[ सी उदयभास्कर ]: सर्जिकल स्ट्राइक की दूसरी वर्षगांठ के अवसर पर देश भर में तीन दिवसीय कार्यक्रमों का आयोजन हुआ। इनमें भारतीय सेना के जवानों के शौर्य-पराक्रम का पुन: स्मरण किया गया जिन्होंने नियंत्रण रेखा यानी एलओसी के उस पार मौजूद आतंकियों के ठिकानों को साहसिक कार्रवाई करते हुए तबाह कर दिया था। इन कार्यक्रमों की शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जोधपुर में काफी धूमधाम से की गई थी। इसके साथ ही प्रधानमंत्री ने यहां संयुक्त कमांडरों के वार्षिक सम्मेलन को भी संबोधित किया। एक तरफ सर्जिकल स्ट्राइक के जरिये जवानों के पराक्रम का गुणगान और दूसरी तरफ भारतीय सेना के पास सैन्य साजोसामान की भारी कमी की बात कुछ मेल नहीं खा रही है। इस कड़वी हकीकत की अनदेखी नहीं की जा सकती। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि मोदी ने जोधपुर में सेना के शीर्ष अधिकारियों से क्या कहा, लेकिन समझा जाता है कि उन्होंने तीनों सेनाओं में ‘तालमेल’ और सैन्य बलों के ‘साथ मिलकर काम करने’ पर जोर दिया।

मोदी ने चार वर्ष पूर्व अक्टूबर 2014 में संयुक्त कमांडरों के सम्मेलन में अपने पहले संबोधन में भी इस ‘तालमेल’ के संबंध में अपना नजरिया पेश किया था। उस दौरान प्रधानमंत्री ने सैन्य बलों के आधुनिकीकरण के लिए पर्याप्त संसाधन मुहैया कराने के अपने वादे के प्रति सेना को निश्चिंत किया था। साथ ही तब महीने में एक बार सभी सेवा प्रमुखों से मिलने का वादा भी किया था, जिसे तब अप्रत्याशित कदम बताया गया था और सभी ने उसका स्वागत किया था।

भारतीय सेना के तीनों अंगों से संयुक्त सिद्धांत के तहत काम करने की मांग नई नहीं है। इसके तार वर्ष 2004 से जुडे़ हैैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी संयुक्त कमांडरों के सम्मेलन में अपने पहले संबोधन में कहा था कि ‘सैन्य बलों में सुधार का एक पहलू यह भी होना चाहिए कि आने वाले दिनों में हमारी नौसेना, वायु सेना और थल सेना कमांड और एकल सेवा परिचालन योजनाओं के साथ अलग-अलग इकाइयों के रूप में काम न करें।’

भारतीय इतिहास के कुछ हालिया अर्थात 1999 के करगिल युद्ध के बाद के पन्नों को पलटें तो पाते हैैं कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी कुछ ऐसी ही मंशा प्रकट की थी। उस समय तो मंत्रिसमूह की सिफारिशों के जरिये इस दिशा में काफी ठोस कदम भी बढ़ाए गए थे। जाहिर है कि करीब बीस साल बाद भी भारतीय सेना तीनों सेवाओं की ‘संयुक्त कमान’ के संबंध में किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाई है अर्थात इस विषय पर कोई सहमति नहीं बन पाई है। हालांकि ऐसा मालूम हुआ है कि भारतीय वायु सेना ऐसे विचार के खिलाफ है। उसका तर्क है कि भारत की भौगोलिक विविधताओं और संभावित सुरक्षा संबंधी अनिवार्यताओं को देखते हुए यह जरूरी है कि वायु सेना को एक सेवा के तहत ही रहने दिया जाए। शायद इसी के चलते चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) की नियुक्ति दो दशकों से खटाई में पड़ी हुई है। कार्यकाल के अंतिम वर्ष में मोदी सरकार भी इस चुनौती से जूझ रही है, क्योंकि सेना के तीनों अंगों की ‘संयुक्त कमान’ की जोरशोर से की गई वकालत के बाद भी आज उस पर भ्रम का स्थिति बनी हुई है।

