[ अवधेश कुमार ]: भाजपा, वामदल एवं कांग्रेस, तीनों दल इस पर एकमत हैं कि पश्चिम बंगाल में राज्य सरकार की सरपरस्ती में लोकतंत्र खतरे में है। तृणमूल विरोधी मतदाताओं के लिए निर्भीक होकर मतदान करना कठिन है। चुनाव आयोग के विशेष पर्यवेक्षक तो यहां तक कह चुके हैं कि पश्चिम बंगाल की आज वही स्थिति है जो डेढ़ दशक पूर्व बिहार की थी। यहां दूसरे चरण से ही साफ हो गया था कि स्थानीय पुलिस एवं प्रशासन वहां निष्पक्ष मतदान नहीं करा सकते। तृणमूल कार्यकर्ताओं के खौफ से या फिर अंतर्मन से वे चुनावी धांधली में सहयोगी की भूमिका में हैं। तृणमूल कार्यकर्ताओं की हिंसा पर वे आंखे मूंद लेते हैं।

चुनाव आयोग ने विशेष पर्यवेक्षक की रिपोर्ट पर प्रदेश का 92 प्रतिशत चुनाव केंद्रीय बलों की निगरानी में कराने का फैसला किया, मगर तीसरे चरण में 50 प्रतिशत ही तैनाती हो सकी। चौथे चरण से शत-प्रतिशत प्रतिशत केंद्रीय बलों की तैनाती का फैसला हुआ जो पांचवें चरण में लागू हो सका। अब पूरा चुनाव केंद्रीय बलों की निगरानी में हो रहा है। आज तक किसी भी राज्य में केंद्रीय बलों की शत-प्रतिशत तैनाती नहीं करनी पड़ी थी। इसी से अनुमान लगा सकते हैं कि वहां स्थिति कितनी डरावनी है।

केंद्रीय सुरक्षा बलों की भी एक सीमा है। वे मतदान प्रक्रिया तक तो लोगों को सुरक्षा दे सकते हैं। उसके बाद उन्हें स्थानीय लोगों और प्रशासन के साये में ही रहना है। राज्य के ग्र्रामीण और शहरी इलाकों में आपको इस डर का अंदाजा भी लग जाएगा। उन्हें डर है कि केंद्रीय बलों की वापसी के बाद उन्हें निशाना बनाया जाएगा। दो वर्ष पूर्व हुए पंचायत चुनावों में यही हुआ था। तृणमूल के प्रभाव वाले क्षेत्रों में चुनाव लड़ने वालों पर जगह-जगह हमले हुए।

तमाम लोगों को पर्चा दाखिल ही नहीं करने दिया गया। जीते हुए तमाम प्रतिनिधियों को तृणमूल के आतंक से पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा था। बंगाल में तृणमूल नेता सीधी धमकी देते हैं कि वोट उनकी पार्टी को ही देना है। अगर नहीं दिया तो खैर नहीं। एक चैनल ने रायगंज क्षेत्र के एक गांव से दिखाया कि किस तरह मतदाताओं के पहुंचने के पूर्व ही उनके मत डाले जा चुके थे। वहां एक समुदाय की संख्या ज्यादा थी। उस समुदाय ने दूसरे समुदाय से कहा कि आप लोग मतदान केंद्र पर मत जाना आपका मत डाल दिया जाएगा। साहस करके कुछ लोग आए तो वाकई उनका मत डाला जा चुका था। पता नहीं ऐसी स्थिति कहां-कहां हुई होगी? विपक्षी नेताओं-कार्यकर्ताओं-समर्थकों के घरों पर हमला, आगजनी, उनके साथ मारपीट और झूठे मुकदमों की असंख्य घटनाएं वहां हो रहीं हैं।

केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती के बावजूद छठे चरण में भी कई क्षेत्रों में पथराव, आगजनी, हमले और बमबारी की खबरें आईं। मेदिनीपुर जिले के एक मतदान केंद्र पर उपद्रव और पथराव हुआ। घाटल से भाजपा उम्मीदवार भारती घोष पर तृणमूल समर्थकों ने हमला किया। उनकी कार क्षतिग्रस्त कर दी गई। उनकी सुरक्षा में लगे दो जवान घायल हए। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष पर भी हमला हुआ। छठे चरण का मतदान शुरू होने से पहले झारग्राम में भाजपा के बूथ कार्यकर्ता रामेन सिंह का शव मिला था। पूर्वी मेदिनीपुर के भगवानपुर में 11 मई की रात दो कार्यकर्ताओं को गोली मार दी गई। यहां मतदान केंद्र पर देसी बम से हमला किया गया।

