[ गोपालकृष्ण गांधी ]: हम भारत के लोग समझदार हैं, भावुक भी। हम अक्लमंद हैैं, लेकिन दिल के गुलाम भी। हमें बहकाना आसान नहीं। चालाक, दगाबाज कोई हमारे सामने आए तो हम उसे पहचानने में देर नहीं लगाते-निकम्मा आदमी है यह, चतुरनाथ नंबर वन। न जाने कहां से उसको ऐसा तेज दिमाग, ऐसी तिरछी नजर, ऐसी टेढ़ी जुबान मिली। उसकी बातों में कतई मत आना...और जब चतुरनाथ को यह उपाधि लग जाती है, तो बस समझिए कि हमेशा के लिए लग गई।

दिमागी काबिलियत

हां, पुराना चतुरनाथ कभी-कभी नए चतुरनाथ की तुलना में कुछ शरीफ या बेचारा लगने लगता है, खासकर तब जब उसके बाल पक गए होते हैं, बोली कुछ कमजोर हो गई होती है, चलने की गति धीमी पड़ गई हो। यह न-बहकने की काबिलियत जो है हमारी वह एक दिमागी काबिलियत या ताकत है। उस ताकत, उस क्षमता के साथ-साथ चलती है बिल्कुल रेल की दो पटरियों जैसी हमारी दूसरी नस्ल, हमारी जज्बाती तबीयत, हमारी भावुकता। हमारा दिमाग सचेत है, धोखा नहीं खाता, लेकिन हमारा दिल कोमल है। उसको हंसाओ, जी खोलकर हंसेगा। रुलाओ, उसके आंसू कभी नहीं रुकेंगे। दिमाग और दिल, चेतना और भावना जब मिलते हैं तो मन बनते हैं, अंग्रेजी में माइंड। मन कहता है, मन मानता है, मन नहीं मानता, मन नहीं करता।

मन की बात

हमारे प्रधानमंत्री का जो विशेष रेडियो प्रोग्राम है मन की बात वह उस ही दिमाग और दिल के संगम, ब्रेन और हार्ट के मिश्रण को संबोधित करता है। हम उनकी बातों से सहमत हों या न हों, यह जरूर मानना होगा कि प्रोग्राम का शीर्षक मन की बात बिल्कुल बढ़िया है। यह शीर्षक कहता है कि जो बात कही जा रही है वह समझ-बूझ कर कही जा रही है, लेकिन वह निजी भी है, जज्बाती- मन से मन तक और साथ ही दिल से दिल तक। उसे दिमाग से सुनना चाहिए और दिल से अपनाना चाहिए। दिल से। खुशी और गम हमारे कुदरत-बख्श, भगवान से प्राप्त घर हैैं और उस घर के कई कमरे हैं जैसे बुद्धि, समझ, हंसी, मजाक, खेल, आशा, निराशा, मायूसी, उदासी, गुस्सा, और अवसाद। सामान्यत: हम बुद्धि में रहते हैं, समझ में बसते हैं, लेकिन चौबीस घंटों का दिन जो है, वह पूर्णत सामान्य नहीं होता। उसके कई असामान्य क्षण होते हैं जो हमें बुद्धि-कक्ष और समझ-कक्ष से उठाकर धकेल देते हैं बाकी जज्बाती कमरों मेेंं। और वहां हमारा सफर शुरू होता है, उस दो पटरियों पर दिमाग और दिल।

मतदाता निपुण

चुनावी दौर अब भारत में सामान्य हो गए हैं। वे ऋतु बन गए हैं- वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर, हेमंत और इन सबों के बीच पंचवर्षीय ऋतु- निर्वाचन ऋतु। यह हमारी कामयाबी, हमारी उपलब्धि है, जिस पर हमें गर्व होना चाहिए और है। हम भारत के मतदाता निपुण हैं, चुनावी प्रणालियों में, उसकी पद्धतियों में। सोलह बार लोकसभा के चुनाव से गुजर जो चुके हैं। इसलिए जब चुनाव होते हैं, तब हम दिमाग से, ठंडे दिमाग से अपना मतदान देने जाते हैं और आमतौर पर ऐसा करना चाहते भी हैं, लेकिन सामान्यता जब असामान्यता का सामना करती है तब बात कुछ बदल जाती है।

प्रथम लोकसभा चुनाव

1952 का प्रथम लोकसभा चुनाव अपूर्व था। स्वतंत्र भारत का पहला चुनाव। स्वतंत्रता संग्राम पर मुहर लग रही थी। देश ने जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व को दोनों हाथों से बहुमत दिया। 1957 का चुनाव सामान्य था- चलिए, एक बार और नेहरू का दौर! फिर 1962 में- कांग्रेस पर ही मुहर लगेगी, किसी और की नहीं चलेगी। वरीय स्वतंत्रता सेनानी चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (राजाजी) को यह स्वीकार न था। प्रजातंत्र में विपक्ष, परिवर्तन जरूरी हैं, उन्होंने कहा। उनकी नई स्वतंत्र पार्टी पुराने जमाने के राजाओं और जमींदारों और उद्योगपतियों के समर्थन के साथ कांग्रेस के सामने डटकर खड़ी हुई। कांग्रेस को उस चुनाव में स्वतंत्र पार्टी ने अच्छा-खासा झटका दिया, दिमागी झटका। यदि 1962 में चीनी हमला चुनाव के पहले हुआ होता तो चुनाव-परिणाम कुछ और हुआ होता। 1962 का चुनाव परिवर्तनीय बनते-बनते रह गया। जवाहरलाल नेहरू तीसरी बार प्रधानमंत्री बने।

