कैप्टन आर विक्रम सिंह। आज से करीब छह दशक पहले हमारे जवानों ने लद्दाख की 18 हजार फीट ऊंची बियाबान सर्द पहाड़ियों पर अपने रक्त से शौर्य का एक बेमिसाल इतिहास लिखा था। आज जब हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, तब शौर्य की इस अनुपम गाथा का स्मरण किया जाना चाहिए। इसलिए और भी, क्योंकि इसी शौर्य की एक झलक गलवन में शहीद हमारे वीरों ने दिखाई थी। चूंकि लद्दाख के मोर्चे पर उसी शत्रु चीन से मुकाबला है, इसलिए देश को रेजांगला की उस अपराजेय भावना को जागृत किए रहने की कहीं ज्यादा जरूरत है। नवंबर 1962 में चुशुल सेक्टर में पैगोंग झील के दक्षिण में सुनसान बर्फीली हवाओं के इस र्दे पर 13 कुमाऊं बटालियन की एक बहादुर प्लाटून चार्ली कंपनी तैनात की गई थी। इस कंपनी के जवानों के पास द्वितीय विश्व युद्ध के जमाने की .303 बोर की राइफलें थीं।

चीनी सेना के हमले के अंदेशे में कंपनी के कमांडर मेजर शैतान सिंह ने मोर्चे तय किए। उन्होंने अंदाजा लगाया कि इस इलाके में चीनी सैनिक बिना बमबारी किए कभी भी अचानक हमला बोल सकते हैं। आखिरकार 18 नवंबर को रात दो बजे चीनी हमला शुरू हुआ। मेजर शैतान सिंह की टुकड़ी ने बड़े धैर्य से चीनियों की राइफलों की रेंज में आ जाने का इंतजार किया। रेंज में आते ही राइफलों, मशीनगनों और मोर्टार से जबरदस्त हमला बोला गया। आगे बढ़ते चीनियों को इसका अंदाजा नहीं था। उनके पांव उखड़ गए। सामने की ढलान चीनियों की लाशों, चीखते-चिल्लाते घायलों से पट गई। इसके बाद दूसरा, तीसरा हमला हुआ, लेकिन परिणाम वही रहा।

चौथे हमले से पहले चीनी सेना ने तोपखाने से बमबारी के साथ चार्ली कंपनी पर मोर्टार, आरसीएल राकेटों से फायरिंग प्रारंभ की। मोर्चे तबाह होने लगे। बंकर पर बंकर टूटते गए, लेकिन जवान पीछे नहीं हटे। चीनी आक्रमण की अगली लहर का मेजर शैतान सिंह ने बचे हुए सैनिकों के साथ मुकाबला किया। संघर्ष अब उनके मोर्चे के करीब आ गया था। अगली प्लाटून के एकमात्र सिपाही सहीराम की मशीनगन ने अकेले अपने दम पर चीनियों के पांचवें हमले को रोक रखा था। उसे गिराने के लिए चीनियों ने आरसीएल राकेट से वार किया। गोलियों की बरसात और मोर्टार के धमाकों के बीच दौड़ते और सैनिकों का हौसला बढ़ाते हुए मेजर शैतान सिंह बुरी तरह घायल हो चुके थे। उन समेत उनके साथियों को मालूम था कि यह उनकी शहादत का अंतिम मोर्चा है। उन्हें न हटना था न सरेंडर करना था। मेजर ने कुछ घायलों को जबरदस्ती वापस भेजा, ताकि कोई तो शहादत की कहानियां बताने के लिए जिंदा रहे। गोलियां खत्म हो चली थीं। मेजर अंतिम विदा ले चुके थे, फिर भी बचे हुए सैनिकों ने करीब आते चीनियों को ललकारते हुए अपनी संगीनों से आखिरी लड़ाई लड़ी। फिर सब शांत हो गया। कंपनी के चारों ओर सैकड़ों चीनी सैनिकों की लाशें थीं। चीनी सैनिक वे लाशें और घायल साथी उठा ले गए। वे आगे चुशुल की ओर नहीं बढ़ सके। चीनियों का लद्दाख युद्ध यहीं खत्म हो गया। फिर बर्फ के तूफानों ने इस युद्धभूमि को अपने आलिंगन में ले लिया।

