[विवेक काटजू]। अमरजीत सिंह दुलत 1999 से 2000 के दौरान भारत की खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग यानी रॉ के प्रमुख रह चुके हैं। इसी तरह लेफ्टिनेंट जनरल असद दुर्रानी भी 1990-91 के दौरान पाकिस्तान की शीर्ष खुफिया एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस यानी आइएसआइ के मुखिया रह चुके हैं। 2016 और 2017 में दोनों भारत-पाकिस्तान संबंधों के विभिन्न पहलुओं पर बातचीत के लिए मिले। जम्मू-कश्मीर का मसला भी इसमें शामिल था। एक भारतीय पत्रकार ने बातचीत के ब्योरे को किताब की शक्ल दी जो ‘द स्पाइ क्रॉनिकल्स: रॉ, आइएसआइ एंड द इल्युजन ऑफ पीस’ नाम से प्रकाशित भी हो चुकी है।

इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि सेवाकाल खत्म होने के बाद इन दोनों खुफिया एजेंसियों के प्रमुखों ने साथ मिलकर कोई ऐसा काम किया है। जाहिर है यह काम चर्चा के केंद्र में आना ही था। हालांकि दुलत और दुर्रानी ने कोई बड़ा खुफिया राज उजागर नहीं किया है, फिर भी तमाम मसलों, आयोजनों, नीतियों और लोगों पर बेधड़क टिप्पणियां की हैं और कुछ मौकों पर आलोचना करने से भी पीछे नहीं रहे हैं। इनमें से कुछ वाकये उनके सेवाकाल से जुड़े हैं, लेकिन अधिकांश का ताल्लुक उनकी सेवानिवृत्ति के बाद से है। दो पूर्व खुफिया अफसरों की राय जानना खासा दिलचस्प है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि मौजूदा सरकारों की नीतियां भी उसी ढर्रे पर चल रही हैं। चूंकि इस किताब में जो टीका-टिप्पणियां की गई हैं उनके पक्ष में ठोस  साक्ष्य भी नहीं दिए गए हैं इसलिए उन्हें बहुत गंभीरता से नहीं लिया जा सकता।

दुलत पाकिस्तान के साथ वार्ता के बड़े हिमायती रहे हैं। वह मोदी सरकार की पाकिस्तान नीति के भी आलोचक हैं। उनका मानना है कि मौजूदा सरकार ने कश्मीर के हालात को ठीक से नहीं संभाला और इससे पाकिस्तान को कश्मीर में पैर पसारने की गुंजाइश मिल गई, लेकिन यह सही नहीं है, क्योंकि पाकिस्तान हमेशा से वहां दखल देता आया है। पिछले महीने दिल्ली में इस किताब के लोकार्पण का अवसर भी सरकार की नीतियों की आलोचना का मंच बन गया, जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी जैसी शख्सियतों ने शिरकत की थी। असद दुर्रानी के साथ दुलत की मुलाकात पर भारत में किसी ने कोई आपत्ति नहीं जताई। सेवानिवृत्त अधिकारी या राजनीतिक बिरादरी के लोगों द्वारा अपने पाकिस्तानी समकक्षों से मेल- मुलाकात करने पर एक लोकतांत्रिक देश होने के नाते भारत में किसी को कोई एतराज नहीं।

बस उनसे यही अपेक्षा की जाती है कि वे कोई आधिकारिक गोपनीय सूचना लीक न करें। किसी के विचारों पर आपत्ति नहीं जताई जा सकती, भले ही वे गलत ही क्यों न हों। इसके उलट पाकिस्तान में इस किताब पर बहुत तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली। पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने कहा कि अगर किसी नेता ने किसी भारतीय के साथ मिलकर ऐसी किताब लिखी होती तो उसे अदालत में घसीट लिया जाता। पाकिस्तानी मीडिया ने भी संवेदनशील मसलों पर टिप्पणी के लिए दुर्रानी की कड़ी भर्त्सना की। वहां की सेना खास तौर से दुर्रानी के उन विचारों पर कुपित है जिसमें उन्होंने सुझाया कि पाकिस्तान को कुलभूषण जाधव मसले को शांतिपूर्वक ढंग से सुलझाना चाहिए था। किताब में दुर्रानी के हवाले से यह भी कहा गया है कि पाकिस्तान जानता था कि अमेरिका ओसामा बिन लादेन के खिलाफ कार्रवाई करेगा, फिर भी उसे मार गिराने की गुंजाइश दी गई। दुर्रानी के खिलाफ सेना नेजांच शुरू कर दी है। कहा जा रहा है कि उन्हें हिदायत दी गई कि उन्हें कुछ मसलों पर राय नहीं रखनी चाहिए थी।

