनिश्चित हो कि प्रोन्नति-सुविधाओं के मामले में वे एकसमान हों। मौजूदा व्यवस्था की खामियों की तरह उनमें न तो कोई अंतर हो और न ही किसी अन्य आधार पर भेदभाव।

रेलवे ने दिए पर्याप्त बेहतरी के संकेत

चूंकि रेल तकनीकी विभाग है तो उसमें विशेषज्ञता चाहिए। कमी हमारे अफसरों की नहीं, बल्कि शिक्षा व्यवस्था, राजनीतिक इच्छाशक्ति और सही विजन की है। रेल संगठन में भी कुछ कमी से इन्कार नहीं। इस कारण भी हम अपेक्षाओं से बहुत पीछे चल रहे हैं और इन्हीं अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए रेल मंत्री की कुछ घोषणाएं रेलवे को निजीकरण की ओर धकेल रही हैं। निश्चित रूप से रेल की वित्तीय स्थिति को छोड़ दिया जाए तो पिछले वर्ष रेलवे ने पर्याप्त बेहतरी के संकेत दिए हैं।

रेलवे लाइन को बढ़ाने में बने अभूतपूर्व रिकॉर्ड

मसलन दुर्घटनाओं में भारी कमी, सेवाओं में बेहतरी, रफ्तार में तेजी, अधिकांश प्रोडक्शन यूनिट में उत्पादन क्षमता में अभूतपूर्व सुधार, पूर्वोत्तर और कश्मीर में रेल लाइनों के फैलाव के साथ-साथ आजादी के बाद पिछले पांच वर्षों में रेलवे लाइन को बढ़ाने के अभूतपूर्व रिकॉर्ड बने हैं, फिर भी रेलवे की नौकरशाही, आपसी खींचतान और अनिर्णय जैसी बीमारियां अभी भी कायम हैं। वैसे ये बीमारी समूची भारतीय नौकरशाही में व्याप्त हैं। ऐसे में प्रशिक्षण को इस रूप में बदलने की जरूरत है कि वे अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ बनें। पदोन्नति में सिर्फ उम्र ही पैमाना न हो। वरिष्ठ पद पर नियुक्ति के लिए संबंधित अधिकारी की क्षमताओं को कसौटी पर कसा जाए। रेल अधिकारियों को भी बड़े महानगरों में ही पूरी उम्र गुजार देने की इच्छा छोड़नी होगी।

रेलवे में गुजराल और मेट्रो मैन के नाम से मशहूर हुए श्रीधरन जैसे उदाहरण भी हैं जो बताते हैं कि कैसे अच्छे रेल प्रशासक बन सकते हैं। ऐसे में रेल अधिकारियों को आत्मविश्लेषण की जरूरत है। इसके लिए कार्यसंस्कृति बदलनी होगी। क्या यह सेवाओं के एकीकरण से संभव हो सकेगा? जो भी हो, अच्छी बात यह है कि यह निर्णय रेल मंत्री की मजबूत इच्छाशक्ति को दर्शाता है।

 

(लेखक रेल मंत्रालय के पूर्व संयुक्त सचिव हैं)