जागरण संपादकीय: पड़ोसी देशों को साधने की चुनौती, आदर्श पड़ोस एक मिथ्या धारणा
वर्षों की राजनीतिक उथल-पुथल के बाद बांग्लादेश ने भारत को लेकर अपनी पसंद का दांव चला और नई दिल्ली ने इन अनुकूल समीकरणों को हरसंभव तरीके से भुनाने का काम किया। बांग्लादेश की राजनीति में बीते डेढ़ दशक तक शेख हसीना के दबदबे से पहले ढाका के साथ भारत के रिश्ते बड़े कठिन दौर में थे और नई दिल्ली में शायद ही उसे लेकर कोई आशा की किरण दिखती थी।
हर्ष वी. पंत। आदर्श पड़ोस एक मिथ्या धारणा है। दैनिक जीवन में भी अपने पड़ोसियों से तालमेल बिठाने के लिए हमें तरह-तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं। पड़ोसियों के अभाव में भी हम अपूर्ण अनुभव करते हैं और उनकी उपस्थिति में उनके साथ धींगामुश्ती में लगे रहते हैं। ऐसा इसीलिए, क्योंकि अक्सर कई मसलों पर उनके साथ मेल-मिलाप मुश्किल होता है। हम उनके साथ जश्न भी मनाते हैं और छोटे-मोटे मुद्दों को लेकर नियमित आधार पर तकरार भी करते हैं। कुल मिलाकर पड़ोसियों के साथ सामंजस्य एक कड़ी चुनौती और रोजमर्रा की मशक्कत है। इस स्थिति से पार पाने का कोई एक कारगर मंत्र नहीं है। इसके लिए हमें निरंतर काम करना पड़ता है, ताकि अपने मन की शांति सुनिश्चित की जा सके।
पड़ोसियों के मामले में जिन पेचीदगियों से आम लोग दो-चार होते हैं, वही स्थिति देशों के साथ भी होती है। कोई भी देश चाहे वह छोटा हो या फिर बड़ा, वह अपने पड़ोस को लेकर संघर्ष की स्थिति में ही दिखता है। इस मामले में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने यथार्थ ही कहा था, ‘आप अपने मित्र चुन सकते हो, लेकिन पड़ोसी नहीं।’ यही कारण है कि दुनिया के किसी भी कोने में आदर्श पड़ोसी जैसी न तो कोई स्थिति है और न ही कोई आदर्श पड़ोस नीति। इसमें और भी दिलचस्प पहलू यह है कि संबंध कई बार जितने अनुकूल दिखते हैं, उनकी मूल प्रकृति में उतने ही प्रतिकूल पहलुओं की मौजूदगी की आशंका बनी रहती है। भारत और उसका पड़ोस भी इस परिदृश्य से अलग नहीं।
जब भी भारत के किसी पड़ोसी देश में कुछ अप्रत्याशित घटता है तो कूटनीतिक-सामरिक हलकों में सवाल उठने लगते हैं कि आखिर इसकी कोई भनक क्यों नहीं लगी? मजे की बात यह है कि सवाल उठाने वाले स्वर मुख्य रूप से उन लोगों के होते हैं, जो अतीत में कूटनीतिक प्रतिष्ठान का हिस्सा रहे और उन्हें भी अपने उत्तराधिकारियों जितनी ही मिश्रित सफलता-असफलता हाथ लगी। हालांकि, वर्तमान की लानत-मलानत की प्रक्रिया में अतीत की बातों को विस्मृत कर दिया जाता है। समाधान के रूप में उन्हीं घिसे-पिटे सुझावों को सामने रखा जाता है, जिन्हें बीते सात दशकों के दौरान अलग-अलग तरीके से आजमाया जा चुका हो। इसका यह अर्थ नहीं कि आस-पड़ोस को लेकर भारत की नीतियां बिल्कुल माकूल हैं और उनके नीर-क्षीर विश्लेषण और समालोचना की आवश्यकता नहीं।
पड़ोस के संदर्भ में इस समय बांग्लादेश का मामला सबसे अधिक चर्चित है, क्योंकि बीते दिनों वहां सरकार को बेदखल किया गया। शेख हसीना सरकार के तख्तापलट के बाद से बांग्लादेश भारी उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है। इस प्रकरण ने पड़ोस को प्रभावित करने को लेकर नई दिल्ली की सीमाओं को फिर से उजागर करने का काम किया है। बांग्लादेश में इतने बड़े पैमाने पर करवट ले रहे परिवर्तन का आकलन करने को लेकर यह मामला जितना भारतीय नौकरशाही और खुफिया तंत्र में समझ के अभाव से जुड़ा है, उतना ही बांग्लादेशी तंत्र पर भी सटीक बैठता है। एक लंबे समय तक संबंधों में गतिरोध के बाद बीते 15 वर्ष भारत-बांग्लादेश संबंधों के दृष्टिकोण से मील के पत्थर कहे जा सकते हैं।