चूंकि भारी हिमपात के कारण कोई मोर्चे पर जा नहीं सका, इससे जो घायल थे, वे भी वहीं समाधिस्थ हो गए। महीनों बाद मौसम की मुश्किलें कम होने पर जब बर्फ कम हुई तो हमारे सैनिक वहां पहुंचकर देखते हैं कि सब कुछ वैसे ही है, जैसे युद्ध खत्म नहीं हुआ हो। वही मोर्चे और मोर्चे पर सैनिक। वे अपनी राइफलों पर टिके हुए बर्फ में जम गए थे। टूटी मशीनगनों और राइफलों के साथ वैसे ही पोजीशन लिए वीर जवान। शरीर से बहे खून के साथ खुद जम गए सैनिकों की कतारें। राइफलों के टिगर पर जम गईं अंगुलियां। एक सैनिक घायल साथी को पट्टी बांधते-बांधते सिरिंज हाथ में लिए बर्फ हो गया था। मोर्टार के एक हजार बमों में से सिर्फ सात बचे थे। कोई जिस्म ऐसा नहीं जिस पर बमों, गोलियों के निशान न हों।

मेजर शैतान सिंह का शरीर कंपनी के बंकर के पास मिला। हाथ और पेट पर गोलियों और जम गए रक्त के निशान थे। उनका एक-एक सैनिक चार-चार चीनी सैनिकों पर भारी पड़ा था। नायब सूबेदार सुरजा के माथे पर भाग्य की रेखाओं के ठीक ऊपर बम के स्प्लिंटर का गहरा घाव था। इन सबने वीरता का अद्भुत अध्याय लिखा। यह खास तौर पर याद रहे कि हमारे मुट्ठी भर सैनिकों ने चीन के 1300 से अधिक सैनिकों को ठिकाने लगा दिया था।

रेजांगला की इस जंग में हमारे 114 अधिकारी और जवान शहीद हुए। जब भी 1962 की पराजय, असफल नेतृत्व, कमजोर कमांडरों, बिना वर्दी-कारतूस के जूझती सेनाओं और गिरफ्तार सैनिकों की बात होगी, तब रेजांगला की खुद्दारी की चमक हमें ढांढस बंधाएगी। जुझारूपन, साहस, जीवटता, राष्ट्रभक्ति की संयुक्त परिभाषा खोजनी हो तो रेजांगला के रूप में उसे परिभाषित किया जा सकता है। इस पर हैरानी नहीं कि रेजांगला की लड़ाई को भारत के सैन्य इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाइयों में से एक माना जाता है। पता नहीं किसी ने रेजांगला के वीरों की बहादुरी के गीत लिखे तो वे हमें याद हैं या नहीं? कोई पाठ्यपुस्तक उन्हें याद करती है या नहीं, जो अपने खून के हस्ताक्षर उन बियाबानों में छोड़ आए। यह युद्ध 480 ई.पू. फारस की सेना से मुकाबला करते लियोनाइडस के 300 स्पार्टा योद्धाओं की जीवटता से कहीं भी कम न था। इसके बावजूद वे वहां हैं अभी भी उन्हीं मोर्चो में, भिंचे हुए जबड़ों और तनी हुई संगीनों के साथ। वे आंखें आज भी राइफल के निशानों पर दुश्मनों को खोजती हैं। वास्तव में रेजांगला शहादत की उस भूली-बिसरी हुई कहानी की तरह है, जिसे देश को बताया जाना अभी बाकी है।

(लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैं)