शिवकांत शर्मा। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने पिछले साल रूसी अस्मिता पर एक लेख लिखा था, जिसमें रूसी और यूक्रेनी लोगों की एकता के सदियों पुराने इतिहास की याद दिलाई गई थी। यह लेख यूक्रेन को लेकर चल रहे अमेरिका और रूस के टकराव की पृष्ठभूमि को समझने में मदद करता है। यूक्रेन के यूरोपीय संघ और नाटो का सदस्य बन जाने की आशंका पुतिन के लिए सुरक्षा से ज्यादा उनकी आन का विषय बन चुका है। वह पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया के पूर्व सोवियत देशों को रूसी प्रभाव क्षेत्र के रूप में देखते हैं और उनके यूरोपीय संघ या नाटो जैसे शत्रु संगठन के पाले में जाना उन्हें बर्दाश्त नहीं। इसीलिए कजाखस्तान में विद्रोह भड़कते ही उन्होंने सरकार की सुरक्षा में अपने टैंक उतार दिए थे। पुतिन जानते हैं कि इतिहास के पहिये को उलटा नहीं घुमाया जा सकता। इसलिए वह एक नया इतिहास बनाना चाहते हैं। वह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि पूर्व सोवियत देशों में उनकी बात मानने वाली सरकारें रहें।

रूस को खटकता अमेरिकी वर्चस्व

सोवियत संघ के पतन के बाद अमेरिका का एकछत्र वर्चस्व उन्हें गवारा नहीं। वह जानते हैं कि रूस के पास अमेरिका जैसी आर्थिक और सामरिक शक्ति नहीं है। फिर भी वह ऐसे बहुध्रुवीय विश्वक्रम की स्थापना कराना चाहते हैं, जिसमें अमेरिकी दबदबे के बजाय एक से अधिक देशों का वर्चस्व हो। चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग इस विचार पर पुतिन के साथ हैं। अमेरिका और उसके यूरोपीय साथियों संग बढ़ते टकराव ने चीन और रूस को एक-दूसरे के करीब पहुंचा दिया है। दोनों चाहते हैं कि अमेरिका पश्चिमी एशिया और प्रशांत क्षेत्र में दखल न दे और अंध महासागर एवं भूमध्य सागर तक सीमित रहे। पुतिन को लगता है कि पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया रूसी लोगों का परंपरागत प्रभाव क्षेत्र है। इसलिए यहां रूसी वर्चस्व रहना चाहिए। यूरोपीय संघ और नाटो के अलावा अमेरिकी लोकतंत्र और मानवाधिकारों की विचारधारा को वह रूसी अस्तित्व के लिए खतरा समझते हैं। वास्तव में पुतिन को खतरा नाटो और अमेरिका से यूक्रेन को मिल रहे हथियारों से नहीं है। उन्हें असल खतरा यूक्रेन के लोकतंत्र और मुक्त बाजार व्यवस्था से होने वाले आर्थिक विकास की संभावना से है।

सैद्धांतिक तौर पर भारत भी अमेरिकी और यूरोपीय वर्चस्व को रोकने का हिमायती है, लेकिन चिनफिंग और पुतिन के जो तर्क हैं वे भारत जैसे बहुदलीय लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ हैं। रूस भारत के सबसे बड़े सामरिक साझेदारों में से एक है और चीन सबसे बड़ा सामरिक खतरा। अमेरिका और यूरोप भारत के सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार हैं। इसलिए अमेरिका के खिलाफ रूस और चीन की निकटता का बढऩा भारत के लिए सामरिक, कूटनीतिक और आर्थिक सिरदर्द का सबब बन सकता है।

