बिहार, आलोक मिश्र। कोरोना के घने अंधकार का एक बड़ा हिस्सा अब बीत गया है। धीरे-धीरे जिदंगी पटरी पर आती दिखाई दे रही है। बाजारों में थोड़ी-थोड़ी गुनगुनी गरमी शुरू हो गई है। बंद घरों के किवाड़ खुलने लगे हैं। लाकडाउन के बाद की जिदंगी को लेकर एक नई परिभाषा गढ़ने की कोशिश शुरू हो गई है। उस कोशिश में नए रंग की कल्पना है। भले ही भविष्य में इस रंग का ‘रंग’ कुछ भी निकले, लेकिन उम्मीदों का दामन तो थाम ही रहे हैं लोग। देश में पनप रही इस स्थिति में बिहार भी अब अपना नया स्थान तलाशने में जुट गया है। कल तक बोझ समान आ रहे प्रवासी कामगारों से नए मायने यहां भी तलाशे जाने लगे हैं। उनके कौशल के बूते नया भविष्य गढ़ने के लिए यह सूची बनने लगी है कि अब तक किस-किस तरह के अपने हुनरमंद दूसरे राज्यों को खुशहाल बनाने में जुटे थे? उन्हें किस तरह अपने यहां उपयोग में लाया जाए और कौशल एवं हाथों के जरिये नई तकदीर लिखी जाए?

कल तक यहां बाहर से आ रहे कामगारों को लेकर बहस जारी थी। जिसमें उन्हें लाया जाए या न लाना जाए से होते हुए कोरोना फैलने का डर समाया था। जब ट्रेनें दौड़ने लगीं और कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़ने लगी तो यह डर थोड़ा और विस्तार लेने लगा, लेकिन अधिकांश को क्वारंटाइन करने से यह डर धीरे-धीरे कम हो गया। ट्रेनें अब भी आ रही हैं और लोग भी खूब उतर रहे हैं, लेकिन अब उसकी चर्चा तक नहीं हो रही। चर्चा हो रही है तो कोरोना के साथ जीने की। जो आए हैं, उनमें से अधिकांश फिलहाल न लौटने की रट लगाए हैं। सरकार को भी लगने लगा है कि हुनरमंदों की यह फौज प्रदेश के लिए फायदेमंद हो सकती है। इसलिए लौटने वालों के हुनर की सूची बनने लगी। सूची बनी तो पता चला कि इसमें एक से एक बढ़कर नगीने हैं। हीरा तराशने वाले, पंखा बनाने वाले, ब्यूटीशियन, इलेक्टिशियन, आधुनिक उपकरणों से खेलने वाले यानी जितने तरह के काम, उतने तरह के करने वाले। अब तक 88 हजार लोगों की सूची बन चुकी है और उनको समायोजित करने की योजना पर काम शुरू कर दिया गया है। शुक्रवार को एक मंत्री ने सभी जिला उद्योग केंद्रों के महाप्रबंधकों से बात करके इस दिशा में ठोस पहल भी शुरू कर दी है।

जैसे-जैसे लोग आते जा रहे हैं। उनका नाम दर्ज होता जा रहा है। नाम के आगे हुनर दर्ज हो रहा है। कई स्टार्ट अप शुरू करना चाहते हैं तो कई रोजगार की तलाश में हैं। बातचीत में उनकी सोच में जज्बा झलकता है। सरकार भी उनके जज्बे को अब हवा दे रही है। हालांकि कल क्या इबारत लिखी जाएगी, यह तो कल ही बताएगा, क्योंकि इनकी जरूरत वहां भी बहुत है, जहां से ये आए हैं, लेकिन यह सही है कि इनकी जरूरत हर जगह है। जहां रहेंगे, वहां गुल खिलेंगे और जहां नहीं होंगे वहां बहार नहीं रहेगी। अब चूंकि धीरे-धीरे काम शुरू होने लगा है, इसलिए कई जगहों से इन्हें बुलावा आने लगा है, लेकिन फिलहाल अभी न जाने का शोर ज्यादा है। मुसीबत से लौटे हैं इसलिए भविष्य की तलाश यहां होना लाजिमी है। हालांकि कुछ उद्योगपतियों का मानना है कि इनमें से अधिकांश को कर्मभूमि पर बिताया जीवन अपनी ओर खींच ले जाएगा, लेकिन अगर इन्हें यहां बेहतर विकल्प मिल जाता है तो प्रदेश के लिए इससे अच्छी बात कोई नहीं हो सकती, क्योंकि कुशल कामगारों के मामले में धनी बिहार का नाम अब तक उद्योगों के मामले में बेहतर स्थान नहीं पा सका है। यह नई शुरुआत हो सकती है।

फिलहाल इस सप्ताह लगभग चार सौ संक्रमितों की संख्या बढ़ गई है। अब यह हजार के ऊपर है। यह संख्या बढ़ी भी है तो इन्हीं प्रवासियों के लौटने पर, लेकिन दिक्कत की बात इसलिए नहीं, क्योंकि यह संख्या इनको क्वारंटाइन करने के बाद जांच में निकली है। इसलिए खतरा नहीं के बराबर है, क्योंकि प्रसार की संभावना नहीं है। इसका श्रेय सरकारी व्यवस्था के साथ-साथ ग्रामीणों की सक्रियता को भी जाता है, क्योंकि जिन्होंने चोरी-छिपे गांवों में घुसने की कोशिश की, उनके अपनों ने ही नहीं घुसने दिया। पुलिस बुला ली, पंचायतों को सूचित कर दिया और उन्हें क्वारंटाइन करवा दिया। यह सक्रियता बहुत काम आई, साथ ही सुकून दे गई कि अगर ऐसा ही चला तो कोरोना कुछ नहीं कर पाएगा। यह समय जल्दी ही बीत जाएगा। कल फिर नई सुबह होगी। जिदंगी ऐसी ही होती है। उसके हर अंधेरे कोने में रोशनी की किरण छिपी होती है। उसी की तलाश में फिलहाल बिहार अब जुट गया है।

[स्थानीय संपादक, बिहार]