सृजन पाल सिंह। इसमें कोई दो राय नहीं कि कोरोना वायरस की वजह से विश्व अर्थव्यवस्था में भारी मंदी आने वाली है। हालांकि आर्थिक मंदियां पहले भी आई हैं, लेकिन शायद इतिहास में ऐसा पहली बार होगा जब मंदी का कारण अर्थव्यवस्था या व्यापार नहीं, बल्कि मानव की तेजी से गिरती हुई उत्पादकता होगी। अभी तक के अनुमान यह कह रहे हैं कि कोरोना वायरस से विश्व अर्थव्यवस्था को 4 टिलियन डॉलर यानी तीन लाख अरब रुपये का नुकसान होगा जो विश्व जीडीपी का पांच फीसद के करीब बैठेगा।

भारत समेत पूरी दुनिया कोरोना वायरस के इलाज की खोज में लगी है। कोशिश है कि कोरोना वायरस से उपजी कोविड-19 महामारी की कोई करागर दवा मिल जाए या फिर वैक्सीन बना ली जाए। अभी यह कोशिश कामयाब होती नहीं दिखती। इस कोशिश के कामयाब होने तक कोरोना वायरस हमारी जीवन शैली और काम करने के तरीके को हमेशा के लिए बदल देगा। दुनिया भर में अर्थव्यवस्था को वर्चुअल तरीके से चलाना और फिजिकल डिस्टेंसिंग रखते हुए उद्योग और व्यवसाय को चालू रखने पर काम हो रहा है। ऐसे काल में भारत के पास अनेक ऐसे अवसर हैं जिससे हम एक बेहतर और टिकाऊ अर्थव्यवस्था बना सकें, जो भविष्य में हमें विकसित देशों के स्तर पर ले जाए।

भारत हर वर्ष लगभग दस लाख करोड़ रुपये का कच्चा तेल और गैस का आयात करता है। अनुमान है कि गिरते भाव और लॉकडाउन में कम मांग के चलते इस आयात में लगभग एक तिहाई की कटौती हो सकती है यानी 2020 में भारत के तेल बिल में 3.5 लाख करोड़ रुपये का कम खर्च होगा। तेल की कम खपत से प्रदूषण में भी कमी होगी। भारत में हर वर्ष 12 लाख लोगों की जान वायु प्रदूषण से जाती है। 

ग्रीन पीस के अनुसार वायु प्रदूषण से हर वर्ष लगभग 11 लाख करोड़ का नुकसान होता है। इसके अलावा डेढ़ लाख लोगों की जान सड़क पर होने वाली दुर्घटनाओं में जाती है। वर्क-फ्रॉम-होम के काल में इन सब आंकड़ों में कमी आएगी। यह सही समय है कि वर्क-फ्रॉम-होम को अधिकाधिक बढ़ावा दिया जाए। इससे कर्मचारियों के साथ ही संस्थानों, सरकार और समाज को भी लाभ मिलेगा। अर्थव्यवस्था के इस कठिन काल में हमारे पास एक अवसर है कि हम विदेशी तेल पर अपनी निर्भरता कम करके प्रदूषण से होने वाले नुकसान से सदा के लिए मुक्ति प्राप्त करें।

कोरोना वायरस से विश्व में नए प्रकार के उद्यम लगाने का अवसर लेकर आया है। जब तक यह वायरस हमारे आसपास रहेगा तब तक स्कूल, कॉलेज और ऑफिस-ये सब ऑनलाइन माध्यम पर निर्भर रहेंगे। ऐसे माध्यम बनाना भी एक बहुत बड़ा उद्यम है। जूम एप का उदाहरण ले लीजिए। कोरोना काल में इस एप का मूल्यांकन बहुत तेजी से बढ़ रहा है। लोगों को वीडियो से कनेक्ट करने वाले इस प्रोग्राम की शेयर मार्केट में वैल्यू भारत की सबसे बड़ी प्राइवेट एयरलाइंस इंडिगो से नौ गुना अधिक बताई जा रही है। ज़ूम एक अमेरिकी कंपनी है जिसे एक चीनी मूल के नागरिक ने 2011 में शुरू किया था। यहीं पर हमारा आíथक विवेक काम आना चाहिए।

