सुशील कुमार सिंह। अब यह किसी से छिपा नहीं है कि कोरोना महामारी ने दुनिया समेत भारत की अर्थव्यवस्था को त्रसदी की ओर धकेल दिया है। एक ओर जहां कल-कारखाने से लेकर सभी प्रकार के कार्यो में व्यापक बंदी है, वहीं सरकार को मिलने वाले आर्थिक लाभ मसलन जीएसटी व आयकर आदि भी हाशिये पर हैं। इस बीच सरकार लोगों की स्वास्थ्य रक्षा और जीवन मोल को देखते हुए 20 लाख करोड़ रुपये के आíथक पैकेज का एलान कर चुकी है।

लेकिन यह आर्थिक पैकेज राहत से ज्यादा बिना आय वाला योजनागत व्यय का ब्यौरा है। देखा जाए तो सरकार सारे इंतजाम कर रही है, पर समस्या इतनी बड़ी है कि सब नाकाफी है। देश में असंगठित कामगार इन दिनों पूरी तरह खाली हाथ हैं और लगातार उखड़ रही अर्थव्यवस्था के चलते उनकी राह में भूख और जीवन की समस्या भी स्थान घेर रही है। शहरों से मजदूर व्यापक पैमाने पर गांव की ओर जा रहे हैं।

सरकार के सामने अनेक दुविधाएं : बरसों बाद यह भी पता चला कि भारत वाकई में गांव का ही देश है और जब सभ्यता व शहर पर गाज गिरती है, तब जीवन का रुख गांव की ओर ही होता है। सरकार के सामने अनेक दुविधाएं हैं। कोरोना से निपटना, आर्थिक त्रसदी से मुक्ति, ठप पड़ी व्यवस्था को सुचारू करना आदि। इसमें कृषि, उद्योग व सेवा संबंधी सभी इकाइयां शामिल हैं। कहा जाए तो लोक विकास के लिए नीतियां बनाने वाली सरकारें आज कोरोना महामारी के चलते चौतरफा समस्याओं से घिरी हुई हैं। नागरिकों पर भी गरीबी की गाज लगातार गिर रही है। सवाल यह है कि आíथक त्रसदी से आíथक सुशासन की राह पर गाड़ी कब आएगी।

आर्थिक मापदंड नए सिरे से विकसित करने के प्रयास : दरअसल सुशासन एक ऐसा लोक सशक्तीकरण का उपकरण है जिसमें सबसे पहले आíथक न्याय ही आता है। यह एक ऐसी विधा है जहां शासन को अधिक खुला, पारदर्शी तथा उत्तरदायी बनने का अवसर मिलता है। मानवाधिकार, भूख से मुक्ति और सहभागी विकास के साथ लोकतंत्र को ऊंचाई देना सुशासन की सीमाएं हैं। उल्लेखनीय है कि 1991 के उदारीकरण के दौर में आर्थिक मापदंड नए सिरे से विकसित करने के प्रयास हुए थे। सरकार और शासन ने इस तब्दीली से जनता को जो लाभ दिया उसे आज भी महसूस किया जा सकता है। तब से लेकर अब तक हुए अनेक बदलावों के बीच इस महामारी के बाद एक नए भारत का खाका खींचने और सुशासन की राह पर ले चलने के लिए नए थिंक टैंक की जरूरत होगी।

