[उमेश चतुर्वेदी]। सुरसा की तरह बढ़ते कोरोना संकट को रोकने के लिए हनुमान की तरह अभी तक कोई अचूक वैज्ञानिक उपाय सामने नहीं आ पाया है। इस संकट काल में देश के मजदूरों को लेकर चिंताएं जताई जा रही हैं। उनकी भूख की कई सच्ची और अतिरेकी कहानियां सामने आ रही हैं। मार्च के आखिरी हफ्ते में हजारों किलोमीटर की पैदल यात्र के बाद इनमें से ज्यादातर अपने गांवों की ओर लौट चुके हैं, जबकि कई तो लॉकडाउन के पहले चरण तक तक धैर्य रखने के बाद अब गांव लौट रहे हैं।

महाबंदी के दौरान अपनी रोजी-रोटी की जगह पर जो फंस गए हैं, सरकारी सुविधाओं के तमाम दावों के बावजूद अपने गांव लौट रहे हैं। उनमें से कई इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि कब महाबंदी खत्म हो और अपने घर लौट जाएं, जहां रोजगार के मौके भले ही कम हैं, लेकिन शहरी दुनिया की तुलना में सुकून ज्यादा है।

मजदूरों की इस उत्कट इच्छा के बाद पंजाब, महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे राज्यों के उद्योगपतियों और किसानों की चिंताएं बढ़ गई हैं। खासकर छोटे उद्योगों, दुकानों और किसानों की पेशानी पर बल पड़ना स्वाभाविक है। अगर त्रसद कोरोना पर काबू पा लिया गया तो उनकी दुकान कौन संभालेगा, उनके छोटे उद्योग में काम कौन करेगा और उनकी फसल कौन काटेगा, बोएगा या उसकी रखवाली करेगा।

मुंबई से गाड़ियां चलने की अफवाह के बाद बांद्रा रेलवे स्टेशन पर जुटी भीड़ के बाद मजदूरों को मीडिया के जरिये महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे द्वारा किए गए संबोधन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। मजदूरों के खाने-पीने और दूसरी जरूरी जीवनी सुविधाएं मुहैया कराने के ठाकरे के वायदे में महाराष्ट्र की भावी परेशानियों का अक्स भी नजर आ रहा था। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह बिहार जा चुके मजदूरों को पंजाब भेजने और जो पंजाब में ही फंसे हैं, उनके इसी प्रदेश में ही रुकने की अपील के सिलसिले में बाकायदा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से फोन पर बात भी कर चुके हैं।

दरअसल पंजाब और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के नेताओं को यह डर सताने लगा है कि अगर अपने गांव लौट चुके या गांव लौटने की फिराक में दिन काट रहे मजदूर वापस न लौटे या फिर उनके यहां नहीं रुके तो उनकी आर्थिक गतिविधियों को ठप होने से कोई नहीं रोक सकेगा। महाराष्ट्र जैसे राज्यों में जहां बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों को पीटने, उत्पीड़ित करने और बोझ समझने का जो भाव रहा है, वहां की सोच में ऐसा बदलाव शौक से नहीं आया है। संकट की घड़ी में इन राज्यों, यहां के उद्योगपतियों और किसानों को समझ में आने लगा है कि जिन मजदूरों की भीड़ और उनकी सुविधाहीन बसाहट को वे उपेक्षा की नजर से देखते थे, दरअसल वे ही उनकी जीवनरेखा हैं।

कोरोना को लेकर 24 मार्च को शुरू हुई महाबंदी के बाद दिल्ली से बाहर निकली मजदूरों की भीड़ को भी इसी सोच का नतीजा माना गया था। बहरहाल इन मजदूरों को लेकर राजनीति, मीडिया और बौद्धिकों का एक तबका ऐसे आंसू बहाने लगा, मानो यह कहानी आज की हो। दरअसल आजाद भारत में समावेशी विकास के नजरिये से मानव संसाधन विकास और रोजगार पर कायदे से न तो सोचा गया और न ही दूरगामी नीतियां बनीं। भारत जब आजाद हुआ था तो देश में करीब छह लाख गांव थे। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में 6,49, 481 गांव हैं।