भारत में कई सेवानिवृत्त अधिकारी किताबें लिखते हैं जो अमूमन उनके कार्यकाल पर ही केंद्रित होती हैं। हालांकि सरकारी गोपनीयता कानून केअनुसार अधिकारियों को गोपनीय बातों का खुलासा नहीं करना चाहिए। यह शर्त सेवानिवृत्ति के बाद भी लागू होती है। सामान्य शिष्टाचार का भी तकाजा है कि अधिकारियों को गोपनीयता बरतनी चाहिए। कई बार अधिकारी अपनी किताबों में सरकार की गुप्त बैठकों का कुछ ब्योरा भी देते हैं। एक सेवानिवृत्त विदेश सचिव द्वारा कुछ वर्ष पहले लिखी एक किताब में सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति यानी सीसीएस की एक बैठक में सियाचिन पर भारत के रुख पर चर्चा का जिक्र किया गया था। उस किताब को तारीफ मिली कि उसके माध्यम से हमें भारत की विदेश नीति से जुड़े तमाम मुद्दों की गहराई से जानकारी मिली। हालांकि किसी ने भी इस ओर संकेत नहीं किया कि सीसीएस देश में सुरक्षा संबंधी नीति निर्धारण की सर्वोच्च इकाई है और जब तक उसके दस्तावेज आधिकारिक रूप से सार्वजनिक न किए जाएं तब तक उन पर कोई टीका-टिप्पणी न हो। इस मुद्दे पर सार्वजनिक चर्चा की दरकार है। इस पर सरकार को भी कोई रुख तय करना चाहिए।

इसे महज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाने के दृष्टिकोण से ही नहीं देखा जाना चाहिए। यदि किसी उच्चस्तरीय बैठक में मौजूद किसी अधिकारी या फिर मंत्री को यह लगे कि कुछ साल बाद उनके विचार सार्वजनिक जानकारी में आने से उन्हें कुछ असहज होना पडे़गा तो इससे उनमें एक तरह की हिचक घर कर सकती है। ऐसे में राष्ट्रीय महत्व के कुछ संवेदनशील मसलों पर निर्णय के लिए जैसे खुले रवैये की दरकार है वह प्रभावित हो सकता है। यह भारत के राष्ट्रीय हितों के लिए घातक होगा। इसी तरह उन अभिव्यक्तियों पर भी कोई अड़ंगा नहीं लगाया जाना चाहिए जो अनुभव एवं विशेषज्ञता पर आधारित हों। अगर इसमें अवरोध पैदा किया जाता है तो यह भी ठीक नहीं होगा। इधर एक और प्रवृत्ति यह देखने को मिली है कि कुछ सेवारत अधिकारी और संवैधानिक पदों पर बैठे लोग कुछ ऐसे मुद्दों पर टिप्पणियां करते हैं जो उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर के होते हैं। आखिर यह कितना उचित है कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग उन विषयों पर भी राय रखें जिनमें उनकी कोई भूमिका नहीं होती? ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया के दौर में अपनी राय व्यक्त करने के मोह पर काबू नहीं रखा जा रहा है। क्या यह स्वस्थ चलन है? जाहिर है कि इस पर भी सार्वजनिक विमर्श की दरकार है।

हाल में एक और रुझान दिखा है। कुछ सेवारत अधिकार उन सरकारी नीतियों पर मुखर होकर टिप्पणियां कर रहे हैं जो मूल रूप से उनके काम का हिस्सा नहीं। पहले इसकी अनुमति नहीं थी। अधिकारी सांस्कृतिक, वैज्ञानिक एवं साहित्यिक गतिविधियों में हिस्सा ले सकते थे, लेकिन आधिकारिक मामलों में लिखने की उन्हें इजाजत नहीं थी। श्रीलाल शुक्ल जैसों के लिए इसमें कोई गुरेज नहीं था कि वह नौकरशाही के ढर्रे पर रागदरबारी जैसी कालजयी कृति लिख सकें। तमाम अधिकारी कवि, वैज्ञानिक और प्रख्यात नर्तक थे। अपने क्षेत्रों में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान भी दिया, लेकिन सरकारी नीतियों पर टिप्पणी से खुद को दूर ही रखा। अब ऐसा लगता है कि अधिकारियों को या तो इसकी इजाजत मिल जा रही है या फिर उन पर कोई अंकुश नहीं रह गया है। समय भले ही बदल रहा हो, लेकिन इन मसलों पर सार्वजनिक विमर्श वक्त की मांग है ताकि भ्रम की स्थिति खत्म की जा सके।

(लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं) 

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