विविध प्रयासों से राहत की उम्मीद : हालांकि सरकार नाबार्ड समेत कई अन्य एजेंसियों के माध्यम से किसानों को अनेक प्रकास से सुविधा मुहैया कराने, एमएसएमई की परिभाषा बदलने के साथ निवेश आदि के लिए नए फॉर्मूले तय करने और उत्पादन के लगभग सभी क्षेत्रों में नए ढंग से नियोजन की बात करके आíथक त्रसदी से निकलने की बात सोच रही है। गांव में बढ़ती आबादी, काम की कमी का सीधा समीकरण बनाता है। 40 हजार करोड़ रुपये की अतिरिक्त व्यवस्था करके मनरेगा के माध्यम से इस समस्या का हल करने का एक प्रयास तो यहां दिखता है, मगर रोजगार सृजन के नए पहलू खोजना सरकार के लिए चुनौती रहेगी। बेशक देश की सत्ता को पुराने डिजाइन से बाहर निकलना होगा, लेकिन बाहर भूख और भीड़ है, सभी को रोजगार और रोटी देना न तो पहले संभव था, ना ही अब दिखाई देता है। मोदी सरकार पर यह आरोप रहा है कि उसके कार्यकाल में बेरोजगारी काफी बढ़ गई थी और अब तो कोरोना महामारी ने कमर ही तोड़ दी है। प्रधानमंत्री न्यू इंडिया की बात कह रहे हैं, जबकि पुराना भारत इन दिनों सड़कों पर है। जब तक कृषि क्षेत्र और इससे जुड़ा मानव संसाधन स्वयं को उपेक्षित महसूस करेगा, तब तक देश सुशासन की राह पर नहीं होगा। यह गांधी के चिंतन का अंश है।

बाजारवाद का दुष्परिणाम : करीब तीन दशक पहले विश्व बैंक ने एक खास रिपोर्ट जारी करके यह समझाने का प्रयास किया था कि राज्य को न्यून होना चाहिए और बाजार को अवसर देना चाहिए। आज स्थिति यह है कि बाजार भी न्यूनतम की ओर चले गए हैं। रोजगार छिन गए हैं। मानव संसाधन से शहर खाली हो गया है और आíथकी सबसे बड़े संकुचन की ओर है। लॉकडाउन के कई प्रतिकूल प्रभाव और डिफेक्ट देखने को मिल रहे हैं। ऐसे में भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए भारत सरकार को सभी राज्यों के साथ मिलकर महत्वपूर्ण निर्णय लेने होंगे। भारतीय रिजर्व बैंक का आकलन भी अर्थव्यवस्था की दुर्दशा ही बताता है। किंतु भारत के लिए यह एक ऐसा मौका भी है जो अपने घरेलू वस्तुओं को बाजार तक पहुंचा कर सही कीमत के साथ जीडीपी को कुछ बढ़त दे सकता है। प्रधानमंत्री भी लोकल से वोकल व ग्लोबल की बात कह रहे हैं। जाहिर है विश्व के बाजार भी उखड़े हैं, ऐसे में भारत को आत्मनिर्भरता की राह लेनी ही पड़ेगी। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष भारत के हित में दिखाई देता है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि गांवों का देश भारत अन्य देशों की तुलना में आत्मनिर्भर होने की अधिक संभावना रखता है, बस नियोजन और क्रियान्वयन दुरुस्त कर लिया जाय तो। आíथक सुशासन की गाड़ी अब स्थानीय उत्पादों पर कहीं अधिक टिकी दिखाई देती है।

यह सही है कि वर्तमान महामारी से बचाव के लिए लॉकडाउन के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था, लेकिन यह भी सही है कि इसके चलते भारत को करीब नौ लाख करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ सकता है जो आर्थिक त्रसदी से कम नहीं है। पहले कोरोना से निपटना है या उसी के साथ आर्थिक सुशासन की राह को भी समतल बनाना है, यह भी सरकार की ही जिम्मेदारी है। लिहाजा शिथिलता जितनी देर रहेगी, आíथक त्रसदी उतना ही विस्तार लेगी। भारतीय रिजर्व बैंक ने भी शुक्रवार को इसके संकेत दिए हैं। मूडीज की रिपोर्ट ने भी भारत की वृद्धि अनुमान को घटाकर 0.2 फीसद कर दिया है। बीते मार्च में उसने 2.5 फीसद की उम्मीद जताई थी। हालांकि मूडीज 2021 में भारत की वृद्धि दर 6.2 प्रतिशत रहने का अनुमान जता रहा है जो फिलहाल तो संभव नहीं दिख रहा है।

[निदेशक, वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन]