राजीव सचान। नई शिक्षा नीति लागू होने के बाद भी शिक्षा में सुधार के मोर्चे पर स्थिति संतोषजनक नहीं, इसका ताजा उदाहरण है राजस्थान राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद की ओर से प्रकाशित कक्षा नौ की अंग्रेजी की पुस्तक को लेकर राज्य के शिक्षा मंत्री की आपत्ति। उनकी एक आपत्ति यह है कि आखिर यह पुस्तक सत्र समाप्त होने के बाद क्यों आई? दूसरी आपत्ति यह है कि इस पुस्तक के आवरण पर ब्रिटेन का ध्वज क्यों प्रकाशित किया गया है? उन्होंने माध्यमिक शिक्षा निदेशक को मामले की जांच के आदेश दिए हैं।

इसी बीच गुजरात से यह खबर आई कि कच्छ जिले के गांधीग्राम में एक निजी स्कूल में अंग्रेजी की पुस्तक के एक पाठ में बच्चों को यह पढ़ने को मिल रहा था कि गाय काली और सफेद होती है। वह घास खाती है। हम इसका दूध पीना पसंद करते हैं और हम उसका मांस भी खा सकते हैं। इस पर जब अभिभावकों ने आपत्ति जताई तो स्कूल ने क्षमा मांगते हुए गलती दूर करने की बात कही।

ये इकलौते मामले नहीं हैं। करीब डेढ़ वर्ष पहले दिल्ली के एक निजी स्कूल में कक्षा चार के बच्चों की द ब्लू प्लैनेट नामक पुस्तक में यह बताया गया था कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति क्या होती है? अनुसूचित जाति का मतलब बताया गया था-भारत की अछूत जाति। जब कुछ सजग अभिभावकों ने आपत्ति जताई तो स्कूल प्रिंसिपल ने यह सफाई दी कि हमने पाठ्यक्रम की जांच नहीं की थी। हमने प्रकाशक को सूचित कर दिया है। प्रकाशक ने कहा कि यह टाइपिंग की गलती हो सकती है। हम इसे शीघ्र ठीक कराकर नई पुस्तक देंगे।

नई शिक्षा नीति को लागू हुए चार वर्ष होने वाले हैं। इसके अमल में लंबा समय लगेगा, लेकिन इस शिक्षा नीति का मूल्य-महत्व तभी है, जब पाठ्यपुस्तकों में आवश्यक परिवर्तन किए जाएं। यह काम हो तो रहा है, लेकिन कच्छप गति से। इसका प्रमाण पिछले सप्ताह की यह खबर है कि राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) कक्षा तीन और छह के लिए नया पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें जारी करेगी। इस बारे में सीबीएसई की ओर से सभी स्कूलों को एक पत्र लिखकर सूचित कर दिया गया है।

इस पत्र में यह भी लिखा गया है कि शैक्षणिक वर्ष 2024 के लिए अन्य कक्षाओं के लिए पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों में कोई बदलाव नहीं होगा। इसका अर्थ है नौ दिन चले अढ़ाई कोस। यह स्थिति तब है, जब भाजपा ने 2014 के अपने घोषणा पत्र में नई शिक्षा नीति लाने का वादा किया था। यह शिक्षा नीति मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल यानी जुलाई 2020 में आ सकी।

नई शिक्षा नीति में देरी को देखते हुए पाठ्यक्रम में संशोधन एवं परिवर्तन के साथ नई पाठ्यपुस्तकें तैयार करने का काम द्रुत गति से होना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हो सका और इसका प्रमाण यह है कि अभी तक केवल कक्षा तीन और छह की ही नई पाठ्यपुस्तकें तैयार हो सकी हैं। बीते दस वर्षों में तीन शिक्षा मंत्री बदल गए। धर्मेंद्र प्रधान चौथे शिक्षा मंत्री हैं। इस कालखंड में मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय तो कर दिया गया, लेकिन पाठ्यक्रम बदलने का जो काम प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए था, वह न के बराबर हो सका। यह और कुछ नहीं, इच्छाशक्ति की कमी है।

इच्छाशक्ति हो तो कठिन कार्य भी आनन-फानन में हो सकते हैं। इसका एक उदाहरण संप्रग शासन के समय मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने दिया था। उन्होंने यह मंत्रालय संभालते ही पाठ्यक्रम में परिवर्तन की पहल की और एक वर्ष के अंदर यह काम कर दिखाया। मोदी सरकार के चार शिक्षा मंत्री दस वर्ष में भी यह काम नहीं कर सके।

कम से कम उन्हें नई शिक्षा नीति लागू होने के बाद तो इस काम को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी ही चाहिए थी। कोई नहीं जानता कि यह कार्य प्राथमिकता सूची से बाहर क्यों बना रहा? निःसंदेह कोरोना काल में बच्चों की पढ़ाई प्रभावित होने के कारण उन्हें परीक्षा के दबाव से मुक्त करने के लिए स्कूली पाठ्यक्रम में कुछ कटौती की गई थी, लेकिन पाठ्यक्रम परिवर्तन के मामले में जो वांछित था, वह नहीं हो सका।

यदि स्कूली पाठ्यक्रम में आवश्यक बदलाव नहीं किए जाते तो नई शिक्षा नीति को प्रभावी ढंग से लागू करने और उसके माध्यम से भावी पीढ़ी को देश की आवश्यकतानुसार तैयार करने का उद्देश्य पूरा होने वाला नहीं है। मोदी सरकार के मंत्री पाठ्यक्रम में संशोधन-परिवर्तन की जरूरत तो जताते रहे हैं, लेकिन उनके पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं कि आखिर इस जरूरत की पूर्ति क्यों नहीं हो पाई? आखिर भावी पीढ़ी को वही पाठ्यपुस्तकें क्यों पढ़ाई जा रही हैं, जिनकी पाठ्य सामग्री से शिकायत है? सबसे अधिक शिकायत इतिहास की पाठ्यपुस्तकों से है।

यह एक तथ्य है कि भारत के इतिहास के नाम पर छात्रों को दिल्ली का इतिहास ही अधिक पढ़ाया जाता है। यह इतिहास भी एकपक्षीय है। इसमें देश के समग्र इतिहास की झलक मिलना तो दूर रहा, यह तक पता नहीं चलता कि देश के दूसरे हिस्सों में सुहेलदेव, लचित बारफुकन और मार्तंड वर्मा जैसे ऐसे अनेक शासक हुए, जिन्होंने बाहरी आक्रमणकारियों से न केवल लोहा लिया, बल्कि उनके दांत भी खट्टे किए।

इसके अतिरिक्त उन्होंने भव्य भवन बनवाए और जनकल्याण के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए। इससे इन्कार नहीं कि मोदी सरकार ने बीते दस वर्षों में देश की तस्वीर बदलने के साथ अनुच्छेद-370 हटाने जैसे ऐसे साहसिक कार्य किए हैं, जिसके बारे में कल्पना करना भी कठिन था, लेकिन यह भी सही है कि शिक्षा के मोर्चे पर जो कुछ अपेक्षित था, वह नहीं हो सका।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)