[ डॉ. एके वर्मा ]: असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी विधानसभा के बहुप्रतीक्षित चुनाव परिणाम आ गए। असम में भाजपा, बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और केरल में वाम मोर्चा की सत्ता में वापसी हुई, जबकि तमिलनाडु और पुडुचेरी में सत्ता परिवर्तन हुआ। केरल में 40 वर्षों से वामपंथी-एलडीएफ और कांग्रेसी-यूडीएफ के बारी-बारी से जीतने का क्रम मुख्यमंत्री पी. विजयन ने तोड़ दिया। कोविड आपदा के कारण निर्वाचन आयोग के लिए चुनाव कराना चुनौतीपूर्ण थे, पर अपनी कर्मठता और अनुभव से उसने आपदा पर लोकतंत्र की विजय सुनिश्चित की। असम में भाजपा की वापसी काफी अहम है, क्योंकि नागरिकता कानून पर वह रक्षात्मक थी। भाजपा, असम गण परिषद और बोडो समर्थित यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी-लिबरल का गठबंधन बने रहने और कांग्रेस द्वारा सांप्रदायिक यूडीएफ से हाथ मिलाने और बदरुद्दीन अजमल को असम का चेहरा बनाने से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण तय हो गया। बांग्लादेशी और रोहिंग्या मुस्लिमों की संख्या बढ़ने से असम के मतदाता चिंतित हैं। करीब 82 प्रतिशत मतदान इस चिंता का संकेतक था। असम में हिमंता बिस्वा सरमा और मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल का विकास मॉडल भी प्रभावी रहा। भाजपा को असमिया मुसलमानों का भी समर्थन मिला, जो वहां के बांग्लादेशी मुसलमानों से चिढ़ते हैं।

बंगाल में तृणमूल की तीसरी बार सरकार बनना अभूतपूर्व, भाजपा 3 से बढ़कर 75 पर पहुंंची

बंगाल में तृणमूल की तीसरी बार सरकार बनना अभूतपूर्व है। पार्टी ने वहां अपना जनाधार भी बढ़ाया। भाजपा भले ही वहां अपेक्षित विजय न हासिल कर सकी हो, पर 2016 में तीन सीटों और 10 फीसद वोट से लगभग 75 सीटें और करीब 40 प्रतिशत वोट प्राप्त करना भी सराहनीय है। इसकी शुरुआत 2019 के लोकसभा चुनावों से हो गई थी, जिसमें उसे 40 फीसद से अधिक वोट और 18 सीटें मिली थीं। इसका कारण था बड़ी संख्या में दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों का तृणमूल से छिटककर भाजपा में आना। भाजपा ने बंगाल में अपने संगठन, कैडर और विचारधारा को विस्तार तो दिया, पर इतना नहीं कि सत्ता प्राप्त कर सके। फिर भी बंगाल को उसके रूप में एक सशक्त विपक्ष मिला है, जो लोकतंत्र के लिए जरूरी है। बंगाल में कांग्रेस और वामपंथ का पूर्ण सफाया हो गया। लगता है भाजपा ने उनसे उनका जनाधार छीन लिया।

केरल में एलडीएफ की सत्ता में वापसी, कांग्रेस मुख्य विपक्ष की भूमिका में

केरल वामपंथ का गढ़ रहा है। स्वतंत्र भारत में प्रथम वामपंथी सरकार नंबूदरीपाद के नेतृत्व में वहीं बनी थी। पहली बार 2016 में भाजपा को एक सीट और करीब 10 प्रतिशत वोट मिले। बाद में पंचायत और नगरीय चुनावों में भी उसे सफलता मिली। भाजपा ने श्रीधरन को चेहरा बनाकर महिला सुरक्षा और विकास के मुद्दे पर विधानसभा चुनाव लड़ा। केरल में एलडीएफ की वापसी वास्तव में मुख्यमंत्री विजयन की जीत है, जिन्होंने कोविड आपदा का अच्छा प्रबंधन किया। कांग्रेस ने राहुल और प्रियंका के अलावा शशि थरूर को एक बड़े नेता के रूप में प्रयोग किया, पर उसका दुर्भाग्य कि इस बार उसका टर्न होने के बावजूद उसे सत्ता न मिल सकी। भाजपा को दक्षिणी राज्यों और खासकर केरल में सफलता हेतु और मेहनत करनी पड़ेगी।

तमिलनाडु में द्रमुक के स्टालिन ने हिंदू कार्ड खेला और जीत हासिल की

तमिलनाडु में 1989 से द्रमुक और अन्नाद्रमुक के बीच क्रम से सत्ता परिवर्तन होता रहा है। जयललिता ने यह क्रम तब तोड़ा, जब उन्होंने 2011 और 2016 के चुनावों में लगातार जीत हासिल की। यहां भाजपा का अन्नाद्रमुक से गठजोड़ है। इस बार तमिलनाडु में द्रमुक के स्टालिन ने भी हिंदू कार्ड खेला और जीत हासिल की। द्रमुक और अन्नाद्रमुक के लगभग 30-30 फीसद वोट प्रतिबद्ध हैं, 8-9 प्रतिशत फ्लोटिंग वोटर्स परिणाम बदल देते हैं।

