[ जगमोहन सिंह राजपूत ]: भारत की वैश्विक स्थिति किसी न किसी रूप में सदा ही विशिष्ट बनी रही है। साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के अंत की लड़ाई में भारत की भूमिका विश्व भर में उभरी थी। कोरोना के बाद भी भारत की स्थिति दुनिया का ध्यान खींचेगी। अधिकांश देश भारत से अपेक्षाएं रखेंगे, क्योंकि हर सामान्य नागरिक को शांति और अहिंसा चाहिए। युद्ध, हथियारों के आत्मघाती जखीरे बढ़ाने की होड़ और हिंसा से निजात चाहिए। आतंकवाद और पंथिक कट्टरवाद से मुक्ति चाहिए। चीन, पाकिस्तान और कुछ इस्लामिक देशों को छोड़ दें तो अन्य सभी यही चाहेंगे कि भारत विश्व शांति के प्रयत्नों में आगे आए, क्योंकि उसकी ऐतिहासिक साख दूसरों की सहायता की ही रही है, न कि लूटपाट, शोषण या आक्रमण करने की। पिछले सात-आठ दशकों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शांति के जो भी प्रयास किए गए हैं, भारत उन सबमें भागीदार रहा है।

मानव-समाज ने शांति स्थापित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की स्थापना बड़े अपेक्षाओं के साथ की थी

बीती सदी में दो विश्व युद्धों की विभीषिका सहनकर चुके मानव-समाज ने शांति स्थापित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की स्थापना बड़े मनोयोग और महती अपेक्षाओं के साथ की थी। उस समय उपनिवेशवाद लगभग समाप्ति की स्थिति में था। साम्राज्यवादी देश अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए आपस में विकल्पों पर विचार-विमर्श कर रहे थे। उन्होंने इस संस्था की संरचना में भी बड़ी चतुराई से अपने आधिपत्य की निरंतरता की नींव डाल दी।

सुरक्षा परिषद के चार स्थायी सदस्य बने-अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन और सोवियत संघ

तब सुरक्षा परिषद के चार स्थायी सदस्य बने-अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन और सोवियत संघ। बातें हर तरफ प्रजातंत्र की और हर सदस्य की बराबरी की थीं, मगर सुरक्षा परिषद् के चारों स्थायी सदस्यों के पास वीटो था। उनमें से कोई भी एक सब कुछ रोक सकता था। इस वैश्विक संस्था को इन चारों में से कोई भी एक देश अपंगकर सकने की ताकत रखता था।

भारत के प्रयासों से चीन सुप का पांचवां सदस्य बना, कृतज्ञता को कृतघ्नता में बदलने में देर नहीं लगती

भारत की सहृदयता और सतत प्रयासों से बाद में चीन इसका पांचवां सदस्य बना। आज चीन भारत के साथ जो कर रहा है, वह सर्वविदित है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि राजनीति में कृतज्ञता को कृतघ्नता में परिवर्तित होने में देर नहीं लगती।

1950-60 में भारत थोड़ा भी प्रयास करता तो संयुक्त राष्ट्र सुप का स्थायी सदस्य बन गया होता

यदि 1950-60 के आस-पास भारत थोड़ा भी प्रयास करता या बड़ी शक्तियों के द्वारा दिए गए सुझावों को स्वीकार लेता तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बन गया होता और उसके बाद वह उसमें आवश्यक संरचनात्मक सुधार करने की पहल कर सकता था। विश्व के अनेक विचारक इस तथ्य को स्वीकार करते रहे हैं कि यदि भारत को संयुक्त राष्ट्र में उचित सम्मान दिया गया होता और उसके शांति प्रयासों में सहयोग किया गया होता तो आज विश्व में शांति स्थापना की स्थिति पूरी तरह अलग होती।