पहेली बनी पुतिन की रणनीति

पुतिन की रणनीति का अनुमान लगाना आसान नहीं। उन्होंने यूक्रेन सीमा पर एक लाख से ज्यादा सैनिक तैनात कर रखे हैं। रूसी सेना बेलारूस में अभ्यास भी कर रही है, जो यूक्रेन की राजधानी कीव से करीब सौ किमी ही दूर है। यूक्रेन की रक्षा के लिए अमेरिका और नाटो भी मोर्चा मजबूत कर रहे हैं, लेकिन सीमा पर तैनात रूसी सेना यूक्रेन की सेना से पांच गुने से भी अधिक है। सवाल यह है कि क्या पुतिन क्रीमिया की तरह यूक्रेन पर कब्जा करना चाहते हैं या केवल अमेरिका और यूरोप से बंदूक की नोक पर कुछ रियायतें लेने की चाल चल रहे हैं? यदि वह नहीं चाहते कि रूस की सीमाएं नाटो सदस्य देशों से घिरें तो पूरे यूक्रेन पर कब्जे का कोई तुक नहीं, क्योंकि यूक्रेन की पश्चिमी सीमाएं पोलैंड, स्लोवाकिया, हंगरी और रोमानिया जैसे देशों से घिरी हैं, जो यूरोपीय संघ और नाटो के सदस्य हैं। यदि पुतिन पूरे यूक्रेन को हड़पने में कामयाब हो जाएं तो भी वह उनके लिए कांटों भरा ताज साबित होगा, क्योंकि एक तो वह नाटो देशों से घिरा रहेगा। दूसरे वहां की केवल एक तिहाई जनता ही रूसी बोलती है, जो रूस के समर्थन में आ सकती है। यूक्रेनी भाषा बोलने वाले शेष दो तिहाई से ज्यादा लोग प्रखर राष्ट्रवादी हैं। वे 1932-33 के अकाल और शोषण को भूले नहीं हैं, जिसमें लगभग 35 लाख लोग मारे गए थे। यूरोप का धान कटोरा माने जाने वाले यूक्रेन की खेती को स्तालिन की नीतियों ने चौपट कर डाला था। भुखमरी का ऐसा आलम था कि लोग अपनी जान बचाने के लिए नरभक्षी बनने पर विवश हो गए थे। वे गृहयुद्ध और हिटलर की नाजी सेनाओं से हुए महायुद्ध को भी नहीं भूले हैं, जिनमें करीब 50 लाख से अधिक लोग मारे गए थे।

पुतिन की असली चाल यूक्रेन में बेलारूस जैसी कठपुतली सरकार को सत्ता में लाने की लगती है। इसके लिए उन्हें यूक्रेन के पूर्वोत्तर में स्थितरूसी भाषी डानबास को हड़पना भी पड़ा तो वह नहीं हिचकिचाएंगे। 2008 में जार्जिया में भी वह ऐसा ही खेल खेल चुके हैं। उन्होंने जार्जिया के दक्षिणी ओसेतिया और अबखाजिया प्रांतों में विद्रोह कराकर उन्हें जार्जिया से अलग करवा लिया था। यूक्रेन के डानबास में भी यही दोहराया जा सकता है या फिर उसे यूक्रेन की पश्चिमपरस्त सरकारों को गिराने का अखाड़ा बनाया जा सकता है।

भारत के लिए बढ़ेगी दुविधा

यदि रूस यूक्रेन में हस्तक्षेप करता है तो उसे भारत से कूटनीतिक समर्थन नहीं तो कम से कम तटस्थ रहने की अपेक्षा जरूर होगी। उधर अमेरिका और यूरोप से रूस-विरोधी प्रतिबंधों और निंदा प्रस्तावों में शामिल होने का दबाव पड़ेगा। यूक्रेन में रूसी हस्तक्षेप से मची अफरातफरी का फायदा उठाकर चीन ताइवान पर हमला करने या फिर भारतीय सीमा में घुसपैठ का प्रयास भी कर सकता है। यह भी संभव है कि चिनफिंग अमेरिका, नाटो और रूस के बीच सुलह कराने के लिए पंच बन बैठें और चीन की घेराबंदी कराने के भारत के मंसूबे धरे रह जाएं। इस सबके बीच भारत को तेल के दामों में आसन्न उछाल, यूरोपीय देशों के साथ सामरिक और व्यापारिक रिश्तों, अमेरिका और रूस, दोनों के साथ रिश्ते कायम रखने और यूक्रेन में अपने हितों की रक्षा करने जैसी चुनौतियों से भी निपटना पड़ेगा। स्पष्ट है कि अमेरिका, चीन और रूस के बीच चल रही वर्चस्व की लड़ाई में भारत को अपना वर्चस्व क्षेत्र बनाने और उसे फैलाने के बारे में भी सोचना होगा।

(लेखक बीबीसी हिंदी सेवा के पूर्व संपादक हैं)