तीन साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में पड़ोसी देशों के शासनाध्यक्षों को निमंत्रित करके यह स्पष्ट किया था कि उनका पहला काम होगा पड़ोसी देशों से अच्छे संबंध बनाना। पद संभालते ही उन्होंने भूटान और नेपाल की यात्र की और फिर विदेश मंत्री को बांग्लादेश भेजा। बीते तीन सालों में उन्होंने विदेश नीति के मोर्चे पर खासी सक्रियता दिखाई है। वह अपने कार्यकाल के पहले और दूसरे साल विदेश नीति को लेकर कहीं ज्यादा व्यस्त रहे। अब वह नए सिरे से सक्रिय हो रहे हैं। हाल में उन्होंने कई देशों की यात्र की है और अब अमेरिका जाने की तैयारी कर रहे हैं। इसके बाद वह इजराइल जाएंगे। अपनी विदेश नीति के बारे में यह स्पष्ट करने के बाद भी पाकिस्तान से संबंध सुधार का मसला जस का तस है कि भारत सबसे अधिक अहमियत अपने पड़ोसी मुल्कों को देगा। दक्षिण एशियाई राष्ट्रों के साथ संबंध सुधारने के क्रम में हाल में जब भारत ने दक्षिण एशियाई सैटेलाइट (जीसैट-9) छोड़ा तो पाकिस्तान ने उसका हिस्सा बनने से इंकार कर दिया। इस सैटेलाइट के जरिये दक्षेस देशों के विभिन्न आइटी केंद्रों और जनता के मध्य संपर्क बढ़ेगा, क्षेत्र के प्राकृतिक स्रोतों की जानकारी होगी, टेलीमेडीसन से उपचार संभव हो सकेगा और शिक्षा के क्षेत्र में तेजी से सहयोग बढ़ेगा। 1भारत का मकसद प्रगति के मार्ग पर संपूर्ण दक्षिणी एशिया को अपने साथ लेकर चलने का है, लेकिन दुख की बात है कि व्यापार वृद्धि, संस्कृति, उच्च शिक्षा और स्वास्थ्य विकास के क्षेत्र में किए गए समझौतों और भारत की तमाम कोशिश के बावजूद दक्षेसके सदस्य देश आज 32 वर्ष बाद भी एकजुट नहीं हो पाए हैं। इसके विपरीत दक्षेस के बाद बने संगठन कहीं अधिक प्रभावी साबित हो रहे हैं। इस कड़ी में ताजा नाम शंघाई सहयोग संगठन का जुड़ा है। आखिर दक्षेस यूरोपीय संघ और आसियान (दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों का संगठन) जैसे संगठनों की तरह सफल क्यों नहीं हो पा रहा है? वस्तुत: यूरोपीय संघ और आसियान के मुल्कों में आपसी समानताएं अधिक हैं। विकास की दृष्टि से इनके सदस्य लगभग समान स्तर पर हैं, किंतु भारत भूगोल, आबादी, क्षेत्रफल, सकल आय आदि सभी मामलों में अन्य दक्षेस मुल्कों की तुलना में कई गुना बड़ा है। भारत की विशालता दूसरे दक्षेस देशों के बीच मनोवैज्ञानिक रूप से कभी-कभी भय का कारण बनती है। नि:संदेह भारत दूसरे दक्षेस देशों की तुलना में बहुत बड़ा है, किंतु उसने कभी रौब जमाने की कोशिश नहीं की है। सभी सदस्य देशों के विकास के लिए जो कुछ भी उससे बन पड़ता है वह करता है। दक्षेस की प्रगति में जो सबसे बड़ी रुकावट है वह है भारत और पाकिस्तान के बीच बिगड़े संबंध। जब तक भारत के पाकिस्तान से संबंध नहीं सुधरते, दक्षेस की प्रगति कठिन है। दक्षेस के ठीक विपरीत यूरोपीय संघ और आसियान के सदस्य देशों के बीच संबंध अत्यंत घनिष्ठ हैं। यूरोप की जनता जानती है कि विषमताओं का परिणाम कितना घातक हो सकता है। इसीलिए संगठन बनाने से पहले ही उन्होंने अपनी सारी दूरियां समाप्त कर ली थीं। जिस प्रकार यूरोप में जर्मनी और फ्रांस झगड़ा छोड़ एक दूसरे के करीब हो गए वैसा भारत और पाकिस्तान के बीच नहीं हुआ। दक्षेस को आगे बढ़ने के लिए यूरोपीय संघ और आसियान जैसे संगठनों को अपने आदर्श के रूप में देखना होगा। दक्षेस का गठन दक्षिण एशिया के सर्वागीण विकास के लिए हुआ है। दुख की बात है कि विकास के स्थान पर सदस्य देशों के बीच सुरक्षा प्रमुख मुद्दा बन गया है जो संगठन का विषय ही नहीं है। गरीबी, बेकारी, पर्यावरण, शिक्षा, स्वास्थ्य और आतंकवाद जैसे मुद्दे जो दक्षिण एशिया के सामने वास्तविक चुनौतियां हैं, उनकी उपेक्षा की जा रही है। दक्षेस की एक अन्य कमी है महान नेतृत्व का अभाव। यूरोपीय संघ को मजबूत बनाने में यूरोपीय राजनेताओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।1सभी दक्षेस देशों की सीमाएं भारत से जुड़ी हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से भी वे सबसे अधिक भारत से ही जुड़े हुए हैं। भारत ने दक्षिण एशिया विश्वविद्यालय खोलने की जो योजना बनाई है उससे ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में सहयोग की भावना और अधिक सुदृढ़ होगी। व्यापार, कृषि, उद्योग, संस्कृति, साहित्य और सिनेमा के क्षेत्र में दक्षेस देशों के बीच एक मुक्त आवागमन होना जरूरी है। दक्षिण एशिया में भारतीय फिल्में अत्यंत लोकप्रिय हैं। पड़ोसी चीन में भी हिंदी फिल्मों का बाजार बढ़ रहा है। दंगल फिल्म की सफलता इसका सबसे ताजा उदाहरण है। जाहिर है कि सब परिस्थितियां भारत के पक्ष में हैं। भारत को इसका पूरा लाभ उठाना चाहिए। चूंकि भारत दभेस संगठन में सबसे वरिष्ठ है ऐसे में पहल उसे ही करनी पड़ेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उम्मीद है कि दक्षिण एशिया के विकास के लिए निरंतर नए विकास कार्यक्रम लाकर दक्षेस को एक सार्थक नेतृत्व प्रदान करें। उन्हें नेतृत्व के अभाव को भी दूर करना चाहिए। पाकिस्तान को भी यह समझना होगा कि दक्षेस से अलग होना अथवा उसकी राह में रोड़ा बनना खुद उसके हित में नहीं है। दक्षेस की तरक्की में ही उसकी अपनी तरक्की है।

(लेखक जेएनयू के पूर्व ग्रीक चेयर प्रोफेसर हैं)