धार्मिक सहिष्णुता के उपदेश ही मानव जाति को बचा सकते हैं

विश्व-विख्यात इतिहासकार अर्नाल्ड टायनबी के इन शब्दों के पीछे गहन चिंतन और दर्शन का अद्भुत सम्मिश्रण है, ‘मानव इतिहास के इस सबसे अधिक खतरनाक क्षण में मानव जाति की मुक्ति का यदि कोई रास्ता है तो वह भारतीय है। सम्राट अशोक और महात्मा गांधी का अहिंसा का सिद्धांत और रामकृष्ण परमहंस के धार्मिक सहिष्णुता के उपदेश ही मानव जाति को बचा सकते हैं। यहां हमारे पास एक ऐसी मनोवृत्ति एवं भावना है जो मानवजाति को एक परिवार के रूप में विकसित होने में सहायक हो सकती है।’ जिस मनोवृत्ति और भावना की ओर टायनबी ने इंगित किया, उसे निखारकर भारत संयुक्त राष्ट्र के कार्यकलापों में विश्व के समक्ष प्रस्तुत कर सकता था। यदि मार्टिन लूथर किंग भारत की नीति, प्रवृत्ति और दर्शन को समझ सकते थे, नेल्सन मंडेला इसे जीवन में उतारकर और इसके महत्व को समझकर अपना पूरा जीवन उसी आधार पर ढाल सकते थे, हो ची मिन्ह जैसे व्यक्ति गांधी जी के जीवन-दर्शन को विपरीत परिस्थितियों में ढालकर विश्व के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत कर सकते थे, तो संयुक्त राष्ट्र इस दिशा में आगे क्यों नहीं बढ़ सका?

संयुक्त राष्ट्र और उसकी संस्थाएं वैश्विक पटल पर प्रभाव डालने में नगण्य हो गई

आज संयुक्त राष्ट्र और उसकी लगभग सभी महत्वपूर्ण संस्थाओं की वैश्विक पटल पर प्रभाव डालने की क्षमता लगभग नगण्य हो गई है। कुछ देशों के लिए तो संयुक्त राष्ट्र की उपस्थिति अब एक ऐसी संस्था की रह गई है, जो बहुधा एक देश के इशारे पर किसी भी मुल्क पर प्रतिबंध लगा देने के लिए तैयार हो जाता है। अनेक अवसरों पर इससे हिंसा, अविश्वास और युद्ध बढ़े हैं। इस समय भी एक अनावश्यक युद्ध आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच हो रहा है और संयुक्त राष्ट्र उसे रोक पाने में नाकाम है। यह भी एक विडंबना ही है कि चीन और पाकिस्तान जैसे देश बेहद खराब मानवाधिकार रिकॉर्ड के बाद भी संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद के सदस्य बन गए। शायद इन्हीं कारणों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र की आम सभा के 75वें सत्र को संबोधित करते हुए विश्व के समक्ष यह स्पष्ट किया कि भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निर्णय लेने वालों में उचित और अपेक्षित भागीदारी मिलनी ही चाहिए। हाल में गांधी जी की जन्म-जयंती समारोह पूर्ण हुआ है। भारत के बुद्धिजीवियों, विचारकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को अब संगठित रूप से यह विचार करना चाहिए कि भारत में उनके विचारों को लागू करने में जो कमी है, उसे कैसे पूरा किया जाए।

भारत अपना उत्तरदायित्व तभी निभा सकेगा जब उसका घर शांति, सद्भाव का उदाहरण बने

विश्व के समक्ष भारत अपना अपेक्षित उत्तरदायित्व तभी निभा सकेगा, जब उसका अपना घर शांति, सद्भाव और सहयोग का अनुकरणीय उदाहरण बने। गांधी जी का स्वराज स्वयं का शासन मात्र नहीं था, उसमें स्वयं पर अनुशासन भी सम्मिलित था। भारत भोगभूमि नहीं, कर्मभूमि है, जहां जीवन में प्रारंभ से ही कर्तव्यबोध सिखाया जाता है। इससे परिचित व्यक्ति ही यह कह सकता है कि प्रकृति में सभी की आवश्यकता पूर्ति के संसाधन हैं, मगर एक के भी लालच र्पूित के लिए नहीं। आज विश्व को इसे समझाने को आवश्यकता है। यह वैचारिकता संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित 17 सतत विकास लक्ष्यों को नई दिशा दे सकती है।

पश्चिमी देशों को अपने अनावश्यक उपभोग पर लगाम लगानी पड़ेगी

आवश्यक है कि सतत उपभोग की अवधारणा को पूरी तरह समझा जाए, क्योंकि उसके बिना न तो शांति स्थापित होगी और न ही सतत विकास संभव होगा। इसके लिए पश्चिमी देशों को अपने अनावश्यक उपभोग पर लगाम लगानी ही पड़ेगी। कह सकते हैं कि अपने सही स्थान पर स्थापित होकर भारत ऐसे मौलिक विचारों को दृढ़तापूर्वक प्रस्तुत कर सकता है। इसे विकासशील देशों का भी समर्थन इसके लिए प्राप्त होगा। 

( लेखक शिक्षा एवं सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं )