नई दिल्ली (ब्रह्मा चेलानी)। ईरान पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रतिबंधों का पहला दौर इस हफ्ते अमल में आ गया। अभी तक इसमें भारत के लिए राहत के को संकेत नहीं दिखे हैं। अमेरिकी कांग्रेस ने एक ऐसा कानून बनाया है जिसमें भारत को रूस के साथ रक्षा समझौतों के मामले में रियायत दी गई है, लेकिन यह छूट सशर्त है जो एक तय अवधि से जुड़ी हुई है। भारतीय मीडिया छूट से जुड़े कानून का तो उल्लेख कर रहा है, लेकिन उसमें जुड़ी शर्तों पर मौन है। भारत लंबे अर्से से रूसी हथियारों का बड़ा खरीदार रहा है और चीन के बाद ईरानी तेल का दूसरा सबसे बड़ा आयातक है। ऐसे में अमेरिकी प्रतिबंधों से भारत के काफी प्रभावित होने की आशंका है। ऊर्जा एवं रक्षा जैसे मोर्चो को लेकर न दिल्ली पर दोहरा दबाव डालकर वाशिंगटन ने द्विपक्षीय रिश्तों में तल्खी बढ़ाने वाला काम किया है। यह इस बात को रेखांकित करता है कि अमेरिका के अनुरूप विदेश नीति अपनाना भारत के लिए कितना जोखिम भरा हो सकता है। किसी देश पर दंडात्मक प्रतिबंध लगाने के दायरे का अमेरिका ने दूसरे देशों तक विस्तार कर उनके साथ व्यापारिक एवं वित्तीय गतिविधियां बंद करने की धमकी दी है। ऐसे प्रतिबंध अंतरराष्ट्रीय कानूनों का मखौल उड़ाते हैं, फिर भी अमेरिका अपनी ताकत का इस्तेमाल ऐसे करता है जिससे उसकी घरेलू कार्रवाई वैश्विक रूप ले लेती है। अमेरिकी डॉलर मुद्रा रूप में ऐसा ईंधन है जो वैश्विक अर्थव्यवस्था की गाड़ी को चलाता है। इससे अमेरिकी प्रतिबंध बेहद प्रभावी बन जाते हैं। दुनिया में बैंकिंग से लेकर तेल के मामले में होने वाले बड़े लेनदेन अमेरिकी डॉलर में ही होते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि ये प्रतिबंध ट्रंप के दिमाग की सनक हैं। आज अमेरिका के समक्ष यह चुनौती है कि वह ईरान पर लगाए प्रतिबंधों को प्रभावी रूप से लागू कराए। जहां तक रूस की बात है तो उसे लेकर वाशिंगटन में अभी भी टकराव की स्थिति बनी हुई है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि रूस की अर्थव्यवस्था सिकुड़कर चीन के दसवें हिस्से के बराबर हो गई है और उसका सैन्य खर्च भी चीन के सामरिक व्यय के 20 प्रतिशत के बराबर सिमट गया है। ट्रंप के प्रतिबंधों का मकसद ईरानी अर्थव्यवस्था का दम निकालना है। इससे पहले वह ईरान के साथ अमेरिकी परमाणु करार को एकतरफा तौर पर खत्म कर चुके हैं। उनके इस कदम पर यूरोप तक में त्योरियां चढ़ गईं। रूस पर लगाए नए प्रतिबंध अमेरिकी कांग्रेस की पहल पर लगे हैं। उसने कानून बनाया जिसके आधार पर ट्रंप प्रशासन को मास्को के खिलाफ कदम उठाने पड़े। काउंटरिंग अमेरिकाज एडवर्सिरीज थ्रू सेंक्शंस यानी काटसा नाम का यह कानून उन देशों को धमकाने के लिए है जो रूसी हथियार खरीदने की हसरत रखते हैं।

इसका मकसद अमेरिकी हथियारों की बिक्री बढ़ाना है। अमेरिका पहले से दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा विक्रेता है। एक और भी विरोधाभास है कि भारत को हथियारों की बिक्री के मामले में अमेरिका कब का रूस को पछाड़ चुका है। हालांकि जहां रूस भारत को आइएनएस चक्र जैसी परमाणु पनडुब्बी और आइएनएस विक्रमादित्य सरीखे विमानवाहक पोत उपलब्ध कराता है वहीं अमेरिका भारत को सैन्य साजोसामान की बिक्री कर रहा है। इनमें पी-8आइ सामुद्रिक निगरानी विमान, सी-17 ग्लोबमास्टर-3 और सी-130 जे सुपर हरक्युलिस सैन्य परिवहन विमान शामिल हैं। कुछ और कारणों से भी भारत मास्को के साथ रक्षा रिश्तों को यकायक समाप्त नहीं कर सकता। वह रूस निर्मित रक्षा उपकरणों की मरम्मत और रखरखाव के लिए रूसी कलपुर्जों पर निर्भर है। इनमें से कुछ सोवियत संघ के दौर के हैं।

