अवधेश कुमार। पहले इरफान खान और फिर ऋषि कपूर का काल कवलित होना सामान्य दृष्टि से फिल्मी जगत एवं फिल्मों में रुचि रखने वालों के लिए असाधारण आघात है। फिल्मों में उनके योगदान पर जितनी चर्चा कर लें कम ही होगा, किंतु मनुष्य किसी खास पेशे में है तो इसका यह अर्थ नहीं कि उसके जीवन का आयाम वहीं तक सीमित है। किसी व्यक्ति के अनेक फलक होते हैं जिनमें उसकी विधा और पेशा भी एक होता है। कोई यदि अभिनेता है तो वह केवल अभिनेता ही नहीं है। देश के नागरिक के रूप में घटनाओं-समस्याओं से भी उनका लेना-देना होता है।

इन दोनों कलाकारों के जीवन पर ध्यान दें तो आपको दिखाई देगा कि राजनीति, समाज, धर्म और संस्कृति को लेकर उनके कुछ निश्चित विचार थे। इन दोनों महान अभिनेताओं ने कभी अपने विचार छिपाए नहीं। ऋषि कपूर की आत्मकथा खुल्लम खुल्ला पढ़िए या पिछले छह-सात वर्षो के उनके ट्वीट देखें या फिर साक्षात्कारों पर नजर डालिए, निष्कर्ष यही निकलेगा कि उन्होंने कई मुद्दों पर खरी-खरी बात की और लोगों का विरोध तक ङोला।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में उभार के साथ देश में जिस तरह का सघन वैचारिक विभाजन हुआ उसमें ऋषि कपूर ने स्पष्ट स्टैंड लिया। इस सिलसिले में हम अनुपम खेर, रवीना टंडन, विवेक अग्निहोत्री, मधुर भंडारकर आदि का भी नाम लेते हैं, किंतु ऋषि ने जिस तरह अपने ट्वीट एवं साक्षात्कारों से मोदी का समर्थन किया वैसा फिल्मी दुनिया में इसके पहले कम ही देखा गया।

कपूर परिवार को आम तौर पर कांग्रेस समर्थक माना जाता है, किंतु ऋषि कपूर ने कांग्रेस की वंशवादी परंपरा का अपने शब्दों में भरपूर विरोध किया। कुछ और मसलों पर भी उन्होंने कांग्रेस का तीखा विरोध किया। इसमें जोखिम था, लेकिन ऋषि निडरता से अपनी बात रखते रहे। एक ट्वीट में उन्होंने लिखा था-बाप का माल समझ रखा है क्या? इस पर खूब विवाद हुआ। दरअसल यह देश भर में नेहरू-इंदिरा परिवार के नाम पर अनगिनत संस्थाओं, सड़कों, भवनों आदि का नामकरण करने पर उनकी बेबाक प्रतिक्रिया थी।

उनका कहना था कि आजादी की लड़ाई में कितने लोगों ने बलिदान दिया तो फिर एक परिवार को ही हम क्यों अपना शासक मान बैठे हैं? यह लोकतंत्र है कोई राजतंत्र नहीं कि हम एक वंश के लोगों के हाथों ही देश सौंपते रहें। हालांकि ऋषि कपूर संघ परिवार और भाजपा के हिंदुत्व की विचारधारा से आबद्ध नहीं थे, पर हाल के समय में जब भी इन पर हमले हुए तो उन्होंने खुला समर्थन का स्टैंड लिया। वह वन मैन आर्मी की तरह विरोधियों पर तीखे व्यंग्य करते रहे। वह पाकिस्तान जाने की चाहत रखते थे, लेकिन वहां के शासकों को यह हिदायत देने में संकोच नहीं करते थे कि भारत में आतंकवाद फैलाने से बाज आओ।

एक साक्षात्कार में उनसे मोदी को लेकर सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा कि एक व्यक्ति जो केवल देश के बारे में सोचता है और दिन-रात काम करता है, जो देश की गरीबी को खत्म करना चाहता है, जो दुनिया में भारत की नाक ऊंची कर रहा है, जिस पर चोरी का कोई आरोप नहीं है उसका समर्थन न किया जाए तो किसका किया जाए? जिन लोगों ने लूटकर देश को बर्बाद कर दिया क्या उनका समर्थन किया जाए? जब लंदन में मोदी के भाषण की उन्होंने प्रशंसा की तो उनसे यह भी पूछा गया कि आप राहुल गांधी की प्रशंसा क्यों नहीं करते? उनका उत्तर था राहुल गांधी ने आज तक ऐसा कुछ नहीं कहा कि मुङो लगे कि उनकी प्रशंसा करनी है।

उनके बेबाक विचारों से चिढ़े कांग्रेस के लोगों ने उनके घर पर पथराव तक किया, लेकिन वह न डरे, न बदले। राजनीति में रुचि रखने वालों के लिए यह सामान्य बात हो सकती है, लेकिन फिल्मी दुनिया में अपने करियर का ध्यान रखते हुए सामान्यत ऋषि के दौर के कलाकार खरी-खरी बात करने से बचते थे। उन्होंने इस परंपरा को तोड़ दिया। इसके पीछे उनका कोई स्वार्थ भी नहीं था। कई फिल्मी हस्तियां तो स्वार्थ के कारण भी सत्ता की प्रशंसा कर देती हैं। उन पर जब सत्ता से कुछ पाने की लालसा का आरोप लगा तो उन्होंने कहा कि इतनी उम्र हो गई। अब मुङो क्या चाहिए। जब उम्र थी तो कुछ दिया नहीं। मुङो कुछ नहीं चाहिए। भारत के विकास को लेकर वह उत्सुक थे। राजनीतिक वैचारिक विभाजन में उन्होंने अपना स्पष्ट स्टैंड लिया और इससे अनेक कलाकारों का साहस बढ़ा और वे भी इस तरह खुलकर सामने आए।

 

अगर इरफान खान की बात करें तो अपने मजहब के कट्टरपंथियों को उन्होंने हमेशा लताड़ा। उन्होंने बकरीद पर कुर्बानी की आलोचना करके उसे धर्म विरुद्ध बताया। उनका राष्ट्रीय सरोकार इतना गहरा था कि वह गांधी जी की पुस्तकों की चर्चा करते थे। उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था कि मैं गांधी जी की हिंद स्वराज पुस्तक पर थिएटर के माध्यम से लोगों से बात करना चाहता हूं। हिंद स्वराज गांधी जी की वह पुस्तक है जिसमें भारत एवं विश्व पुनर्रचना की पूरी रूपरेखा है।

इस पर बात करने का मतलब ही है कि व्यक्ति के अंदर राष्ट्र और मानवता को लेकर गहरी समझ और काम करने की चाहत है। उन्होंने शाह रुख खान की फिल्मों की उनके सामने भरी सभा में चुनौती दी। ऐसा साहस आत्मविश्वास से आता है। सिनेमा से इतर मसलों पर भी खरी बात करने वाले दो सितारों का जाना वर्तमान समय की दृष्टि से जब देश में इतना तीखा वैचारिक संघर्ष चल रहा है और राजनीति में विपक्ष के बीच नेतृत्व एवं विचार संभ्रम की स्थिति है तब फिल्म जगत के साथ-साथ देश के लिए भी एक बड़ी क्षति है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)