[ बलबीर पुंज ]: बीते दिनों ‘हिंदू-पाकिस्तान’ और ‘हिंदू-तालिबान’ संबंधी वक्तव्य सामने आए। तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कोलकाता में पार्टी की एक जनसभा में कहा, ‘भाजपा तालिबान हिंदुओं का नेतृत्व कर रही हैं।’ इससे पहले तिरुअनंतपुरम से कांग्रेस सांसद और पूर्व केंद्रीय राज्यमंत्री शशि थरूर भी एक सभा में ‘हिंदू-तालिबान’ और ‘हिंदू-पाकिस्तान’ शब्दों का प्रयोग कर चुके हैं। आखिर यह कैसी मानसिकता है जिसमें चुनाव जीतने के लिए एक तरफ संसद से लेकर सड़क तक स्वयं को हिंदू, जनेऊधारी और शिवभक्त स्थापित करने का उतावलापन है तो दूसरी ओर् हिंदू समाज को कभी आतंकवाद तो अब इस्लामी कट्टरता का पर्याय बताकर अपमानित किया जा रहा है? ईसाई बहुल अमेरिका में यदाकदा गोलीबारी में निर्दोष लोगों की हत्या की खबर अक्सर सामने आती रहती है।

कई बार विश्वव्यापी इस्लामी आतंकवाद के चलते इस हिंसा में वहां के स्थानीय मुसलमान निशाने पर आ जाते हैं। अपनी वेशभूषा के चलते गलतफहमी में निर्दोष सिख भी कभी-कभार इसकी चपेट में आ जाते हैं। क्या उस स्थिति में हमने वहां किसी राजनीतिक दल, विशेष राजनीतिज्ञ, बुद्धिजीवी या फिर मीडिया को हमलावरों के लिए ‘तालिबानी-ईसाई’ या फिर ‘ईसाई-पाकिस्तान’ शब्द का उपयोग करते देखा है?

विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्ष राष्ट्र यदि कोई है तो निर्विवाद रूप से भारत है। क्या यह राहुल गांधी, शशि थरूर या ममता बनर्जी जैसे तथाकथित सेक्युलरिस्टों के कारण है या 1976 में आपातकाल के समय संविधान में जोड़े गए ‘सेक्युलर’ शब्द से भारत पंथनिरपेक्ष बना? अक्सर कई भारतीय और पश्चिमी बुद्धिजीवी कहते और लिखते हैं कि औपनिवेशिक कालखंड में अंग्रेजों ने भारत को दो उपहार दिए। एक सेक्युलरिज्म और दूसरा लोकतंत्र। यदि ऐसा था तो पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश इससे वंचित क्यों हो गए?

आज भारत में लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता जीवंत है तो इसका श्रेय यहां की अनंतकालीन बहुलतावादी संस्कृति और कालजयी सनातनी परंपराओं को जाता है जिसमें ‘एकं सत् विप्रा: बहुदा वदंति’ और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का दर्शन है। इस पृष्ठभूमि में क्या भारत कभी भी ‘हिंदू-पाकिस्तान’ या ‘हिंदू-तालिबान’ बन सकता है? बिल्कुल नहीं। प्राचीनकाल में हिंदू शासकों के व्यक्तिगत पंथ और कुलदेवता/कुलगुरु थे, किंतु किसी ने भी उसे शासकीय पंथ अर्थात राज्य समर्थित मजहब नहीं बनाया। केवल सम्राट अशोक एकमात्र अपवाद रहे जिन्होंने बौद्ध मत के प्रचार-प्रसार हेतु राज्य संसाधनों का उपयोग किया। इसके विपरीत पाकिस्तान का जन्म ही मजहब के आधार पर हुआ। वह आज भी अपनी कट्टर इस्लामी पहचान को जीवित रखने और यह स्थापित करने में ऊर्जा लगाता है कि उसका चिंतन और परंपरा सनातन भारत से हर प्रकार से भिन्न है। अर्थात वह अपनी मूल सांस्कृतिक विरासत को नकारने में ही व्यस्त है।

जिस विषाक्त मानसिकता से पाकिस्तान की उत्पत्ति हुई, वह खंडित भारत में आज भी सक्रिय है और तथाकथित सेक्युलरिस्टों की मेहरबानी से शेष भारत को ‘दूसरा पाकिस्तान’ बनाने पर आमादा है। दिसंबर 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का सार्वजनिक रूप से भारतीय संसाधनों पर मुस्लिमों का पहला हक और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा अपने दल को ‘मुस्लिम पार्टी’ बताना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। हिंदू-विहीन कश्मीर इसी अवसरवादी राजनीति का मूर्त रूप है।

