प्रणय कुमार। कानपुर में आठ पुलिस वालों की हत्या के मुख्य आरोपी विकास दुबे के एनकाउंटर पर तमाम राजनीतिक जिस प्रकार से दल हाय-तौबा मचा रहे हैं, बुद्धिजीवी बहस कर रहे हैं और कानून के जानकार सिर धुन रहे हैं, वह सब अपनी जगह ठीक है, लेकिन जिस नृशंसता एवं क्रूरता से विकास दुबे और उसके साथियों ने आठ पुलिसकर्मियों की हत्या की, वह अमानवीयता एवं बर्बरता की पराकाष्ठा थी, इस बारे में भी सोचा जाना चाहिए। ऐसा भी नहीं है कि यह पहली वारदात थी, जिसे उसने अंजाम दिया था, बल्कि इससे पूर्व भी उसने अनेक जघन्य अपराध एवं बर्बर हत्याओं को अंजाम दिया था।

आश्चर्य है कि उसके एनकाउंटर ने उसके अनगिनत अपराधों को नेपथ्य में धकेल दिया। बड़े-बड़े अपराधियों को दंडित करने के न्यायसंगत तरीकों पर चतुर्दिक विमर्श हमारी सामाजिक जागरूकता का प्रमाण है। लोकतंत्र में मनमानी करने की छूट सरकार, सिस्टम या पुलिस को भी नहीं दी जा सकती। कानून को अपना काम करने देना चाहिए। अधिकारों का निरंकुश प्रयोग अराजकता के व्याकरण गढ़ता और स्थापित करता है, और सभ्य समाज अराजकता की भाषा नहीं बोलता, न उसकी पैरवी करता है। आदर्श तो यही है कि व्यवस्था के सभी घटक अपनी-अपनी मर्यादाओं का पालन करें और उसके भीतर ही काम करें।

लेकिन इन सब चर्चाओं के बीच हम कुछ बड़े सवालों और सरोकारों की जाने-अनजाने अनदेखी कर रहे हैं। जब समाज का बड़ा तबका ऐसे तात्कालिक न्याय पर जश्न मनाने लगे तो सचमुच उसके कुछ गहरे निहितार्थ निकलते हैं। क्या हमारा न्याय-तंत्र खोखला हो चला है? क्या उस पर से लोगों का विश्वास उठ चला है? क्या विलंब से मिलने वाले न्याय के कारण आम लोगों का धैर्य चुक गया है? क्या व्यवस्था के छिद्रों का लाभ उठाने वाले रसूखदारों के कारण आम लोगों की यह धारणा बन चुकी है कि न्याय भी भेदभाव करती है, कि न्याय भी सबके लिए समान और सुलभ नहीं है? क्या दोषियों को दंड और निर्दोषों को न्याय देने में हमारा न्याय-तंत्र विफल रहा है? आंकड़े भी इसी तरह की गवाही देते हैं। वाशिंगटन स्थित वर्ल्ड जस्टिस प्रोजेक्ट की कानून व्यवस्था आधारित सालाना जारी रिपोर्ट के अनुसार -रूल ऑफ लॉ इंडेक्स- में भारत का स्थान 69वां है। यही कारण है कि हर एनकाउंटर के पश्चात आम जनता में जश्न का माहौल होता है और हर सरकार एवं पुलिस इसे अपनी कामयाबी के रूप में प्रचारित करती है।

राजनीति करने वालों के लिए तो हर वारदात एक अवसर है। वे उस वारदात या घटना को भुनाने की कोशिश करते ही हैं, वे भले ही निहित स्वार्थों की पूर्त्ति के लिए अपराध और अपराधियों को समान रूप से खाद-पानी देने का काम करते हों, पर उसके पापों का घड़ा एक-दूसरे पर फोड़ने के लिए आतुर रहते हैं। राजनीतिक दलों की ये प्रवृत्तियां इतनी आम हैं कि अब लोगों ने उनकी टिप्पणियों को गंभीरता से लेना बंद कर दिया है। लेकिन उससे बड़ी चिंता अपराधियों का जातीयकरण है। दरअसल विभिन्न जातियों के अपने-अपने अपराधी-नायक हैं। अपराधियों में नायकत्व की छवि तलाशना सभ्य समाज के पतन की पराकाष्ठा है। जब सामाजिक आदर्श छीजने लगे, स्वार्थ हावी होने लगे, तभी ऐसा संभव है।

जातीय गौरव की पहचान किसी अपराधी को बनाने की कीमत या सजा पीढ़ियां भुगतती हैं। या तो उन्हें उस पहचान से जोड़ दिया जाता है या अपरिपक्व मन अपराधियों जैसा बनकर नाम कमाने की हसरतें पालने लगता है। ठीक उसी तर्ज पर कि बदनाम भी हुए तो नाम नहीं हुआ क्या! रातों-रात अमीर बनने की ख्वाहिश आग में घी का काम करती है। कोढ़ में खाज यह कि कला के नाम पर ऐसे खल पात्रों को सबसे लोकप्रिय जनसंचार माध्यम सिनेमा नायक की भांति प्रस्तुत कर महिमामंडित करता रहता है। समय आ गया है कि हम एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने, इसे या उसे दोषी ठहराने से अधिक इन सवालों और सरोकारों पर गहन चिंतन करें और समाधान के लिए सार्थक एवं ठोस पहल करें।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)