जगमोहन सिंह राजपूत। आज मानव के समक्ष एक ऐसा संकट उपस्थित हुआ है, जिसकी वैज्ञानिकों को न तो कोई आशंका थी, न ही उससे निपटाने की कोई तैयारी। यह संकट है कोरोना वायरस के संक्रमण से तेजी से फैल रही कोविड-19 नामक महामारी का। आज तो केवल यही कहा जा सकता है कि वैश्विक स्तर पर किए जा रहे मानवीय प्रयास शीघ्र ही सफल होंगे और कोविड-19 का उन्मूलन उसी तरह संभव होगा जैसे प्लेग, टीबी, चेचक इत्यादि का हुआ। कोरोना वायरस ने मनुष्य के सामने उसके भविष्य को लेकर कई प्रश्न उपस्थित कर दिए हैं जिन पर मानव समाज को गहनता से विचार-विमर्श करना होगा। आज मनुष्य के इस अहंकार को गहरा धक्का लगा है कि उसने प्रकृति के रहस्यों को समझने और उस पर नियंत्रण करने की क्षमता प्राप्त कर ली है। कोरोना ने मनुष्य के ज्ञान और समझ की अपूर्णता और सीमाओं को सामने ला दिया है।

ज्ञान, बुद्धि और विवेक मनुष्य को पीढ़ियों की असीमित और सतत साधना के द्वारा ही प्राप्त होते हैं। इनकी ऐसी कोई सीमा नहीं जहां पर पहुंचकर कहा जा सके कि वही सीमांत है। जब तक मानव सभ्यता पृथ्वी पर विद्यमान है, उसका विकास जारी रहेगा, उसके लिए मानव के प्रकृति के रहस्यों को समझने के प्रयास भी जारी रहेंगे। हालांकि प्राचीन काल में भारत के ऋषियों और साधकों ने इन प्रयासों को नियमबद्ध किया था। उन्होंने इस पर जोर दिया था कि हर नए ज्ञान और कौशल का उपयोग केवल जनहित में हो। प्रकृति के प्रति सम्मान और आदरभाव रखते हुए ही मनुष्य उसके संसाधनों का उपयोग करे। इसी दर्शन को महात्मा गांधी ने कुछ इस तरह कहा था कि भारत अपने मूलरूप में कर्मभूमि है, भोगभूमि नहीं। उनका यह भी कहना था कि भारत में आत्मशुद्धि के लिए स्वेच्छापूर्वक जैसा प्रयत्न किया गया, उसका दुनिया में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। इसी चिंतन के कारण पूरे विश्व ने ज्ञान और आध्यात्म के क्षेत्र में भारत की श्रेष्ठता को स्वीकार किया।

भारत में अपरिग्रह को मनुष्य और प्रकृति के बीच की संवेदनशील कड़ी बनाए रखने का आधार बनाया गया था। गांधी जी ने अपरिग्रह को समझा, सराहा, अपनाया और दूसरों को समझाने का प्रयास भी किया। अनेक कारणों से कालांतर में भारत में इस आत्मशुद्धि की स्वीकार्यता और व्यावहारिकता में कमी आती गई। अपनी संस्कृति को पीछे छोड़कर भारत पश्चिम की भोगवादी संस्कृति की नकल करने में संलग्न हो गया और प्रकृति का सम्मान करना भूल गया। कोरोना संकट ने भारत के सामने यह स्पष्ट कर दिया है कि विश्व को अपरिग्रह का अर्थ और मंतव्य समझाना मुख्यत: उसका भौतिक, आध्यात्मिक एवं नैतिक उत्तरदायित्व है। हर प्रकार की विविधता को स्वीकार करने का उदाहरण विश्व के सामने प्रस्तुत करनेवाला और प्रकृति के लगभग हर अंग में दैवत्व देखने वाला भारत उसके वैश्विक संरक्षण में आगे रहने का दायित्व कैसे भूल सकता है? यह वैश्विक समझ और चिंता लगातार बढ़ रही है कि अनियंत्रित भौतिकवाद और चिंताजनक ढंग से मानव-मूल्यों का क्षरण और आध्यात्मिकता के प्रति बढ़ता विरक्ति-भाव मानव-मात्र को विनाश को ओर ले जा रहे हैं।

भारत का जनमानस परसेवा को सबसे बड़ा पुण्य मनाता है। वह ‘यह मेरा-वह तेरा’ से ऊंचे उठकर वसुधैव कुटुंबकम को हजारों साल पहले समझ चुका है। यदि उसकी नई पीढ़ी को प्रारंभ से ही मानव मूल्यों, प्राचीन भारतीय संस्कृति और साहित्य की श्रेष्ठता से परिचित करा दिया जाए, उसकी गतिशीलता और हर प्रकार के जन-उपयोगी नए ज्ञान और परिवर्तन को आवश्यक विश्लेषण के पश्चात स्वीकार करने की छूट से अवगत करा दिया जाए तो भारत फिर एकबार मानव-मानव और मानव-प्रकृति के संबंधों का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत कर सकता है, जिसकी आज सारे विश्व को आवश्यकता है। ऐसे में भारत को अपनी जिम्मेदारी उठनी चाहिए और कोरोना से उबरे विश्व को नया रास्ता दिखाना चाहिए।

कोरोना के बाद विश्व व्यवस्था में भी बहुत कुछ बदलाव होगा। दूसरे विश्व युद्ध के बाद हिंसा और युद्ध की विभीषिका से मनुष्य को निजात दिलाने की आवश्यकता तेजी से उभरी थी। महात्मा गांधी पहले दक्षिण अफ्रीका और फिर भारत में अहिंसा के महत्व और उसकी व्यावहारिकता को स्थापित कर विश्व का ध्यान आकर्षित कर चुके थे। संघर्ष और युद्ध से बचने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता पूर्ति के लिए संयुक्त राष्ट्र, उसकी सुरक्षा परिषद, यूनेस्को जैसी अनेक संस्थाएं बनीं। इनकी उपलब्धियों की लंबी सूची है, मगर शांति और सौहार्द के लिए इन संस्थाओं का प्रभाव सीमित ही रह पाया। इनकी संरचना भी बदलते समय के अनुकूल नहीं बदल सकी है। इन संस्थाओं में आज भी उपनिवेशवाद की उपस्थिति महसूस की जाती रही है। वहीं दुनिया में हथियारों की होड़ भी लगातार जारी है।

उम्मीद है कि सभी देश कोरोना को पराजित करने के क्रम में अंतरराष्ट्रीय सहयोग, मानव-प्रकृति के संबंधों में सुधार और समय के अनुरूप संगठन स्थापित करने में अधिक खुले दिल से एक-दूसरे को समझने के लिए तैयार होंगे। अब सबसे बड़ी चुनौती इसके लिए आगे की रणनीति बनाने की होगी। इसका एक खाका महात्मा गांधी ने 6 मई, 1926 को यंग इंडिया में लिखे एक लेख में खींचा था। उन्होंने कहा था कि यदि हमें प्रगति करनी है, हमें अपने पुरखों की धरोहर को बढ़ाना है तो हम नए आविष्कार और खोज अवश्य करें, मगर आध्यात्मिक पक्ष को कदापि न भूलें। आज के संदर्भ में कहा जा सकता है कि वैश्विक सहयोग की नई प्रभावी संरचना बनाई जाए जो मानव के मस्तिष्क में मानवता के बीज बोये, अविश्वास का निमरूलन करे और नया इतिहास रचे।

(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)