सी उदयभास्कर। बीते दिनों सिखों के पवित्र धर्मस्थल करतारपुर साहिब को दोनों देशों से जोड़ने वाले करीब छह किमी लंबे गलियारे की आधारशिला रखी गई-पहले भारत में, फिर पाकिस्तान में। भारत के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने भारतीय क्षेत्र में 26 नवंबर को इस गलियारे का शिलान्यास किया। उस दौरान उन्होंने कहा कि ‘यह गलियारा दोनों देशों के बीच प्रेम और शांति का प्रतीक बनेगा।’

हालांकि उपराष्ट्रपति के साथ मौके पर मौजूद पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पाकिस्तान को आतंकवाद फैलाने के लिए फटकार लगाई, लेकिन कुल मिलाकर वहां माहौल सकारात्मक ही दिखा। इसके बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने करतारपुर साहिब में गलियारे की आधारशिला को लेकर एक बड़ा आयोजन कर डाला।

समारोह को संबोधित करते हुए अपने खास अंदाज में उन्होंने कहा कि ‘अतीत में कई युद्ध लड़ चुके फ्रांस और जर्मनी यदि शांति से मिलजुल कर रह सकते हैं तो फिर भारत और पाकिस्तान ऐसा क्यों नहीं कर सकते?’ इसके पूर्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी करतारपुर गलियारे के संबंध में किए गए प्रयास की प्रशंसा करने के साथ ही इसकी तुलना बर्लिन की दीवार गिरने से की, जिसने एक अलग तरह से आशा का संचार किया।

जब दिल्ली और इस्लामाबाद ने गुरुनानक देव की 550वीं जयंती पर करतारपुर गलियारा खोलने का एक के बाद एक एलान किया तो यह संभावना व्यक्त की गई कि दोनों देश के बीच परदे के पीछे संबंध सुधार को लेकर कुछ बातचीत हो रही है और यह धार्मिक कूटनीति लंबे समय से ठप पड़ी द्विपक्षीय वार्ता के लिए राजनीतिक संवाद का मार्ग प्रशस्त करेगी।

हालांकि पंजाब के गुरदासपुर में इस गलियारे की आधारशिला रखने के लिए 26 नवंबर की जो तारीख तय की गई उस दिन नवंबर 2008 में हुए मुंबई हमले की दसवीं बरसी भी थी। स्वाभाविक रूप से सवाल उठा कि आखिर दिल्ली ने यही तिथि क्यों तय की? क्या भारत की इस नीति में कोई बदलाव आया है कि आतंकवाद और वार्ता साथ-साथ नहीं चल सकते? इसे लेकर भी अटकलबाजी शुरू हो गई कि भारत पाकिस्तान में होने वाले सार्क सम्मेलन में शिरकत कर सकता है, लेकिन कुछ ही घंटों में हकीकत खुलकर सामने आ गई और कई प्रतिकूल बयान एवं परिस्थितियां सामने आ गईं।

सबसे पहले विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा कि वह पाकिस्तान में आयोजित समारोह में हिस्सा लेने नहीं जाएंगी। पंजाब के मुख्यमंत्री ने भी पाकिस्तान के न्योते को ठुकरा दिया। अपने बयान में अमरिंदर सिंह ने कहा कि पाकिस्तान और उसकी खुफिया एजेंसी आइएसआइ भारत में आतंकवाद और अलगाववाद फैला रहे हैं। उन्होंने पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल बाजवा को भारत को उकसाने से बाज आने की चेतावनी भी दी। फिर  सुषमा स्वराज ने यह भी स्पष्ट किया कि ‘आतंकवाद और वार्ता’ साथ-साथ नहीं चल सकती।

यद्यपि सिख समुदाय की भावनाओं का सम्मान करते हुए मोदी सरकार ने दो केंद्रीय मंत्रियों हरसिमरत कौर बादल और हरदीप सिंह पुरी को इस संदेश के साथ पाकिस्तान भेजा कि करतारपुर गलियारा सिर्फ एक धार्मिक कार्यक्रम है और इसे दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों आई किसी तरह की गतिशीलता से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। इसके बावजूद मोदी सरकार की पाकिस्तान और आतंकवाद संबंधी नीति भ्रम का शिकार ही नजर आई।

