राजीव सचान : गत दिवस जिस समय गुजरात, हिमाचल और दिल्ली नगर निगम चुनावों के एक्टिजट पोल की प्रतीक्षा हो रही थी, उसी समय उत्तर प्रदेश में नगर निकाय चुनावों के लिए आरक्षण सूची जारी हो रही थी। यह सूची जारी होते ही निकाय चुनावों की तैयारी तेज हो गई। उत्तर प्रदेश में कुल 17 नगर निगम, 200 नगर पालिका परिषद और 545 नगर पंचायतें हैं। इसका मतलब है कि चंद दिनों बाद यूपी में गली-गली में चुनावी माहौल दिखेगा। यह इस वर्ष दूसरी बार होगा। इसके पहले ऐसा माहौल विधानसभा चुनाव के दौरान देखने को मिला था, जो फरवरी-मार्च में हुए थे। उत्तर प्रदेश के साथ पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर के भी विधानसभा चुनाव हुए थे।

इसके पिछले वर्ष यानी 2021 में पांच राज्यों- केरल, तमिलनाडु, असम, पश्चिम बंगाल और पुद्दुचेरी विधानसभा के चुनाव हुए थे। हिमाचल और गुजरात विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद राजनीतिक दलों की निगाह अन्य राज्यों के विधानसभा चुनावों पर लग जाएंगी। इसलिए कुछ ज्यादा ही लग जाएंगी, क्योंकि अगले वर्ष कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश समेत नौ राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं। चूंकि इन सभी राज्यों के चुनाव एक साथ नहीं होंगे, इसलिए अगले वर्ष रह-रहकर चुनाव होते हुए देखने को मिलेंगे। एक तरह से वर्ष 2023 चुनावमय बना रहेगा।

2023 के विदा होने के पहले ही अगले आम चुनाव की तैयारी शुरू हो जाएगी। कुछ दलों ने तो इन चुनावों की तैयारी शुरू भी कर दी है। कांग्रेस की जो भारत जोड़ो यात्रा निकल रही है, उसका उद्देश्य भले ही देश को जोड़ना बताया जा रहा हो, लेकिन उसका मुख्य उद्देश्य 2024 के आम चुनाव में पार्टी के पक्ष में माहौल बनाना है। स्पष्ट है कि देश को लगातार होने वाले चुनावों से कभी छुटकारा नहीं मिलने वाला। हर वर्ष किसी न किसी राज्य में विधानसभा चुनाव होते ही रहते हैं। विधानसभा चुनावों के अतिरिक्त निकायों और पंचायतों के चुनाव भी होते हैं। राजनीतिक दल तो विधानसभा और लोकसभा चुनावों के साथ निकाय एवं पंचायत चुनावों में अपना समय खपाते ही हैं, प्रशासनिक मशीनरी भी अपना सारा जोर इन चुनावों को संपन्न कराने में लगाती है। इससे जनहित के कई काम रुक जाते हैं, क्योंकि आचार संहिता प्रभावी हो जाती है।

राजनीतिक दल और प्रशासनिक मशीनरी एक तरह से पांच साल में चार बार चुनावों का सामना करती है। किसी विधायक-सांसद के निधन, उसके अयोग्य पाए जाने, पाला बदलने या इस्तीफा दे देने के कारण होने वाले उपचुनावों से बचा नहीं जा सकता, लेकिन ऐसा कुछ अवश्य किया जा सकता है, जिससे देश को बार-बार चुनावों का सामना न करना पड़े। रह-रहकर होने वाले चुनावों से केवल इसलिए नहीं बचा जाना चाहिए कि उनमें अच्छा-खासा धन खर्च होता है, बल्कि इसलिए भी बचा जाना चाहिए, क्योंकि शासन और प्रशासन का सारा ध्यान चुनावों पर केंद्रित हो जाता है। वैसे चुनावों में खर्च होने वाला धन इतनी कम भी नहीं कि उसकी अनदेखी कर दी जाए। वर्ष दर वर्ष चुनावों पर होने वाला खर्च बढ़ता जा रहा है। एक अनुमान के अनुसार पिछले लोकसभा चुनावों में करीब 60 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए थे, जबकि 2014 के लोकसभा चुनावों का खर्च 30 हजार करोड़ रुपये था। यह सरकारी खर्च है। उस खर्च का हिसाब लगाना कठिन है, जो राजनीतिक दल चोरी-छिपे करते हैं।

जब चुनाव आते हैं तो राजनीतिक दलों के साथ शासन-प्रशासन की भी प्राथमिकता बदल जाती है। जिन राज्यों में सत्ता बदलने के आसार होते हैं, वहां तो प्रशासन पंगु सा पड़ जाता है।

यह सही है कि चुनाव लोकतंत्र के लिए एक उत्सव की तरह होते हैं, लेकिन जब कोई उत्सव बार-बार मनाया जाने लगे तो वह एक बोझ की तरह लगने लगता है। किसी भी चीज की अति भली नहीं होती, वे चाहे उत्सव हों या चुनाव अथवा अन्य कोई आयोजन। एक समय था, जब लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ-साथ हुआ करते थे। 1952 से लेकर 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही हुए। यह सिलसला तब टूटा जब राजनीतिक कारणों से 1968-69 में कई राज्यों की विधासभाएं भंग कर दी गईं और 1971 के आम चुनाव समय से पहले करा दिए गए।

हालांकि समय-समय पर लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की चर्चा होती रही है, लेकिन वह किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी है। यह तब है, जब विधि आयोग एक साथ चुनाव की पैरवी कर चुका है। एक साथ चुनावों को लेकर राजनीतिक दलों और खासकर क्षेत्रीय दलों की सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि यदि विधानसभा चुनावों के साथ लोकसभा चुनाव होंगे तो उनमें उभरे राष्ट्रीय मुद्दे क्षेत्रीय मुद्दों पर भारी पड़ेंगे और इससे उन्हें नुकसान होगा।

यह आपत्ति कितनी सही है, कहना कठिन है, क्योंकि लोकसभा चुनाव संग ओडिशा विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। इन विधानसभा चुनावों में बीजू जनता दल जीत हासिल करता चला आ रहा है। वह एक क्षेत्रीय दल है। उसकी ओर से यह सुनने को नहीं मिला कि एक साथ चुनाव होने से उसे घाटा होता है। यदि एक क्षण के लिए यह मान लिया जाए कि लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव होने से क्षेत्रीय दलों को नुकसान होगा तो इसका भी उपाय है और वह यह कि आम चुनाव के दो-तीन साल बाद सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करा लिए जाएं। यदि राजनीतिक दल चाहें तो इस पर आम सहमति हो सकती है और भारत चुनाव प्रधान देश होने से बच सकता है। ऐसा होने से संसाधनों की बचत तो होगी ही, हमारे नीति-नियंताओं के पास देश की समस्याओं का समाधान करने के लिए अधिक समय भी होगा।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)