नई दिल्ली [डॉ. भरत झुनझुनवाला]। बहुत दिन नहीं हुए जब चीन से एक रेलगाड़ी 12 हजार किमी का सफर तय करके इंग्लैंड पहुंची। इस ट्रेन में चीनी फैक्ट्रियों में तैयार कपड़े और अन्य सामान था। इस ट्रेन का पहुंचना चीन द्वारा बनाई जा रही बेल्ट रोड का ट्रेलर था जो उसकी महत्वाकांक्षी योजना का हिस्सा है। चीन के माल को यूरोप और अफ्रीका पहुंचाने के लिए 65 देशों के बीच से एक गलियारे का निर्माण होगा जो सड़क और रेल यातायात को सुलभ बनाएगा। बेल्ट रोड बनने के बाद चीन के माल का यूरोप पहुंचाना आसान हो जाएगा और इससे चीन की अर्थव्यवस्था को लाभ पहुंचेगा।

वर्तमान में अमेरिका द्वारा इलेक्ट्रिकल स्विच जैसी वस्तुएं यूरोप को आपूर्ति की जा रही हैं, क्योंकि अमेरिका का माल सस्ता पड़ रहा है। वहीं बेल्ट रोड बनने के बाद चीन में बने इलेक्ट्रिकल स्विच सस्ते पड़ेंगे। तब यूरोपीय ग्राहक अमेरिका के स्थान पर चीनी माल खरीदने को तरजीह देंगे। इसलिए बेल्ट रोड का असल मुद्दा चीन बनाम अमेरिका का है। यूरोप में अमेरिकी वर्चस्व को चीन बेल्ट रोड के माध्यम से चुनौती दे रहा है। इस तरह चीन विश्व अर्थव्यवस्था का नया रूप स्थापित करने में लगा हुआ है। इस विषय को विश्व अर्थव्यवस्था की बड़ी तस्वीर के तहत देखना चाहिए।

वर्तमान में अमेरिका, जापान और यूरोप के विकसित देशों में विश्व की 25 प्रतिशत आबादी रहती है जबकि इन देशों के पास दुनिया की 75 प्रतिशत आय है। दूसरी तरफ चीन, भारत और अन्य विकासशील देशों में विश्व की 75 प्रतिशत आबादी रहती है, लेकिन इन देशों के पास विश्व की केवल 25 प्रतिशत आय है। अगर बेल्ट रोड सफल होता है तो विश्व अर्थव्यवस्था का यह असंतुलन टूटेगा। विश्व अर्थव्यवस्था में चीन की आय का हिस्सा बढ़ेगा और अमेरिका का हिस्सा घटेगा। इसीलिए अमेरिका का प्रयास है कि विश्व अर्थव्यवस्था के इस वर्तमान असंतुलन को बनाए रखा जाए।

भारत के सामने संकट यह है कि बेल्ट रोड का एक हिस्सा चीन से पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर यानी पीओके से होकर अरब सागर के ग्वादर पोर्ट तक पहुंच रहा है। बेल्ट रोड के इस हिस्से से चीन को अपना माल अफ्रीका तक पहुंचाने में मदद मिलेगी। भारत की आपत्ति है कि यह रोड पाकिस्तान के कब्जे वाले क्षेत्र से गुजरती है और इससे भारत की संप्रभुता को चुनौती मिलती है। इसीलिए भारत ने अमेरिका के साथ मिलकर बेल्ट रोड का विरोध किया है। इसमें संदेह है कि भारत और अमेरिका का यह विरोध सफल होगा। इसका कारण यह है कि चीन ने बेल्ट रोड बनाने के लिए विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी वैश्विक संस्थाओं से मदद नहीं ली है।

चीन के सरकारी बैंक विश्व पूंजी बाजार में निजी निवेशकों से कर्ज ले रहे हैं और इस रकम को द्विपक्षीय समझौतों के माध्यम से उन 65 देशों को दे रहे हैं जिनके बीच से बेल्ट रोड गुजरनी है। ऐसे में अमेरिका और भारत शोर मचा सकते हैं, लेकिन बेल्ट रोड पर कोई अड़ंगा नही लगा सकते, क्योंकि वे इसके दायरे से बाहर हैं।

भारत के सामने दो परस्पर विरोधी मुद्दे हैं। एक तरफ विश्व अर्थव्यवस्था का असंतुलन है। इसे प्रमुखता दें तो भारत को चीन के साथ मिलकर बेल्ट रोड में सहयोग देना चाहिए जिससे वैश्विक स्तर पर आय का असंतुलन दूर हो और भारत एवं चीन का विश्व अर्थव्यवस्था में हिस्सा बढ़े। दूसरी ओर भारत यदि संप्रभुता के मुद्दे को