कच्चे तेल के आयात बिल से आने वाली बचत को हमें ऐसे नव उद्यमियों में निवेश करना चाहिए जो कोरोना काल और उसके बाद विश्व में अपना परचम लहरा सकें। ये उद्यमी ऑनलाइन ऑफिस सेवा, स्वच्छ ऊर्जा और नए प्रकार के ईंधन बनाने का काम कर सकते हैं। पिछले दो दशकों से चीन ने अपने सस्ते श्रमिकों और निवेश के चलते अपने आप को दुनिया की फैक्ट्री बना लिया है, मगर कोरोना वायरस में चीन की संदिग्ध भूमिका के कारण पूरे विश्व में उसे संदेह की नजर से देखा जा रहा है।

यह सही वक्त है कि भारत विश्व में चीन के विकल्प के रूप में उभर कर सामने आए। चीन की नीतियों ने इसकी और अधिक आवश्यकता रेखांकित की है। आगामी विश्व सिर्फ सस्ते सामान बनाने वाले को नहीं, बल्कि निष्ठा और बुरे समय में काम आने वाले को महत्व देगा। भारत की संस्कृति उसके व्यापार को प्रतिष्ठा और लाभ देने वाली साबित हो सकती है। हमें भावी परिस्थितियों के हिसाब से अपनी अर्थव्यवस्था को परिवर्तित करना होगा। हम ऐसा करके 1990 के दशक में चीन से पिछड़ी हुई रेस में 2020 में आगे जा सकते हैं।

एक और आयाम पर हमें ध्यान देना है-ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में आíथक और सामाजिक बराबरी का। 1990 के दशक से भारत एक ऐसा देश बनता आ रहा है जहां पर पांच-छह शहरों पर सारी अर्थव्यवस्था टिकी हुई है। सेवा क्षेत्र को आधी अर्थव्यवस्था बनाने के बाद आज हमें यह ज्ञात हो रहा है कि कृषि की भूमिका कितनी अहम है। हमने न तो अर्थव्यवस्था के विकास को कृषि और उद्योग में बांटा और न ही इस विकास को हम छोटे शहरों और गांवों तक ले जा पाए। इसी का नतीजा है कि आज इतने सारे प्रवासी कामगार मुसीबत में हैं। आज हमारे पास अवसर है इस आíथक विषमता को दूर करने का।

कोरोना वायरस से अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए जो प्रयास हो रहे हैं उन्हें गांवों और छोटे शहरों में शुरू करने की आवश्यकता है। भारत के छह लाख गांवों को गांधी जी के स्वावलंबी और पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के पुरा मॉडल (यानी ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाएं उपलब्ध कराना) से होना चाहिए। यदि इस अवधारणा पर सही ढंग से काम हुआ होता तो शायद गांव के गरीबों द्वारा शहरों की ओर पलायन को थामने में एक बड़ी हद तक मदद मिलती और वैसे दृश्य नहीं नजर आते जैसे लॉकडाउन के दौरान नजर आए। कम से कम अब तो ऐसा भारत बनाने पर बल देना ही चाहिए जिससे गांव से किसी को गरीबी के कारण शहरों की तरफ न भागना पड़े।

इसमें दो राय नहीं कि अभी कोरोना वायरस से लड़ना जरूरी है, मगर अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाए रखना भी बेहद जरूरी विषय है। नहीं तो तीन दशक का विकास हम एक साल में खो सकते हैं। संकट के समय भारत के पास एक सुनहरा अवसर है दुनिया की अर्थव्यवस्था में अपना वह स्थान लेने का जो सैकड़ों साल पहले था। कोरोना वायरस पर जीत के साथ हम वह खोई हुई सोने की चिड़िया बन सकते हैं जिसकी चर्चा होती रही है।

(पूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम के सलाहकार रहे लेखक उनके नाम से संचालित सेंटर के सीईओ हैं)