पांच राज्यों के चुनाव परिणामों से भाजपा की राष्ट्रीय स्तर पर उपस्थिति बढ़ी

पांच राज्यों के चुनाव परिणामों से कुछ प्रवृत्तियां रेखांकित की जा सकती हैं। एक, भाजपा की राष्ट्रीय स्तर पर उपस्थिति बढ़ी है, खासतौर पर बंगाल, केरल और केंद्रशासित प्रदेश पुडुचेरी में, जहां कांग्रेस को विस्थापित कर राजग सत्ता में आता दिख रहा है। दूसरे, क्षेत्रीय पार्टियां अपने-अपने राज्यों में काफी मजबूत हैं और विधानसभा चुनावों में राज्य का मतदाता उन्हें राष्ट्रीय पार्टियों से ज्यादा पसंद करता है। तृणमूल बंगाल में, द्रमुक और अन्नाद्रमुक तमिलनाडु में सशक्त हैं और राष्ट्रीय पार्टियों को वहां प्रवेश करने में कड़ी स्पर्धा करनी पड़ती है। शायद इसीलिए भाजपा छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों से गठबंधन करने से परहेज नहीं करती। असम और पुडुचेरी में भाजपा ने यही किया है।

महिला राजनीतिक सशक्तीकरण में मोदी ने आर्थिक सशक्तीकरण का तड़का लगा दिया

तीसरी, महिलाओं का रुझान भाजपा की ओर बढ़ा है और वे जाति-धर्म से ऊपर उठ एक वर्ग के रूप में वोट देने लगीं हैं। संभवत: मोदी के विकास मॉडल में जातियों के प्रभाव को कम करने का बीज है। महिला राजनीतिक सशक्तीकरण में मोदी ने आर्थिक सशक्तीकरण का तड़का लगा दिया है। अधिकतर योजनाओं को महिलाओं से जोड़कर उनके खातों में सीधे पैसे भेजकर मोदी ने महिलाओं को वित्तीय स्वायत्तता देकर उनकी आकांक्षाओं को जैसे पंख दे दिए हैं। महिला चेतना राजनीतिक अस्मिता के रूप में उभरी है, जिससे जाति-धर्म के बंधन को तोड़ महिला मतदाता सामाजिक वर्ग के रूप में स्वत: संगठित हो गई हैं। सुरक्षा और विकास राजनीति के दो पहलू होते हैं। मोदी ने इन दोनों पर पकड़ बना समावेशी राजनीति की है, जिससे आज 18 राज्यों में भाजपा/राजग की सरकारें हैं।

कांग्रेस का बंगाल से नामोनिशान ही मिट गया 

इन चुनावों में कांग्रेस का जैसे और ह्रास हो गया है। पुडुचेरी और केरल में जहां इस बार उसकी सरकार बननी चाहिए थी, वहां भी उसे शिकस्त मिली। बंगाल से तो जैसे नामोनिशान ही मिट गया और असम में भी उसे घोर निराशा मिली। इसके बावजूद कांग्रेस नेतृत्व और संगठन को लेकर हठधर्मिता अपनाए हुए है। अंतिम प्रवृत्ति चुनाव आयोग पर आरोप लगाने को लेकर है। नेताओं और दलों द्वारा उस पर लांछन लगाना दुर्भाग्यपूर्ण है। एक हाईकोर्ट द्वारा भी आयोग पर कठोर टिप्पणियां की गईं। आयोग के पास नेताओं और पार्टी-कार्यकर्ताओं की अनुचित हरकतों पर दंडात्मक कारवाई का अधिकार नहीं है। आदर्श आचार संहिता दलों की आम सहमति पर आधारित है। उसका कानूनी आधार नहीं।

भारत में आपदा से लड़ने के बजाय सभी मोदी सरकार से लड़ने में लगे

अमेरिका जैसे विकसित देश में अभी तक भारत से तीन गुना ज्यादा लोग कोविड महामारी से मर चुके हैं, लेकिन वहां विपक्षी दल, मीडिया या न्यायपालिका ने उसका ठीकरा सरकार पर नहीं फोड़ा। यहां आपदा से लड़ने के बजाय सभी मोदी सरकार से लड़ने में लगे हैं। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि केंद्र में गृह और वित्तमंत्री रहे पी. चिदंबरम ने कोविड आपदा प्रबंधन पर मोदी सरकार के विरुद्ध जनता से विद्रोह की अपील की? क्या यह लोकतंत्र में आस्था का प्रतीक है?

( लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं )