सुशील कुमार सिंह।  दुनिया का कोई संघ या देश जब नए परिवर्तन और प्रगति की ओर चलायमान होता है तो उसका सीधा असर वहां की सामाजिक- आर्थिक तथा राजनीतिक परिवेश पर तो पड़ता ही है, साथ ही दुनिया के अनेक देशों पर भी इसका असर पड़ना स्वाभाविक है। ब्रिटेन की प्रधानमंत्री टेरीजा मे का यूरोपीय संघ से अलग होने संबंधी ब्रेक्जिट समझौता ब्रिटिश संसद में पारित नहीं हो सका। स्थिति को देखते हुए टेरीजा सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की घोषणा की गई है। दरअसल टेरीजा के समझौते को हाउस ऑफ कॉमन्स में हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद विपक्षी पार्टी के नेता ने अविश्वास प्रस्ताव लाने की घोषणा की। 

संशय में हैं जानकार 
ब्रेक्जिट की कहानी आगे क्या मोड़ लेगी इस बारे में विशेषज्ञ भी संशय में हैं। ब्रेक्जिट कितना जटिल है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 2016 में प्रधानमंत्री डेविड कैमरून और तीन मंत्रियों की अब तक यह कुर्सी छीन चुका है। दो साल पहले ब्रिटेन की जनता ने यूरोपीय यूनियन से अलग होने के लिए जनमत संग्रह पर मुहर लगाई थी। वर्ष 2016 के जून में यह जनमत संग्रह हुआ था जिसमें 52 फीसद लोगों ने यूरोपीय संघ से अलग होने तो 48 फीसद ने साथ रहने के पक्ष में अपना मत दिया था। राजधानी लंदन में ज्यादातर लोगों का मत यूरोपीय यूनियन के साथ रहने का था, जबकि देश के कई अन्य हिस्सों में लोग इसके विरोध में थे।

क्‍या होगा अगला कदम
सवाल है कि टेरीजा का ब्रेक्जिट समझौता असफल होने पर अगला कदम क्या होगा। जाहिर है अब टेरीजा प्लान बी पर काम करेंगी। ब्रिटेन की संसदीय प्रक्रिया में यह निहित है कि जब सांसद कोई विधेयक खारिज कर देते हैं तो प्रधानमंत्री के पास दूसरी योजना के साथ संसद में आने के लिए तीन कामकाजी दिन होते हैं। अनुमान है कि ब्रुसेल्स जाकर वह यूरोपीय यूनियन से और रियायत लेने की कोशिश करेंगी और नए प्रस्ताव के साथ ब्रिटेन की संसद में आएंगी तब सांसद इस पर भी मतदान करेंगे। यदि यह प्रस्ताव भी असफल रहता है तो सरकार के पास एक अन्य विकल्प के साथ लौटने के लिए तीन सप्ताह का समय होगा। यदि यह समझौता भी संसद में पारित नहीं होता है तो ब्रिटेन बिना किसी समझौते के यूरोपीय यूनियन से बाहर हो जाएगा। टेरीजा की पार्टी 100 से अधिक सांसदों ने समझौते के विरोध में मतदान किया। ऐसे में इस हार के साथ ही ब्रेक्जिट के बाद यूरोपीय यूनियन से निकट संबंध बनाने की प्रधानमंत्री टेरीजा की रणनीति का कोई औचित्य नहीं रह गया है।

ब्रेक्जिट के कारण
ब्रिटेन ने यूरोपीय यूनियन को अचानक अलविदा नहीं कहा है, इसके पीछे बरसों से कई बड़े कारण रहे हैं जिसमें ब्रिटेन में बढ़ रहा प्रवासी संकट मुख्य वजहों में एक रही है। दरअसल ईयू में रहने के चलते प्रतिदिन 500 से अधिक प्रवासी दाखिल होते हैं जबकि पूर्वी यूरोप के 20 लाख से अधिक लोग ब्रिटेन में बाकायदा रह रहे हैं। ब्रिटेन में बढ़ती तादाद के चलते ही यहां बेरोजगारी जैसी समस्या भी पनपी है। ईयू से अलग होने के बाद इन पर रोक लगाना संभव होगा।

दुविधा में सरकार
दरअसल ब्रेक्जिट की तारीख करीब आती जा रही है और ब्रिटेन सरकार में इस पर कोई सहमति नहीं बन पा रही है। कहा जाए तो सरकार दुविधा और सुविधा के बीच फंसी हुई है। दो टूक यह भी है कि प्रधानमंत्री का रुख ब्रेक्जिट को लेकर लचीला है और वह सेमी ब्रेक्जिट की ओर बढ़ना चाहती हैं जिसका तात्पर्य है कि ईयू से अलग होने के बाद ब्रिटेन ईयू की शर्तो को मानता रहेगा और बाहर रहकर उसके साथ बना रहेगा। ऐसा करने से ब्रिटेन अपने आर्थिक हितों और रोजगार व बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बाहर जाने से बचा सकेगा पर इसकी संभावना कम ही है। गौरतलब है कि ईयू से अलग होने से ब्रिटेन को सालाना एक लाख करोड़ रुपये की बचत भी होगी जो उसे सदस्यता के रूप में चुकानी होती है। खास यह भी है कि ब्रिटेन के लोगों को ईयू की अफसरशाही भी पसंद नहीं आती। कई लोगों का मानना है कि यहां केवल कुछ नौकरशाह मिलकर 28 देशों का भविष्य तय करते हैं।

भारतीय कंपनियों पर असर
इसके अलावा मुख्य व्यापार का बाधित होना भी बड़ा मसला रहा है। ईयू से अलग होने के बाद अमेरिका और भारत जैसे देशों से ब्रिटेन को मुक्त व्यापार करने की छूट होगी। भारत का सबसे ज्यादा कारोबार यूरोप के साथ है। केवल ब्रिटेन में ही 800 से अधिक भारतीय कंपनियां हैं जिनमें एक लाख से अधिक लोग काम करते हैं। भारतीय आइटी सेक्टर की छह से 18 फीसद कमाई ब्रिटेन से होती है। ब्रिटेन के रास्ते भारतीय कंपनियों की यूरोपीय संघ के इन 28 देशों के 50 करोड़ लोगों तक पहुंच होती है। ब्रिटेन के ईयू से अलग होने पर यह पहुंच आसान नहीं रहेगी। करीब 50 फीसद कानून ब्रिटेन में ईयू के लागू होते हैं जो कई आर्थिक मामलों में बंधन है। इन्हीं कारणों से ब्रिटेन यूरोपीय संघ से अलग होना चाहता है।

अर्थव्‍यवस्‍था पर असर
ब्रिटेन के ईयू से बाहर होने के फैसले का असर उसकी अर्थव्यवस्था पर भी दिख रहा है। पिछले वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में उसकी अर्थव्यवस्था में मामूली गिरावट आई थी। ब्रिटेन के लोगों का आरोप है कि सरकार को जिस तरह इस मामले पर आगे बढ़ना चाहिए वह उस पर आगे नहीं बढ़ रही है। जून 2016 के जनमत संग्रह के बाद पाउंड में भी 15 प्रतिशत की गिरावट आई थी जिससे आयात महंगा हो गया था।

यूरोपीय संघ का निर्माण
आर्थिक सहयोग बढ़ाने के लिए यूरोपीय संघ का निर्माण हुआ था जिसके पीछे सोच थी कि जो देश एक साथ व्यापार करेंगे वे एक दूसरे के साथ युद्ध करने से बचेंगे। यह संघ कई क्षेत्रों में अपने नियम बनाता है जिसमें पर्यावरण, परिवहन, उपभोक्ता अधिकार और मोबाइल फोन की कीमतें तक तय होती हैं। फिलहाल ब्रिटेन में जो बदलाव आने की संभावना है उससे दुनिया पर असर न पड़े ऐसा हो नहीं सकता। सभी को अपनी चिंता है। सवाल तो यह भी है कि आखिर किसी संघ का निर्माण क्यों होता है और उससे क्या अपेक्षाएं होती हैं? क्या ब्रिटेन की अपेक्षाओं पर यूरोपीय संघ खरा नहीं उतरा? इसकी भी जांच-पड़ताल समय के साथ होगी पर तात्कालिक परिस्थितियों को देखते हुए ब्रिटेन को ही नहीं भारत को भी संतुलित वैश्विक आर्थिक नीति पर काम करने की अधिक जरूरत पड़ सकती है।

(निदेशक, वाइएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन)

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