किसी भी देश के संविधान और उसके जनमानस के बीच समन्वय होना कितना आवश्यक है वह तालिबानियों के गढ़ अफगानिस्तान की स्थिति से स्पष्ट है। यहां गैर-मुस्लिमों को चुनाव लड़ने और अपनी परंपरानुसार पूजा करने आदि का अधिकार तो प्राप्त है, किंतु बहुसंख्यकों के इस्लामी चरित्र के कारण वहां उनका मजहबी उत्पीड़न नहीं थमा है। आज भारत को ‘दूसरा पाकिस्तान’ बनाने हेतु देश में तीन प्रकार के षड्यंत्रकारी सक्रिय हैं। पहले वे जो राष्ट्रवादियों को विकृत तथ्यों और निराधार आरोपों के आधार पर सांप्रदायिक और आतंकी तक घोषित करते हैं। दूसरे वे हैं जो पाकिस्तानी चिंतन और वित्त से पोषित भारतीय पासपोर्ट धारक हैं। इस कड़ी में तीसरे वे वामपंथी हैं जिन्होंने पाकिस्तान के जन्म भूमिका निभाई और स्वतंत्रता के बाद भी भारत को अलग-अलग राष्ट्रों का समूह माना। वे आज भी देश को खंडित करने की जुगत में जुटे हैं।

‘हिंदू-पाकिस्तान’ और ‘हिंदू-तालिबान’ का हौव्वा वास्तव में र्‘ंहदू/भगवा आतंकवाद’ का ही विस्तृत रूप है। वर्ष 2006-10 तक गृह मंत्रालय में उच्चाधिकारी रहे आरवीएस मनी ने अपनी पुस्तक ’हिंदू टेरर-इनसाइडर अकाउंट ऑफ मिनिस्ट्री ऑफ होम अफेयर्स’ में खुलासा किया है कि कैसे दिग्विजय सिंह ने ’हिंदू आतंकवाद’ के मिथक की नींव रखी और संप्रग सरकार ने जांचकर्ताओं पर हर आतंकी घटना को भगवा रंग देने का दबाव बनाया।

मनी के अनुसार, ‘2006 के मालेगांव आतंकी हमले की प्रारंभिक जांच में कट्टर इस्लामी संगठन अल-हदीस के संलिप्त होने की जानकारी सामने आई, किंतु जैसे ही हेमंत करकरे को जांच सौंपी गई, वैसे ही हिंदू संगठनों को मुख्य साजिशकर्ता बता दिया गया।’ बकौल मनी, ‘वर्ष 2008 में गृह मंत्री बनने के बाद पी चिदंबरम ने नियमों का उल्लंघन कर एनआइए में अपनी पसंद का महानिदेशक नियुक्त किया। 2009-10 में इस एजेंसी का केवल एक ही उद्देश्य रहा कि अस्तित्वहीन र्‘ंहदू आतंकवाद’ की अवधारणा को मजबूत करना। उसके लिए उसने प्रत्येक आतंकी घटना के प्रारंभिक सुबूतों की अनदेखी कर उसे ’हिंदू आतंकवाद’ समर्थित विमर्श में परिवर्तित कर दिया।’

मुस्लिम वोट बैंक सुनिश्चित करने में कांग्रेस और स्वयंभू सेक्युलरिस्टों ने इस्लामी कट्टरवाद और आतंकवाद से समझौता करने से भी परहेज नहीं किया। चाहे आतंकवादी इशरत जहां हो, दिल्ली में बाटला हाउस मुठभेड़ हो, कश्मीर के अलगाववादी हों, पत्थरबाज/जिहादी हों या फिर आतंकी याकूब मेमन और अफजल गुरु की फांसी इत्यादि ही क्यों न हों सभी मामलों में उन्होंने चुनाव जीतने के लिए भारत विरोधी मानसिकता को ही पोषित किया है। स्वस्थ लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के बीच प्रतिस्पर्धा स्वागतयोग्य है, किंतु अपने संकीर्ण उद्देश्यों के लिए प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से पाकिस्तान के घोषित एजेंडे को आगे बढ़ाना जिसमें वह भारत को हजार घाव देकर उसके टुकड़े करना चाहता है- क्या उचित है? ’हिंदू आतंकवाद’ जुमला 2014 में मुंह की खा चुका है। अब ’हिंदू-पाकिस्तान/ताबिलान’ को लेकर 2019 में जनता का क्या रुख रहेगा? इसका उत्तर खोजना कठिन नहीं है।

[ लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]