[बलबीर पुंज]। हाल के समय में देश के कई प्रमुख व्यक्तियों ने कई अवसरों पर समाज में बढ़ती तथाकथित असहिष्णुता पर चिंता प्रकट की है। कुछ ने तो प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से यह आरोप भी लगाया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में संविधान प्रदत्त लोकतांत्रिक, पंथनिरपेक्ष और बहुलतावादी मूल्यों का

निरंतर क्षय हो रहा है। क्या ऐसा है? आखिर विश्व में भारत की पहचान एक सफल लोकतंत्र और पंथनिरपेक्ष देश के रूप में कैसे बनी? यदि इसका कारण 26 जनवरी 1950 को स्वीकार किए गए संविधान और 1975-76 में उसकी प्रस्तावना में जोड़ा गया शब्द ‘सेक्युलर’ है तो कोई भी निरंकुश शासक इसके स्वरूप को कभी भी बदल सकता है। क्या ऐसा होना संभव है? नहीं। भारत की पंथनिरपेक्षता किसी कानून या संविधान के कारण नहीं है, बल्कि हमारा संविधान ‘एकं सद् विप्रा: बहुधा वदंति’ के भारतीय मूल्यों को ही प्रतिबिंबित करता है।

जब देश के रक्तरंजित विभाजन के बाद पाकिस्तान ने खुद को इस्लामी राज्य के रूप में स्थापित किया तो बहुत स्वाभाविक था कि भारत भी स्वयं को हिंदू राज्य घोषित कर लेता। यदि ऐसा होता तो वह निश्चित ही सनातन संस्कृति और देश की बहुलतावादी परंपरा के विपरीत होता। भारत के गर्भ से जनित और अब हिंदू विहीन देश-पाकिस्तान और बांग्लादेश में पंथनिरपेक्षता- बहुलतावाद की स्थिति क्या है, यह किसी से छिपा नहीं। फिर भी देश में-विशेषकर बीते 55 महीनों से एक समूह बार-बार असहिष्णुता का प्रलाप कर रहा है। इस जमात में वे विदेशी वित्तपोषित स्वयंसेवी संगठन भी शामिल हैं जो मानवाधिकार के नाम पर अक्सर देश के विकास कार्यों को बाधित करने और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में लिप्त होते हैं। इसी सूची में गैर-सरकारी संगठन एमनेस्टी इंडिया का नाम भी शामिल है जिसके दो परिसरों पर गत वर्ष प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी ने 36 करोड़ के विदेशी विनिमय उल्लंघन के मामले में छापेमारी की थी। पिछले साढ़े चार वर्षों से इस प्रकार के सैकड़ों संगठनों का पंजीकरण रद हुआ है।

कानूनी कार्रवाई से तिलमिलाए एमनेस्टी इंडिया ने हाल में एक वीडियो जारी किया जिसमें फिल्म अभिनेता नसीरूद्दीन शाह यह कहते दिख रहे हैं, ‘आज नफरत की दीवारें खड़ी की जा रही हैं, मासूमों का कत्ल हो रहा है। क्या हमने ऐसे ही देश का सपना देखा था?’ इस वरिष्ठ अभिनेता ने गत माह एक अन्य वीडियो में भी कहा था, ‘आज एक इंसान की तुलना में गाय की मौत को अधिक महत्व दिया जा रहा है। मुझे अपने बच्चों के लिए फिक्र होती है।’ मई 2014 के बाद इसी आरोप को कई लोगों ने अपने-अपने हितों के हिसाब से दोहराया है। किसी भी सभ्य समाज में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। जो व्यक्ति किसी भी कारण कानून अपने हाथ में लेता है, उसे विधि-विधान अनुसार दंड मिलना चाहिए।

भले ही नसीरूद्दीन शाह जैसे लोग गाय को केवल जानवर के रूप में देखते हों, किंतु भारत में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो गाय को गोमाता के रूप में देखता और आदर करता है। यह सही है कि आज सड़कों पर दयनीय स्थिति में गायों को आवारा घूमते और पॉलिथीन खाते हुए देखा जाता है, जिसमें सुधार हेतु नीतिगत रूप से काफी कदम उठाने की आवश्यकता है, लेकिन क्या यह सच नहीं कि प्रत्येक संस्कृति और मजहब में विशेष प्रतीक होते है? 56 वर्ष पूर्व 27 दिसंबर 1963 को श्रीनगर में हजरतबल तीर्थस्थल से ‘मू-ए-मुकद्दस (पैगंबर साहब की दाढ़ी का बाल) चोरी होने की अफवाह फैली थी। इससे उस समय देश-विदेश में मुस्लिम आक्रोश बढ़ गया था, क्योंकि वह मुसलमानों की आस्था, विश्वास और भावना से जुड़ा था।

तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने सहयोगी लाल बहादुर शास्त्री और शीर्ष जांच अधिकारी को उस पवित्र अवशेष की खोज के लिए श्रीनगर भेजा था। आखिरकार 4 जनवरी 1964 को वह बाल मिल गया था, लेकिन इस घटनाक्रम के विरोधस्वरूप कलकत्ता सहित देश के कई हिस्सों र्में ंहसा शुरू हो गई थी जिसमें कई लोग मारे गए थे। बांग्लादेश के कई शहरों में तो दर्जनों मंदिर तोड़ दिए गए और कई हिंदुओं को मार डाला गया था। 50 हजार से अधिक लोग बेघर हो गए थे तो सैकड़ों गैर-मुस्लिमों की संपत्ति लूट ली गई थी। यह बात अलग है कि ‘मू-ए-मुकद्दस’ चोरी के मामले में जिन युवकों की उस समय गिरफ्तारी हुई थी वे सभी मुसलमान थे। यदि ‘मू-ए-मुकद्दस’ के खोने से एक समुदाय आक्रोशित हो सकता है तो हिंदू समाज से अपने प्रतीकों के अपमान पर चुप्पी की अपेक्षा कहां तक न्यायोचित है?

देश में आज जो लोग डर लगने और जहर फैलने की बात कर रहे हैं वे सभी 1962 में चीन के हाथों भारत की पराजय, 1984 के दिल्ली सिख नरसंहार, 1993 के मुंबई बम धमाकों में 257 लोगों की मौत, 2002 के गोधरा कांड (59 कारसेवकों को जीवित जलाने), 2008 में मुंबई के 26/11 आतंकी हमले (174 हत्या) और 2012 में मुंबई के ही आजाद मैदान में समुदाय विशेष के मजहबी आक्रोश से चिंतित और भयभीत क्यों नहीं हुए? वर्ष 2006 में जब शार्ली एब्दो ने पैगंबर साहब का कार्टून छापा था तब प्रतिक्रियास्वरूप दुनिया के कई हिस्सों र्में फैलाई गई और पेरिस में आतंकी हमलों को अंजाम दिया गया, जिसमें कई लोग मारे गए थे। तब एक वर्ग ने इस हिंसा को न्यायोचित ठहराने का प्रयास किया था। कार्टून आखिर कागज पर उकेरी गई कुछ आड़ी-तिरछी लकीरों का ही संयोजन होता है, लेकिन उन्हीं लकीरों के विरोध के नाम पर पूरी दुनिया में कई लोगों की जान ले ली गई और करोड़ों रुपयों की संपत्ति को नष्ट कर दिया गया। आखिर इस हिंसा का औचित्य क्या था?

देश में ‘असहमति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है’ जैसे जुमलों को आधार बनाकर अक्सर ही हंगामा होता है। ऐसा करने वाले उन चार ननों को न्याय दिलाने हेतु कोई अभियान क्यों नहीं छेड़ते, जिन्हें चर्च ने कॉन्वेंट छोड़ने का आदेश दे दिया है? इन ननों का दोष केवल इतना है कि उन्होंने केरल के नन दुष्कर्म मामले में आरोपित बिशप फ्रैंको मुलक्कल के खिलाफ सितंबर 2018 में आंदोलन में भाग लिया था, जिससे चर्च और शीर्ष कैथोलिक संस्थान बेचैन है। वास्तव में, भारत की पंथनिरपेक्षता और बहुलतावाद को खतरा उस छद्म-सेक्युलरवाद से है जिसमें सनातन संस्कृति से घृणा के साथ मतांतरण, कट्टरपंथ, जिहाद और राष्ट्रविरोधी शक्तियों का समर्थन है। जब तक इन्हे पोषण मिलेगा, भारत की वास्तविक पंथनिरपेक्षता पर संकट मंडराता रहेगा।

(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं

वरिष्ठ स्तंभकार हैं)