[ विवेक कौल ]: दुनिया की दिग्गज कंपनी एपल और उसके उत्पाद किसी परिचय के मोहताज नहीं। एपल आइफोन सबसे प्रीमियम स्मार्टफोन माना जाता है। चूंकि एपल अमेरिकी कंपनी है तो अधिकांश लोग आइफोन को भी अमेरिकी उत्पाद ही मानते हैं जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं। इस सिलसिले में फिलिप कॉगन अपनी नई किताब ‘मोर: द 10,000 ईयर राइज ऑफ द वल्र्ड इकोनॉमी’ में इस पहलू से पर्दा उठाते हैं।

आइफोन की असेंबलिंग चीन में होती है

इस किताब के अनुसार आइफोन का डिस्प्ले जापान और दक्षिण कोरिया में, सेंसर्स ताइवान में और कई अन्य कलपुर्जे जर्मनी, फ्रांस, इटली और नीदरलैंड में बनते हैं। इन पुर्जों को बनाने में कच्चा माल अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका से आता है। इन सभी को इकट्ठा कर आइफोन की असेंबलिंग चीन में होती है। इतना कुछ होने के बावजूद आइफोन को व्यापक रूप से अमेरिकी उत्पाद ही माना जाता है।

चीन की चमत्कारिक सफलता की कहानी आइफोन

आप शायद इस बात पर अचंभित हों कि हम एकाएक आइफोन की बात क्यों कर रहे हैं? ऐसा इसलिए, क्योंकि चीन की चमत्कारिक सफलता की कहानी आइफोन जैसे उत्पादों की असेंबलिंग से ही जुड़ी है। चलिए इसे समझने की कोशिश करते हैं।

चीन में तकरीबन 5.483 करोड़ आइपॉड असेंबल हुए

हालिया प्रकाशित आर्थिक समीक्षा में एपल आइपॉड की चर्चा है। आइफोन के माफिक आइपॉड के पुर्जे भी दुनिया के अलग-अलग कोनों से चीन पहुंचते थे। वर्ष 2008 में एक आइपॉड की फैक्ट्री गेट कीमत 144 डॉलर थी, लेकिन इसमें से केवल चार डॉलर ही चीनी वैल्यू एडिशन में शामिल होते। यह इस कीमत का महज तीन प्रतिशत हिस्सा था। हालांकि इससे यह निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होगा कि आइपॉड असेंबलिंग से चीन को कोई फायदा नहीं हो रहा था। अगर कुल आंकड़ों को देखें तो चीन में तकरीबन 5.483 करोड़ आइपॉड असेंबल हुए जिससे उसे 21.9 करोड़ डॉलर का वैल्यू एडिशन मिला।

एक आइफोन असेंबलिंग में चीन को 8.46 डॉलर मिलते हैं

कमोबेश यही स्थिति आइफोन के मामले में है। एक आइफोन असेंबलिंग में चीन को 8.46 डॉलर ही मिलते हैं जो कुल लागत का केवल 3.6 प्रतिशत है। यह देखने में भले ही कम लगे, लेकिन 2018 में दुनिया भर में बिके कुल 21.8 करोड़ आइफोन की बिक्री से चीन को मिले फायदे का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।

आइफोन या आइपॉड के निर्यात से चीन ने भारी कमाई की और लाखों लोगों को रोजगार मिला

बहरहाल आइफोन या आइपॉड तो महज दो मिसाल हैं। वास्तव में चीन ऐसे हजारों उत्पादों की असेंबलिंग का गढ़ बना हुआ है। इनके निर्यात से जहां चीन ने भारी कमाई की तो अपने लाखों-करोड़ों लोगों के लिए रोजगार के अवसर भी सृजित किए। आखिर हम इन पहलुओं की चर्चा क्यों कर रहे हैं? असल में इस सवाल का जवाब वर्ष 2013 की वल्र्ड ट्रेड रिपोर्ट में छिपा है।

भारत को नेटवर्क वाले उत्पादों के विनिर्माण की आवश्यकता है

इस रिपोर्ट के अनुसार दो-तिहाई से अधिक विश्व व्यापार अब बहुराष्ट्रीय कंपनियों और उसके आपूर्तिकर्ताओं के बीच होता है। इसे देखते हुए यदि भारत भी इस मोर्चे पर बढ़त बनाना चाहता है तो उसे इस वैश्विक आपूर्ति शृंखला का हिस्सा बनना ही पड़ेगा। अच्छी बात यही है कि अब सरकार भी इसकी जरूरत समझकर इस दिशा में कदम बढ़ाने के संकेत दे रही है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट भाषण में कहा भी कि ‘भारत को नेटवर्क वाले उत्पादों के विनिर्माण की आवश्यकता है। इससे भारत ग्लोबल वैल्यू चेन का हिस्सा बन जाएगा। परिणामस्वरूप अधिक निवेश होगा और फलत: रोजगार के अवसर भी अधिक सृजित होंगे।’