आजादी के दिनों में करीब 83 फीसद जनसंख्या गांवों में रहती थी, लेकिन अब करीब 67 फीसद रहती है, परंतु हमारी नीतियों में स्मार्ट गांव के बजाय स्मार्ट शहर की ही अवधारणा को आगे बढ़ाने पर जोर है, परिणामस्वरूप भारत दो तरह की आबादी के बीच विकसित हो गया है। एक तरफ असंगठित और अपेक्षाकृत उपेक्षित बड़ी आबादी है तो दूसरी तरफ मुट्ठीभर लोगों की समृद्धि। इस पूरी प्रक्रिया में मध्य वर्ग तो बढ़ा, लेकिन वह भी उस वर्ग पर निर्भर होता गया, जिसे हम असंगठित मजदूर कह सकते हैं।

नीति आयोग समेत भारत सरकार और निजी क्षेत्र के तमाम आर्थिक संगठन भी मानते हैं कि देश की आधी अर्थव्यवस्था असंगठित कामगारों पर ही निर्भर है। अभी तक भारत सरकार के पास कुल श्रम शक्ति का कोई मुकम्मल आंकड़ा नहीं है। लेकिन नीति आयोग मानता है कि भारत में करीब 50 करोड़ श्रम शक्ति है, जिसका 90 प्रतिशत हिस्सा असंगठित क्षेत्र में है। यह आंकड़ा 2012 में राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग द्वारा प्रस्तुत आकलन पर आधारित है। हालांकि 2018-19 के आर्थिक सर्वे के मुताबिक भारत का करीब 93 प्रतिशत कार्यबल असंगठित क्षेत्र से रोजगार हासिल करता है। अगर कुल कार्यशक्ति को 50 करोड़ मानें और राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के आकलन पर भरोसा करें तो 45 करोड़ कामगार असंगठित क्षेत्र में हैं।

महाबंदी के बाद जो कार्यबल अपने गांवों में लौटा है उनमें से ज्यादातर इसी श्रेणी के हैं। इस कार्यबल में करीब तीस करोड़ लोग सीधे शहरों में कार्यरत हैं, जिनमें करीब दस करोड़ लोग परिवार के सदस्य के तौर पर हैं। महाबंदी खत्म होने के बाद इसमें से पारिवारिक आधार वाले लोगों के ही लौटने की ज्यादा संभावना है, जबकि अकेले या किसी तरह छोटी आय पर गुजर-बसर करने को मजबूर लोगों का बड़ा हिस्सा शायद ही शहरों की ओर लौटे।

वैसे भी गांवों में रहना अब भुखमरी का सबब नहीं रहा। मनरेगा और राज्य सरकारों द्वारा मिलने वाली सुविधाओं के चलते जिंदगी अब उतनी कठिन नहीं रही, जितनी एक-दो दशक पहले तक रही है। शहरों में आने की मजबूरी की सबसे बड़ी वजह भावी पीढ़ी को अपने से बेहतर जिंदगी देना रही है, लेकिन महाबंदी के बाद उपजे हालात और बेरोजगारी की आशंका के चलते असंगठित क्षेत्र के लोगों का एक बड़ा हिस्सा कम सुविधाओं के साथ ही अपने गांवों में अपेक्षाकृत सुकून से रहने को तवज्जो दे सकता है। जानकारों की चिंता की वजह यह आशंका ही है।

लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी हालात को सामान्य होने में वक्त लगेगा। बेशक राज्य सरकारों और केंद्र सरकार ने असंगठित क्षेत्र के कामगारों के हित में कई कदम उठाए हैं, लेकिन इन मजदूरों को आर्थिक केंद्रों पर वापस लाने के लिए पहले से बेहतर संसाधन और सुविधाएं मुहैया कराने की दिशा में सोचना होगा। इन लोगों को बेहतर जिंदगी देने के लिए ठोस उपाय करने होंगे, तभी इस कार्यबल की वापसी आर्थिक केंद्रों में सुनिश्चित हो सकेगी। अन्यथा भारत के आर्थिक केंद्रों को सस्ते मजदूरों की कमी का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा।

[वरिष्ठ पत्रकार]