जगमोहन सिंह राजपूत : इस समय भारत की ओर सारा विश्व आशा से देख रहा है। यह केवल इसकी अर्थव्यवस्था तक ही सीमित नहीं है। वैश्विक स्तर पर केवल भारत से ही यह अपेक्षा की जा रही है कि वह यूक्रेन-रूस युद्ध को रुकवा सकता है। हालांकि इसके साथ-साथ एक चिंताजनक स्थिति भी बनी है। वह यह कि देश की राजनीति और राजनीतिक दलों के मध्य संवाद, सहयोग और संवेदना लगभग पूरी तरह अनुपस्थित हो चुकी हैं। जो सत्ता में रह चुके हैं, वे वहां पहुंचने की बहुत जल्दी में हैं, लेकिन इसके लिए व्यवस्थित प्रयास करने के स्थान पर वे निराश और हताश को ही व्यक्त करते रहते हैं।

अपरिग्रह को लोकसेवक का आभूषण माननेवाले महात्मा गांधी के देश में अपने को उनकी विरासत का उत्तराधिकारी घोषित करने वाले नेता जब सत्ता में आए तो इस तथ्य को भूल गए। वे गांधी के मूल्यों से अलग हट गए। जनसेवा के स्थान पर अपनी और अपने परिवार की सेवा तक सीमित हो गए। उनमें से अधिकांश संग्रहण की चकाचौंध में इस तरह घिरे कि उनकी पीढ़ियां भी उसी राह पर आगे बढ़ीं। अनेक ऐसे परिवार राजनीति में उभरे, जिन्होंने सत्ता में पहुंचकर अकूत धन संग्रह किया, उनकी अगली पीढ़ी ने वह शान-ओ-शौकत और रुतबा देखा और सत्ता में पहुंचने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मान लिया।

व्यक्तिगत भौतिक संग्रहण के साये में लोकसेवा नहीं हो सकती और उस अवस्था में अहंकार का बढ़ना कोई रोक नहीं पाता। ऐसी स्थिति में जीवन में शालीनता और जनता के प्रति उत्तरदायित्व बोध स्वार्थ के बोझ तले दब जाता है। भारत के अधिकांश राजनीतिक दल इसमें उलझ चुके हैं। कुछ नेताओं और नेता-संतति की भाषागत अशालीनता उनकी सत्ता पाने की व्याकुलता और व्यग्रता को ही प्रदर्शित करती है। राहुल गांधी का उदाहरण हमारे सामने है। गत दिनों अदालत ने उन्हें एक समुदाय के खिलाफ अनुचित भाषा के प्रयोग का दोषी माना। इसके लिए उन्हें सजा सुनाई। परिणामस्वरूप संसद की सदस्यता से हाथ धोना पड़ा। इसके खिलाफ कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दलों की ओर से जो सतही विरोध के स्वर उठाए जा रहे हैं, उसका कारण समझ पाना कठिन नहीं है।

आज देश में अधिकांश दलों और राजनेताओं का लक्ष्य भी किसी भी तरह सत्ता में पहुंचने तक सीमित हो गया है। उन्हें यह समझना होगा कि सत्ता में पहुंच कर जनसेवा कर पाना ही एकमात्र विकल्प नहीं है। पिछले करीब नौ वर्षों से सत्ता से जनता द्वारा पदच्युत की गई कांग्रेस पार्टी सर्व-विदित कारणों से अपने को जनता से जोड़ नहीं पाई है। वह एक सक्षम विकल्प बनने की दिशा में भी आगे नहीं बढ़ सकी है। देश में एक ऐसा वर्ग भी है, जो कांग्रेस को एक सशक्त विकल्प के रूप में स्थापित होते देखना चाहेगा।

लोकतंत्र में नागरिकों को अपने विचार मत का सत्तापक्ष तो चाहिए ही, वह एक सजग, सक्रिय और सतर्क विपक्ष की उपस्थिति भी अवश्य देखना चाहेगा। जनता यह भी चाहेगी कि इस देश में पक्ष और विपक्ष, दोनों ही गांधी जी को अपनाएं, उनके द्वारा स्थापित मूल्यों को वर्तमान संदर्भ में समझें, स्वार्थ केंद्रित राजनीति यहां नहीं चलेगी। जो सत्ता में लौटने को व्यग्र हैं, उनके लिए भी भूल-सुधार और मार्ग परिवर्तन के सूत्र गांधी जी के विचारों के अध्ययन और समझ से ही मिल सकेंगे। अभद्र भाषा किसी भी संदर्भ में स्वीकार नहीं हो सकती। यह आश्चर्यजनक है कि गांधी जी के देश में भी उन्हीं का नाम लेकर सत्ता में पहुंच कर लोकसेवकों ने न केवल गांधी को भुला दिया, वरन उनके सिद्धांतों को भी तिलांजलि दे दी। दिल्ली और पंजाब में तो उनका चित्र सरकारी कार्यालयों से भी हटा दिया गया। सत्ता में छल-बल से तो पहुंचा जा सकता है, लेकिन जनमानस को समझ कर लोगों के हृदय में उतर जाना सबके बस की बात नहीं।

तीन जून, 1926 को गांधी जी ने यंग इंडिया में सर्वोच्च कोटि की स्वतंत्रता के साथ सर्वोच्च कोटि के अनुशासन और विनय की आवश्यकता का महत्व समझाते हुए कहा था कि अनुशासन और विनय से मिलनेवाली स्वतंत्रता ही हर व्यक्ति की वास्तविक स्वतंत्रता होगी, जिसे कोई छीन नहीं सकेगा। संयमहीन स्वच्छंदता संस्कारहीनता की द्योतक है। इस समय भारत का लोकतंत्र उस स्थिति में पहुंच गया है जिसमें ज्यादातर राजनेताओं ने भाषा और व्यवहार की शालीनता को पूरी तरह तिलांजलि दे दी है। अपने को समय-समय पर गांधी जी का उत्तराधिकारी घोषित करनेवाले जनप्रतिनिधि शायद उनके इन शब्दों से पूरी तरह अनभिज्ञ दिखाई पड़ते हैं कि 'लोकसेवक नम्रता की पराकाष्ठा दिखाएं। दूसरे वैतनिक सेवकों अथवा अन्य व्यवसायों के अलावा सेवा का काम करने वालों की तुलना में अपने को श्रेष्ठ न समझें, उनसे श्रेष्ठ बन कर रहने का प्रयत्न न करें।' दुख की बात है कि राहुल गांधी ने जनसंवाद में भाषा की शालीनता के महत्व को नहीं समझा। इस प्रकरण में भारत की राजनीति की एक और बड़ी कमी सामने आई। न्यायालय की गरिमा पर अनावश्यक और लज्जाहीन प्रहार किया गया।

न्यायालय के किसी भी निर्णय को सरकार द्वारा प्रभावित बताना सारी न्याय व्यवस्था का अपमान है। ऐसा करने का अधिकार किसी को नहीं होना चाहिए। राहुल गांधी प्रकरण में यह प्रवृत्ति खुल कर चर्चा में आई है। न्याय व्यवस्था में कितनी ही कमियां क्यों न हों, उसकी नीयत पर संदेह प्रकट करना आत्मघाती ही होगा। इस दिशा में भी आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिए। इसके साथ-साथ इन दिनों संसद में जिस तरह का शोर-शराबा प्रतिदिन सुनाई देता है, स्थगित होने के पहले वहां जो आरोप-प्रत्यारोप उछले जाते हैं, वे किसी भी सतर्क और सक्रिय नागरिक को विचलित कर देते हैं। इस स्थिति से भी देश को उबरना होगा।

(लेखक शिक्षा, सामाजिक सद्भाव एवं पंथिक समरसता के क्षेत्र में कार्यरत हैं)