नेहरू के बाद पहला चुनाव

1967 का चुनाव पहला चुनाव था, नेहरू-पश्चात! विपक्ष और विशेषकर स्वतंत्र पार्टी को कई सीटें मिलीं! इस बार स्वतंत्र पार्टी का झटका ताकतवर था। इंदिरा गांधी जीतीं सही, लेकिन मुश्किल से। वह सहमीं, संभलीं और उन्होंने स्वतंत्र पार्टी को रिटर्न झटका देना शुरू किया-राजाओं-महाराजाओं के प्रिवी पर्स रद हुए। बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ और कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को चुनावी राशि देने पर रोक लगाई गई। इंदिरा हटाओ का विपक्षी नारा जनता को भाया नहीं। उसके दिमाग को वह अप्रिय लगा। और इंदिरा का जवाबी नारा, गरीबी हटाओ जनता के दिल को छू गया। विजयी बना।

जीतीं शान से

1971 के अगले चुनाव में इंदिरा गांधी को जीतना ही था और जीतीं भी- शान से, मान से। उन्होंने 1971 में अपनी अद्भुत विजय प्राप्त की अपने दिमाग से, धैर्य और साहस से, लेकिन उनको जो विजय मतदाता ने दी, वह अपने दिल से दी। समय जो कि वर देता है, वह कर भी ले लेता है। न जाने क्यों, किस बद-ख्याली में, किस बद-घड़ी में, विजयी इंदिरा का शासन एकाधिपत्य की ओर बढ़ते गया। राजभार ने उनके आंखों पर कई परदे लगा दिए, जो उनके नेताओं के भ्रष्टाचार को भी ढंक रहे थे और उनके पुत्र संजय के तरीकों को भी। इतिहास का यंत्र बनकर और लोकनायक की संज्ञा प्राप्त किए जयप्रकाश नारायण तब उभरे। काश, इंदिराजी उनकी सुनतीं। आपातकालीन स्थिति में क्या हुआ, न हुआ, इसका उल्लेख पाठकों के लिए अनावश्यक है। 1976 में होने वाले चुनाव टाले गए। गलती हुई। जब 1977 में चुनाव हुए, जनता अपने गुस्से-भरे दिल से बोली रामधारी सिंह दिनकर के अल्फाज में- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। इंदिरा गांधी परास्त हुईं।

हराया दिल से, जिताया दिमाग से

दिमाग आसानी से बदलता नहीं। दिल चंचल है, बदलता रहता है। जिस इंदिरा गांधी को 1977 में उसने हराया दिल से, उन्हीं इंदिरा को उसने वापस बुलाया 1980 में दिमाग से। और जब इंदिराजी की हत्या हुई तो उनके सुपुत्र राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस 1984 में जीती, दिल से। आत्मीय श्रद्धा, विश्वास का अभिन्न अंग है। राजीव को श्रद्धांजलि-नुमा विजय मिली। 1989 में 1984 के अति-लोकप्रिय राजीव को जनता ने परास्त किया, दिमाग से। और देखिए दिल-दिमाग का खेल। चुनाव के ठीक मध्य में 1991 में भारत राजीव कांग्रेस को हरा रहा था, बुरी तरह। पर जब चुनाव के ठीक बीच राजीव की दु:खद हत्या हुई तो उसी भारत ने करवट बदली और बाद में हुई वोटिंग में जो कांग्रेस हार रही थी, जीत गई बाकी सीटें बड़ी संख्या में और सरकार बना गई, पीवी नरसिंह राव की।

सबको सन्मति दे भगवान!

बाद में हुई चुनाव शृंखला से पाठक परिचित हैं। मात्र इतना कहकर यह लेख समाप्त करता हूं-निराशा, मायूसी, अन्याय, अधिकार-अवहेलना, भ्रष्टाचार मतदाता के दिमाग को झकझोरते हैं। ज़ुल्म, हत्या, मृत्यु, युद्ध-ये मतदाता के दिलों में प्रवेश करते हैं। आज के इस क्षण के निर्णय अगले पांच वर्षों को गढ़ते हैं। चुनाव किस संदर्भ में होते हैं या फिर संदर्भ किस चुनाव में बनते हैं, इस पर निर्भर होते हैं उनके परिणाम। सबको सन्मति दे भगवान!

( वर्तमान में अध्यापनरत लेखक राजनयिक और राज्यपाल भी रहे हैैं )