पाकिस्तान जाने को लेकर पंजाब सरकार में कांग्रेस पार्टी के भीतर का मतभेद भी सामने आया, क्योंकि मना करने के बाद भी पंजाब सरकार में मंत्री और क्रिकेटर से नेता बने नवजोत सिंह सिद्धू करतारपुर में आयोजित सम्मेलन में शामिल हुए और भारतीय चेहरा बनकर उभरे। दरअसल सिद्धू ही अगस्त में इमरान के शपथ ग्रहण समारोह में जाकर करतारपुर गलियारे को चर्चा के केंद्र में लाए थे। यह साफ था कि अमरिंदर सिंह उनके पाकिस्तान जाने से खुश नहीं थे, लेकिन करतारपुर को लेकर राज्य के राजनीतिक हालात को देखते हुए वह ज्यादा कुछ नहीं बोले।

करतारपुर में भारत का प्रतिनिधित्व विभाजित और भ्रमित ही नहीं दिखा, वहां खालिस्तान समर्थक गोपाल सिंह चावला की मौजूदगी भी भारत को आहत करने वाली रही। सिद्धू के साथ आई उसकी तस्वीर ने भी विवाद पैदा किया। इमरान द्वारा अपने भाषण में कश्मीर के जिक्र की भारतीय विदेश विभाग ने कड़ी आलोचना की। इसी के साथ करतारपुर गलियारे की घोषणा के बाद रिश्तों में बेहतरी आने की उम्मीद कुछ ही देर में धूमिल हो गई।

भारत से गए पत्रकारों से संवाद करते समय इमरान ने ठप पड़ी द्विपक्षीय वार्ता को नए सिरे से आरंभ करने का आग्रह किया। हालांकि आतंकवाद, 26/11 और हाफिज सईद संबंधी सवालों का उन्होंने गोलमोल जवाब दिया और मुख्य विषय राज्य प्रायोजित आतंकवाद पर एक शब्द भी नहीं कहा। उन्होंने इस्लामाबाद के इस घिसे-पिटे रुख को ही सामने रखा कि पाकिस्तान न तो आतंकियों का समर्थन करता है और न ही उन्हें पनाह देता है। इस रुख को अफगानिस्तान और भारत, दोनों सिरे से नकार चुके हैं। इमरान ने यह भी कहा कि 26/11 का मामला पाकिस्तान की अदालत में है और उनकी सरकार हाफिज सईद और उसके समूह पर शिकंजा कस रही है।

इमरान का आतंकवाद के प्रति विरोधाभासी रुख तभी सामने आ गया था जब उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ यानी पीटीआई 2013 के चुनाव के बाद पख्तुनख्वा प्रांत में सत्ता में आई थी और पेशावर आतंकी हमलों से दहल उठा था। उस वक्त आतंकी समूहों के खिलाफ कड़ा कदम उठाने के बजाय पीटीआइ के नेता के तौर पर उन्होंने उनसे बातचीत का ही आग्रह किया।

प्रधानमंत्री के रूप में सौ दिन पूरे होने के बाद उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की इस चेतावनी को भी नजरअंदाज किया कि इस्लामाबाद आतंकी समूहों को समर्थन दे रहा है। इससे भी बड़ी विडंबना देखिए कि 26 नवंबर को 26/11 की 10वीं बरसी पर उत्तरी वजीरिस्तान में एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि ‘हमने एक थोपी गई लड़ाई लड़ी है और इसकी भारी कीमत भी चुकाई है। हमें फिर से पाकिस्तान के अंदर ऐसा युद्ध नहीं लड़ना।’ जाहिर है उनके मन में यह धारणा है कि पाकिस्तान ‘थोपे गए युद्ध’ का शिकार है। वह इस तथ्य से आंखें मूंदे हुए हैं कि किस तरह पाकिस्तान की सेना आतंकवाद को पाल-पोस रही है।

उसने पाकिस्तान में इस तरह का माहौल खड़ा किया है जो आतंकवाद के पनपने के लिए मुफीद है। साफ है कि जब तक इमरान खान अपनी यह खोखली धारणा नहीं बदलेंगे और अपनी सेना की कारस्तानियों को स्वीकार नहीं करेंगे तब तक भारत के साथ द्विपक्षीय वार्ता को पटरी पर लाने की उनकी बात का कोई मतलब नहीं है। तब तक करतारपुर गलियारा भी दोनों देशों के संबंधों में नया आयाम नहीं जोड़ सकेगा। यह भी जाहिर है कि तब तक ‘बर्लिन की दीवार’ गिरने जैसे हालात भी नहीं बनने वाले।

(लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ एवं सोसायटी फॅार पॉलिसी स्टडीज के निदेशक हैं)