भारत ने 2017 में 880 करोड़ डॉलर मूल्य की कारों का बड़े पैमाने पर निर्यात किया

जहां तक भारत की बात है तो कारों का निर्यात उसके लिए एक बड़ी कामयाबी रही है। देश में तैयार की गई कारों का बड़े पैमाने पर निर्यात किया गया और धीरे-धीरे देश वैल्यू चेन के मोर्चे पर आगे बढ़ता गया। यही बात आर्थिक समीक्षा में भी लिखी गई है। इसके अनुसार वर्ष 2001 में जहां भारत से 22.5 करोड़ डॉलर मूल्य की जो कारें निर्यात की गई थीं, वह आंकड़ा वर्ष 2017 में बढ़कर 880 करोड़ डॉलर हो गया। इसी अवधि में कार के कलपुर्जों का निर्यात भी 40.8 करोड़ डॉलर से बढ़कर 550 करोड़ डॉलर हो गया। इससे एक बड़ी सीख यह मिलती है कि घरेलू कंपनियां पहले निम्न प्रौद्योगिकी से शुरुआत करके वैल्यू चेन को आगे बढ़ाती हैं। इसमें कारों की असेंर्बंलग से आरंभ करके धीरे-धीरे अन्य घटकों के निर्माण की ओर बढ़ती हैं।

देश दोबारा आयात प्रतिस्थापन की ओर अग्रसर

सरकार अब यही चाहती है कि ऐसे अन्य उत्पादों का निर्यात बढ़ाया जाए। इसी सिलसिले में सीतारमण ने बजट में मोबाइल फोन, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण और सेमीकंडक्टर निर्माण को प्रोत्साहन देने वाली एक योजना का एलान किया। हालांकि अभी इस योजना का खाका तैयार नहीं हुआ, लेकिन यह निश्चित ही अच्छी पहल है। हालांकि ऐसी कोई योजना दस-पंद्रह साल पहले ही आ जानी चाहिए थी। इस बीच सबसे बड़ी परेशानी यही है कि जहां भारत अपना निर्यात बढ़ाना चाहता है वहीं संरक्षणवादी नीतियां भी अपना रहा है। पिछली सदी के आखिरी दशक से ही सरकारें सीमा शुल्क घटाती आ रही थीं, लेकिन अब इस नीति में बदलाव आ रहा है। इसी का नतीजा है कि देश दोबारा आयात प्रतिस्थापन की ओर अग्रसर है। बजट में सरकार ने 37 वस्तुओं पर सीमा शुल्क बढ़ाया। इसके अतिरिक्त 10 अन्य वस्तुओं पर सीमा शुल्क लगाया भी गया है।

रुख बदलते हुए निर्यात पर ध्यान केंद्रित किया

वर्ष 1991 से पहले भारत आयात प्रतिस्थापन की नीति पर चलता रहा। तब दक्षिण पूर्व एशियाई देशों की भी यही रणनीति थी, लेकिन उन्होंने यह रुख बदलते हुए निर्यात पर ध्यान केंद्रित किया जिसका उन्हें लाभ भी मिला। वहीं भारत अपनी इस नीति का लगातार खामियाजा भुगतता रहा और 1991 से पहले की आर्थिक विकास दर इसका जीता-जागता सुबूत थी जो अमूमन चार प्रतिशत से कम रहती थी।

जब वैश्विक बाजार के लिए उत्पादन होता है तो उनका मुकाबला सर्वश्रेष्ठ कंपनियों से होता है

बात सीधी है। जब कंपनियां वैश्विक बाजार के लिए उत्पादन करती हैं तो उनका मुकाबला सर्वश्रेष्ठ कंपनियों से होता है। इसमें जीतकर ही वे वैश्विक बाजारों में सफल हो पाती हैं। यदि भारतीय कंपनियों को वैश्विक वैल्यू चेन का हिस्सा बनना है तो उन्हें विश्वस्तरीय प्रतिस्पर्धा क्षमताएं हासिल करनी होंगी। ऐसे में सरकार की सीमा शुल्क बढ़ाने वाली नीति विरोधाभासी होगी, क्योंकि इससे कंपनियां घरेलू बाजार के लिए उत्पादन पर जोर देंगी। तब वे विदेशी कंपनियों के साथ कैसे मुकाबला कर पाएंगी। वैश्विक वैल्यू चेन का हिस्सा बनने की उनकी कवायद भी अधूरी रह जाएगी। ऐसे में या तो सरकार अधिक संरक्षणवादी बन सकती है या फिर निर्यात को बढ़ावा दे सकती है। यह दोनों काम एक साथ नहीं हो सकते। यह समझना बहुत जरूरी है।

( लेखक अर्थशास्त्री हैं )