नए अमेरिकी कानून के तहत भारत को रूस के साथ लंबित रक्षा सौदों को पूरा करने की जो गुंजाइश मिली है उसके तहत वह इंटरसेप्टर बेस्ड एस-400 ट्रायंफ एयर एवं एंटी मिसाइल डिफेंस सिस्टम जैसे सौदों को पूरा कर सकता है, मगर रूस के साथ भविष्य में रक्षा सौदों के लिए भारत की राह में यह अमेरिकी कानून अड़चन पैदा कर सकता है। भारत के अलावा वियतनाम और इंडोनेशिया को भी रूस के साथ रक्षा सौदों में अमेरिकी छूट मिली है। इस छूट में यह संदेश भी निहित है कि तीनों देश रूस पर अपनी निर्भरता घटा रहे हैं या फिर अमेरिका के साथ रक्षा सहयोग बढ़ा रहे हैं। अमेरिकी कांग्रेस की मंशा इस छूट का फायदा उठाने की है। राष्ट्रपति प्रमाणन का अर्थ है कि इन देशों को उन कदमों का ब्योरा देना होगा कि वे रूसी रक्षा उपकरणों पर निर्भरता घटाने के लिए क्या कदम उठा रहे हैं। इसके साथ ही वाशिंगटन कम्युनिकेशंस कंपैटिबिलिटी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर करने के लिए भी भारत पर दबाव बना रहा है।

भारत, इंडोनेशिया और वियतनाम को रियायत देने की वजह भी यही है कि अमेरिका इन देशों को अपने पाले में लेने की कोशिश में लगा है। तुर्की भी रूस से एस-400 खरीद रहा है, लेकिन इस नाटो सदस्य देश को अमेरिकी संसद ने कड़ी कार्रवाई की धमकी दी है। हालांकि भारत, इंडोनेशिया और वियतनाम पर अमेरिकी दबाव के बादल भी पूरी तरह नहीं छंटे हैं, क्योंकि उन्हें खुली छूट नहीं दी गई है। अमेरिका ईरान संबंधी प्रतिबंधों के माध्यम से भारत की ऊर्जा आयात नीति को प्रभावित करना चाहता है। भारत फिलहाल अपनी जरूरत का तीन चौथा से अधिक कच्चा तेल रान से आयात करता है। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार वर्ष 2040 तक भारत दुनिया में कच्चे तेल का सबसे बड़ा उपभोक्ता बन सकता है। वाशिंगटन न केवल खुद भारत को ज्यादा से ज्यादा कच्चा तेल और गैस बेचना चाहता है, बल्कि यह भी चाहता है कि भारत ईरान के बजाय सऊदी अरब और उसके खेमे के दूसरे देशों से इसकी ज्यादा खरीदारी करे। ईरान लंबे समय से भारत का प्रमुख तेल आपूर्तिकर्ता रहा है। भारत की ऊर्जा आयात विविधीकरण रणनीति में भी वह महत्वपूर्ण है।

यह भी ध्यान रहे कि अमेरिकी प्रतिबंध तेहरान के साथ न दिल्ली के राजनीतिक सहयोग को भी प्रभावित करेंगे जिसके दायरे में चाबहार बंदरगाह भी होगा। पाकिस्तान को दरकिनार करते हुए अफगानिस्तान तक पहुंचने के लिए भारत ने भारी निवेश से इस बंदरगाह का आधुनिकीकरण किया है। पिछले साल अफगानिस्तान में एक शीर्ष अमेरिकी जनरल ने इस पर कहा था कि ईरान-भारत-अफगानिस्तान के बीच सहयोग की मिसाल बनी यह परियोजना चारों ओर स्थल सीमा से घिरे अफगानिस्तान के लिए आर्थिक संभावनाओं के नए द्वार खोलेगी जो बंदरगाह के मामले में अभी तक बिगड़ैल पाकिस्तान पर निर्भर था। रूस और ईरान पर प्रतिबंध लगाकर भारत को निशाना बनाने और फिर अपने हक में रियायतें देने से अमेरिका भारत-अमेरिकी रणनीतिक साझेदारी की धुरी पर टिके खुले एवं लोकतांत्रिक हिंदू-प्रशांत क्षेत्र में अपने व्यापक हितों का ही अहित कर रहा है। अमेरिका के कदम भारतीय विदेश नीति की चुनौतियां बढ़ा रहे हैं।

(लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)