वर्षों की राजनीतिक उथल-पुथल के बाद बांग्लादेश ने भारत को लेकर अपनी पसंद का दांव चला और नई दिल्ली ने इन अनुकूल समीकरणों को हरसंभव तरीके से भुनाने का काम किया। बांग्लादेश की राजनीति में बीते डेढ़ दशक तक शेख हसीना के दबदबे से पहले ढाका के साथ भारत के रिश्ते बड़े कठिन दौर में थे और नई दिल्ली में शायद ही उसे लेकर कोई आशा की किरण दिखती थी। वहां एक बार फिर भारत विरोधी भावनाओं का ज्वार उठ रहा है। इस तथ्य को भी ओझल नहीं किया जा सकता कि पूर्व में बीएनपी सरकार के दौरान भारत-विरोधी रैलियों का आयोजन कितना आम हो गया था। इसी प्रकार मालदीव में इब्राहिम सोलिह के कार्यकाल के दौरान मिली सफलता पर मोहम्मद मुइज्जू के सत्ता में आने के स्तर पर मिली विफलता कहीं ज्यादा हावी दिखती है। इस बीच हमें यह भी याद रखना होगा कि महान राष्ट्र अपनी आधार भूमि पर मजबूती से टिके रहने के बावजूद उसकी परिधि से बाहर निकलकर कुछ गलतियों को नहीं दोहराते।
पड़ोसी देशों के लिहाज से भारत की स्थिति हमेशा मुश्किल रही है और ऐसा नहीं कहा जा सकता कि अपने आस-पड़ोस में भारत के वर्चस्व का कोई स्वर्णिम दौर भी रहा है। स्वतंत्रता के समय से ही जहां भारत के पड़ोसियों ने उसके कद के लिहाज से संतुलन बनाने का प्रयास किया, वहीं पाकिस्तान ने तो हमेशा खुद को भारत के बराबर प्रस्तुत करने के हरसंभव जतन किए। तमाम पड़ोसी देश समय-समय पर अन्य देशों के साथ संबंधों की पींगें बढ़ाकर भारत के साथ रिश्तों की दशा-दिशा तय करते रहे। भारत के बगल में चीन का उभार यही दर्शाता है कि उसके आर्थिक उभार के साथ ही भारत के पड़ोसियों की बीजिंग से गलबहियां उसी हिसाब से बढ़ती गईं।
भारत के पड़ोसियों की नियति मुख्य रूप से भारत द्वारा निर्धारित की जाएगी! हमारा यह आकलन जितना गलत है, उतना ही यह भी कि भारत की नियति को उसके पड़ोसी निर्धारित करेंगे। एक चुनौतीपूर्ण पड़ोस के बावजूद भारत के अंतरराष्ट्रीय कद और रसूख में निरंतर वृद्धि ही हुई है। भारत के उदय के समानांतर ही उसके कई पड़ोसी देश आर्थिक उतार-चढ़ाव से जूझते रहे। पड़ोस से जुड़ी भारत की नीति की आलोचना करते हुए हमें इन देशों की वस्तुस्थिति का भी संज्ञान लेना होगा। इसमें नई दिल्ली के प्रयास निश्चित रूप से एक पहलू हैं, लेकिन केवल यही एक पहलू सफलता को निर्धारित नहीं करेगा। तार्किक नीति यही कहती है कि भारत को अपने पड़ोस में निरंतर निवेश करते रहना चाहिए और साथ ही वह जागरूकता का यह भाव भी बढ़ाए कि इस निवेश का परिणाम उसके पड़ोसियों के हाथ में ही है। यदि अतीत के हिसाब से देखें तो ऐसे किसी निवेश पर बड़े प्रतिफल के आसार नहीं लगते। इसलिए, भारत की सफलता इसी पर निर्भर करेगी कि वह अपनी भौगोलिक परिधि के पहलू को किनारे रखकर एक प्रमुख वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित होने के पुरजोर प्रयास करे।
(लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में उपाध्यक्ष हैं)