प्रमुखता देता है तो उसे इसका विरोध करना होगा।

मेरे आकलन में भारत को 70 साल से चले आ रहे कश्मीर विवाद के चलते विश्व अर्थव्यवस्था के वर्तमान असंतुलन को बनाए रखने के पक्ष में नहीं खड़ा होना चाहिए। कश्मीर विवाद को किनारे रखकर या कुछ हल निकालकर विश्व अर्थव्यवस्था के असंतुलन के मुख्य मुद्दे पर कार्य करना चाहिए। बेल्ट रोड के माध्यम से

चीन मुख्यत: अपनी फैक्ट्रियों में उत्पादित माल को यूरोप पहुंचाना चाहता है। विश्व अर्थव्यवस्था में विनिर्मित वस्तुओं का हिस्सा क्रमश: घटता जा रहा है। वर्तमान में विकसित देशों में सेवाओं का हिस्सा लगभग 90 प्रतिशत, उत्पादित माल का 9 प्रतिशत और कृषि का एक प्रतिशत है।

बेल्ट रोड के माध्यम से चीन उत्पादित माल के नौ प्रतिशत हिस्से में अपनी पैठ बनाने का प्रयास कर रहा है। भारत के सामने चुनौती है कि विश्व आय के 90 प्रतिशत सेवा क्षेत्र के हिस्से में अपनी पैठ बनाए। भारत को एक महत्वाकांक्षी ग्लोबल सर्विसेस पाथवे योजना बनानी चाहिए जिसके माध्यम से सेवाओं जैसे कंप्यूटर गेम्स, सॉफ्टवेयर, यातायात, अंतरिक्ष यात्रा आदि का वैश्विक बाजार विकसित हो। भारत को इस क्षेत्र में विशेष महारत हासिल है। ग्लोबल सर्विसेस पाथवे से हम बेल्ट रोड को बौना बनाने में सफल हो सकते हैं।

भारत की ओर से एक कदम यह भी उठाया जा सकता है कि वह बेल्ट रोड से जुड़े। जिस रोड से चीन अपने माल को यूरोप पहुंचाना चाहता है उसी रोड से वह भी अपने माल को यूरोप पहुंचाने का प्रयास करे। जैसे आज हम अमेरिका द्वारा बनाए गए इंटरनेट से अपने सॉफ्टवेयर को दुनिया में पहुंचा रहे हैं। यहां पीओके के भूगोल को समझने की जरूरत है। यह क्षेत्र पूरब में भारत, उत्तर में चीन, पश्चिम में अफगानिस्तान और दक्षिण में पाकिस्तान से जुड़ा हुआ है। यदि भारत को पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर से अफगानिस्तान तक पहुंचने के लिए एक गलियारा बनाने की अनुमति मिल जाए तो वह अफगानिस्तान के माध्यम से मध्य एशिया और यूरोपीय बाजार तक पहुंच सकता है।

हम चीन से वार्ता करकेउसे इसके लिए प्रेरित कर सकते हैं कि वह पाकिस्तान पर दबाव डाले कि भारत को पीओके के बीच से कश्मीर और अफगानिस्तान को जोड़ने के लिए गलियारा उपलब्ध कराए। यदि यह भी संभव न हो तो हम कश्मीर और तिब्बत के माध्यम से भी बेल्ट रोड से जुड़ सकते हैं जिससे हमारा माल किफायती दामों में यूरोप तक पहुंच सके और बेल्ट रोड का लाभ केवल चीन को मिलने के स्थान पर हमें भी मिले। एक अन्य कदम यह हो सकता है कि बेल्ट रोड बनाने के लिए चीन को बैंकों से ऋण लेने में हम अवरोध पैदा करें।

चीन तमाम वैश्विक बैंकों से ऋण ले रहा है। खबर है कि भारत, चीन एवं अन्य ब्रिक्स देशों द्वारा बनाया गया न्यू डेवलपमेंट बैंक भी चीन को बेल्ट रोड बनाने के लिए भारी रकम दे रहा है। यानी एक तरफ भारत की हिस्सेदारी वाला न्यू डेवलपमेंट बैंक बेल्ट रोड को ऋण देकर बढ़ावा दे रहा है तो दूसरी तरफ भारत पीओके के मुद्दे पर उसी बेल्ट रोड का विरोध कर रहा है। भारत को यदि बेल्ट रोड का विरोध ही करना है तो कम से कम न्यूडेवलपमेंट बैंक पर दबाव डाले कि वह बेल्ट रोड को ऋण न दे। मेरे आकलन में हमें बेल्ट रोड के सार्थक पक्ष को समझकर अपने देश की आय बढ़ाने को प्राथमिकता देनी चाहिए। जो विवाद 70 साल से हमारे और पाकिस्तान के बीच बना हुआ है उसके चलते बेल्ट रोड के जरिये अपनी जनता के जीवन स्तर को सुधारने का जो अवसर मिला है उसे गंवाना नहीं चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं)