डॉ. विजय अग्रवाल

पिछले दिनों चेन्नई में भारतीय पुलिस सेवा के एक युवा अधिकारी द्वारा आइएएस बनने की चाह में दी जाने वाली परीक्षा में ब्लू टूथ के जरिये नकल करते हुए पकड़े जाने का मामला सामने आया। यह नकल उनकी पत्नी करा रही थीं। नकल करते पकड़े जाने के बाद करीम बर्खास्त भी किए जा सकते हैैं। उनके हश्र पर आश्चर्य, दुख और शोक करना वस्तुत: हमारे आज के सामाजिक सत्य को कम, सामूहिक छलावे को अधिक व्यक्त करता है। इस घटना के बाद जो सवाल उठाए जा रहे हैं वे सतही किस्म के ज्यादा हैं और काफी कुछ एकांगी भी। उदाहरण के तौर पर-संघ लोक सेवा आयोग यानी यूपीएससी कैसे-कैसे लोगों का चयन कर रही है? प्रशिक्षण संस्थान किस तरह का प्रशिक्षण दे रहे हैं? इस अधिकारी को ‘नैतिकता’ के परीक्षण वाले पेपर में काफी अच्छे (250 में से 108) नंबर मिले थे। इसे इतने नंबर कैसे मिल गए? इंटरव्यू में भी उसे 275 में 178 मिले, जो ठीक-ठाक ही हैं। तो फिर इंटरव्यू में उसमें क्या देखा गया? आदि-आदि। सच पूछिए तो इस तरह के प्रश्नों में सामाजिक दायित्वों से बचने की साफ-साफ चालाकी दिखाई देती है। ऐसा इसलिए भी कि हम संपूर्ण संदर्भ से अनजान बन रहे हैं। मुझे लगता है कि इस घटना के यथार्थवादी विश्लेषण के लिए कुछ ऐसे अन्य महत्वपूर्ण तथ्यों को जानना बेहद जरूरी है।
पुलिस अधिकारी सरीफ करीम मुख्यत: इलेक्ट्रीकल इंजीनियर हैं। कैट की परीक्षा में उनके टॉप पर्सेंटाइल थे। और वह आइआइएम के किसी भी संस्थान में दाखिला लेकर एमबीए कर किसी भी बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छा-खासा पैकेज हासिल कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा न करके आइएएस में जाने का फैसला किया। यहां सवाल उठता है कि क्यों? जैसा कि हर कोई इंटरव्यू में लगभग यही कहता है, ‘क्योंकि वह समाज और देश के लिए कुछ करना चाहता है।’ यह रटा-रटाया वह मशीनीकृत उत्तर है जिसे सुनकर यूपीएससी के परीक्षक हल्का सा मुस्करा देते हैैं। इसकी सच्चाई क्या है? दरअसल सच्चाई इसके एकदम परे है। आप ऐसे चयनित उम्मीदवारों से व्यक्तिगत तौर पर बात कीजिए तो सुनकर चौंक जाएंगे। वे अपने इस चयन को राष्ट्र पर उनके द्वारा किए गए एक अहसान के रूप में बताते हैं। उनके अवचेतन में यह तथ्य अच्छी तरह घर कर गया होता है कि उन्हें देश-विदेश में लाखों-करोड़ों के पैकेज मिल सकते थे। उनके साथियों को मिल भी रहे हैं। अब सवाल उठता है कि तो क्या वे यहां आर्थिक नुकसान के लिए आए हैं?


आज जिस तरह पूंजीवादी व्यवस्था धीरे-धीरे अपने विषैले फनों का फैलाव करके हमारे युवाओं की चेतना को विषाक्त करती जा रही है उस चेतना से ऐसे विचारों का जन्म लेना बहुत अस्वाभाविक जान नहीं पड़ता। सिविल सेवा परीक्षा के तहत 25 सेवाओं के लिए भर्तियां होती हैं। उनमें आइएएस की प्राथमिकता सर्वोच्च होती है। दूसरे और तीसरे स्थान पर होते हैं-इनकम टैक्स और कस्टम-एक्साइज सर्विस यानी आइआरएस। इन सेवाओं में जाने के लिए उम्मीदवारों की शैक्षणिक पृष्ठभूमि का कोई भी हाथ नहीं होता। पिछले कुछ वर्षों से इस परीक्षा में सफल होने वाले युवाओं में प्रोफेशनल लोगों की संख्या में बहुत अधिक बढ़ोतरी हुई है। ये वे प्रोफेशनल्स होते हैं जो या तो अच्छी नौकरियों में होते हैं या जिनके पास अच्छे विकल्प मौजूद होते हैं। जब हम ऐसी सेवाओं में नैतिकता के प्रश्न पर विचार कर रहे होते हैं तब ऐसे सह-संबंधों का भी मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया जाना चाहिए। सोचा जाना चाहिए कि रेवेन्यू सर्विस को इतनी अधिक प्राथमिकता क्यों मिल रही है? और भारतीय विदेश सेवा प्राथमिकता में क्यों इतनी नीचे जाती जा रही है जिसमें जाने के लिए पहले शुरू के दस रैंक में आना जरूरी था। साथ ही यह भी कि आखिर आइएएस में ऐसा क्या कुछ विशिष्ट है, जबकि कलक्टरी (जिसके नाम से यह सेवा जानी जाती है) तो कुल दो-तीन साल ही रहती है?
‘सैंया भये कोतवाल तो अब डर काहे का’ वाली कहावत पुरानी भले ही हो, लेकिन रक्तबीज दानव की तरह वह नए-नए रूपों में प्रकट होती जा रही है। एक बहुत बड़ा नैतिक एवं प्रशासकीय प्रश्न यह भी है कि आखिर कोतवाल डरे भी तो किससे? एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में वास्तविक शक्ति जनप्रतिनिधियों के हाथ में होती है। क्या हमारे ये प्रतिनिधि कार्यपालिका के मन में नैतिक आदर्शों के मापदंड अथवा कानून का भय पैदा करने में सक्षम रहे हैं? मुख्यमंत्रियों एवं मंत्रियों के यहां पड़ने वाले छापों ने दरअसल आदर्शों और कानून के भय को तार-तार कर दिया है। अनेक अध्ययन और रिपोर्ट बताती हैं कि किस प्रकार इन दोनों के बीच एक गुप्त दुरभिसंधि हो चुकी है। ऐसे में आप किस प्रकार की नैतिकता की उम्मीद करना चाह रहे हैं? हालात तो यहां तक बदतर हो चुके हैं कि माता-पिता अपने बच्चों को यह सोचकर नैतिकता और ईमानदारी का पाठ पढ़ाने से बचने लगे हैं कि ‘कहीं ऐसा न हो कि यह किसी काम का ही न रहे।’
सरीफ करीम का मसला सिविल सेवा के डेढ़ सौ साल से भी अधिक लंबे इतिहास में घटित होने वाली पहली घटना नहीं है। यह अन्य-अन्य रूपों में पहले भी घटित होती रही हैं। हां, इतना अवश्य है, जो एक बड़ी बात भी है कि पहले जहां ये सब अपवाद के रूप में होते थे, वहीं अब ये आम होते जा रहे हैं, जो बेहद चिंताजनक है। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार पिछले एक साल में लगभग 500 आइएएस और लगभग 300 आइपीएस अफसरों के खिलाफ शिकायतें मिली हैं। शिकायतों की यह संख्या उसके पिछले साल से अधिक है, लेकिन इसका सटीक समाधान भर्ती करने और प्रशिक्षण देने वाली संस्थाओं के पास नहीं है। वे उन्हीं में से बेहतर को चुनने को मजबूर हैं जो समाज उनके पास भेजता है। जाहिर है कि इसके लिए समाज को खुद को टटोलना होगा। इस बारे में मैं इसी वर्ष अक्टूबर में सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा के ‘नैतिकता परीक्षण’ वाले पेपर में पूछे गए एक प्रश्न को यहां उद्धृत करना चाहूंगा। प्रश्न है-‘मेरा दृढ़ विश्वास है कि यदि किसी राष्ट्र को भ्रष्टाचार मुक्त और सुंदर मनों (माइंड) वाला बनाना है तो उसमें समाज के तीन प्रमुख लोग अंतर ला सकते हैं-पिता, माता एवं शिक्षक-एपीजे अब्दुल कलाम। क्या हम यह परिवर्तन लाने के लिए तैयार हैं?
[ लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी एवं स्तंभकार हैं ]