इसके अलावा ढांचागत कमियों, नाकाफी सैन्य साजोसामान और उसकी खराब गुणवत्ता आज भारतीय सेना के समक्ष सबसे गंभीर चुनौती है। सेना के तीनों अंग विभिन्न स्तरों पर गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहे हैैं। जैसे थल सेना आज भी बोफोर्स आर्टिलरी गन के स्थान पर आधुनिक हथियारों का इंतजार कर रही है, नौसेना को पनडुब्बियों और सुरंग भेदी पोत का इंतजार है। पहले से ही लड़ाकू विमानों की कमी से दो चार हो रही वायु सेना को भी फिलहाल जोर पकड़ रहे राफेल विवाद से कोई राहत मिलने के आसार नहीं हैं।

सेना के बलिदान को हर देशवासी नमन करता है। लोगों को सेना पर गर्व करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता रहा है। यह एक अच्छी परंपरा है, लेकिन भारतीय रक्षा तंत्र की चिरस्थाई चुनौती सेना की संचालन क्षमता को सुनिश्चित करने के लिए वित्तीय संसाधनों की अपर्याप्तता है। इस साल मार्च के महीने में संसद में रक्षा पर संसद की स्थाई समिति की रिपोर्ट इसके अध्यक्ष मेजर जनरल बीसी खंडूड़ी द्वारा पेश की गई थी। खंडूड़ी खुद एक सम्मानित सैनिक और वाजपेयी सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं। सेना के पास पर्याप्त संसाधन की उपलब्धता की महत्ता रेखांकित करते हुए उस रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि वर्तमान में सेना को जितने संसाधनों का आवंटन हो रहा है वह उसकी जरूरतों के लिए पर्याप्त नहीं है। भारतीय सेना के पास न सिर्फ हथियारों और गोला बारूद की कमी है, बल्कि वे जंग खाए हुए यानी पुराने भी हैैं।

खंडूड़ी रिपोर्ट एक और चिंताजनक तथ्य को रेखांकित करती है कि भारतीय सेना के पास अभी जो भी साजोसामान मौजूद हैं उनमें से 68 फीसद पुराने हैैं। सिर्फ 24 फीसद वर्तमान दौर के और सिर्फ आठ फीसद अत्याधुनिक हैैं। दो अन्य सेवाओं-नौसेना और वायु सेना की स्थिति भी इससे अलग नहीं है। सुरक्षा के नियम कहते हैैं कि एक सेना के आयुध भंडार में पुराने हथियारों का प्रतिशत 25 से नीचे होना चाहिए तभी उसकी परिचालन क्षमता सुनिश्चित मानी जाती है। यही कहा जा सकता है कि एक के बाद एक सरकारें भारतीय सेना की ढांचागत खामियों को दूर करने में असफल रही हैं।

रक्षा सौदों का राजनीतिक विवादों में घिरना और भी दुर्भाग्यपूर्ण है। इस दौरान एक और खामी सामने आई है। रक्षा मंत्रालय का नेतृत्व बदलता रहा है। इसी सरकार के चार साल के कार्यकाल में निर्मला सीतारमण चौथी रक्षा मंत्री हैं। भारत के सामने मौजूद रक्षा चुनौतियों को देखते हुए खासकर रक्षा सामग्रियों के मोर्चे पर हमारे सामने जैसा संकट खड़ा है उस स्थिति में भारतीय नेतृत्व के लिए यह अपरिहार्य हो जाता है कि वह देश की परिस्थितियों के मद्देनजर सैन्य तंत्र में कुछ इस तरह सुधार करे ताकि इससे जुड़ी समस्याओं का स्थाई समाधान हो सके।

प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 के आम चुनावों के दौरान ठीक ही कहा था कि भारतीय सेना और जवान अपर्याप्त संसाधनों के बावजूद अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैैं। इसके बाद यह उम्मीद की गई थी कि नई सरकार इस मुद्दे को प्राथमिकता के साथ निपटाएगी जिसकी जरूरत भी थी। यदि जोधपुर में कमांडरों के सम्मेलन में खंडूड़ी रिपोर्ट पर चर्चा हुई हो और उस दिशा में आगे बढ़ने का निर्णय लिया गया हो तो यह भारतीय सैन्य तंत्र के लिए सुनहरा दौर लेकर आएगा। और यही एक उपाय है जिससे सेना की पुराने साजोसामान पर निर्भरता के प्रतिशत को अब और बढ़ने से रोका जा सकता है।

[ लेखक सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ एवं सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज के निदेशक हैं ]