पांचवें चरण के मतदान के दौरान बैरकपुर से भाजपा के उम्मीदवार अर्जुन सिंह पर हमला हुआ वह तृणमूल के विधायक थे। अब भाजपा में हैं। पहले चरण के मतदान के दिन अलीपुरदुआर और कूचबिहार में जगह-जगह हिंसक झड़पें होती रहीं, जिन्हें नियंत्रित करने में पुलिस नाकाम रही। वाममोर्चा और कांग्र्रेस तो तृणमूल के सामने नहीं टिक सके, क्योंकि अब उनकी संख्या ज्यादा बची नहीं, किंतु भाजपा समर्थकों ने मोर्चा लिया। वाममोर्चा के उम्मीदवार गोविंद राय पर जानलेवा हमला हआ और उनकी गाड़ी की दुर्दशा कर दी गई।

रायगंज के इस्लामपुर में माकपा के मोहम्मद सलीम के समर्थकों ने बूथ कब्जे की शिकायत की तो तृणमूल समर्थकों ने उनकी कार पर हमला बोल दिया। एक उम्मीदवार को स्थानीय पुलिस उचित सुरक्षा ही उपलब्ध नहीं करा पाई। तीसरे चरण के मतदान के दौरान बम फेंकने का दृश्य पूरे देश ने देखा। माकपा, भाजपा एवं कांग्र्रेस तीनों पार्टियों के लोगों पर हमले हुए। कुछ जगहों पर हिंसा का शिकार तृणमूल के समर्थक भी हुए, लेकिन केवल वहीं जहां उनकी संख्या कम थी और ऐसी घटनाओं की संख्या अत्यंत कम है।

पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा कोई नई बात नहीं। पहले वाममोर्चा के लोग करते थे, उनसे पहले कांग्रेस और अब तृणमूल यही कर रही है। इस हकीकत को झुठलाया नहीं जा सकता। नक्सलवाड़ी आंदोलन को कुचलने के लिए कांग्र्रेस के सिद्धार्थ शंकर रे ने किस क्रूरता के साथ दमन किया, उसका पूरा चिट्ठा सामने आ चुका है। कई हजार लोग उस समय मारे गए। वाममोर्चा सरकार आई तो उसने प्रतिशोध के भाव में काम किया। राज्य में राजनीतिर्क ंहसा का लंबा दौर चला, जिसमें करीब 60 हजार लोग मारे गए। तृणमूल कांग्रेस ने सत्ता में आने के बाद वामदलों की कारगुजारियों की पोल खोलते हुए बताया कि कि कैसे 1977 से 2007 तक के कार्यकाल में 28,000 राजनीतिक कत्ल हुए। मगर जो पहले हुआ उसके आधार पर आज की हिंसा को सही नहीं ठहराया जा सकता।

पश्चिम बंगाल की सत्ता संरक्षित और प्रायोजित हिंसा लोकतंत्र के नाम पर सबसे बड़ा धब्बा बन चुकी है। जिस तरह के दृश्य वहां से आ रहे हैं उनका निष्कर्ष यही है कि राजनीतिक दलों ने वहां समाज का चरित्र ही हिंसा का बना दिया है। अगर समाज का चरित्र ऐसा बना दिया जाए तो उसमें सुधार बहुत मुश्किल हो जाता है। भाजपा वहां पहले केवल नाममात्र की थी, लेकिन उसका जनाधार तेजी से बढ़ा है। पंचायत चुनाव में उसने दूसरा स्थान प्राप्त किया। भाजपा पश्चिम बंगाल में बेहतर करने की उम्मीद कर रही है। इससे तृणमूल के भीतर खलबली है। दोनों विपरीत ध्रुवों पर हैं।

भाजपा ने एलान किया है कि सत्ता में आने के बाद घुसपैठियों को बाहर निकालेंगे, नागरिकता कानून बनाएंगे और एनआरसी लागू करेंगे। तृणमूल ने इसे अल्पसंख्यको के खिलाफ बताया। इस कारण भी वहां माहौल तनावपूर्ण है। मीडिया के वामपंथी रुझान के कारण पहले पश्चिम बंगाल की चुनावी धांधलीर्, ंहसा और राजनीतिक हत्याएं सुर्खियां नहीं बनती थीं। अब चूंकि तृणमूल के लोग मीडिया पर भी हमला करने लगे हैं इसलिए बहुत कुछ सामने आ रहा है। चिंता का विषय यही है कि जो ममता बनर्जी हिंसा के खिलाफ संघर्ष करके आगे आईं वही उसे और बढ़ाने का काम करती दिख रही हैैं।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं )

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