डॉ. दर्शनी प्रिय। सेवा और उत्पादन के बाद तीसरा सबसे बड़ा क्षेत्र शिक्षा इस महामारी के दौर में बड़ी मार ङोल रहा है। लॉकडाउन ने शिक्षा के मूल पर करारा प्रहार किया है। वर्तमान चुनौतियों के मद्देनजर शिक्षण कार्य ठप है। स्कूल-कॉलेज बंद होने से शिक्षा का परंपरागत स्वरूप विकृत हुआ है। वास्तव में इस अप्रत्याशित समय में शिक्षा के पारंपरिक और वास्तविक स्वरूप की बहाली बहुत मुश्किल जान पड़ती है। ऐसे में चुनौतियों और सामंजस्य के बीच ऑनलाइन शिक्षा के विकल्प को मुफीद माना जा रहा है। हालांकि यह व्यावहारिक स्तर पर कितना सफल है इसकी परख बाकी है। अगर इसके लाभ के पक्ष की बात करें तो इसने शिक्षा के सुस्त पड़े पहिये को संभावित रफ्तार देने की कोशिश की है।

ऑनलाइन मंचों जैसे जूम, गूगल क्लासरूम या गूगल हैंगआउट सíवस आदि का बेहद सीमित, लेकिन प्रभावी तरीके से इस्तेमाल किया जा रहा है और चुनिंदा लोगों तक इसकी पहुंच बन रही है। गौर करने वाली बात यह है कि हाशिये पर बैठे बच्चों तक इसकी कितनी पहुंच है। साथ ही भारतीय चिंतन परंपरा में शिक्षा के तीन प्रमुख उद्देश्य हैं-व्यक्ति एवं चरित्र निर्माण, समाज कल्याण और ज्ञान का उत्तरोत्तर विकास। ऑनलाइन पद्धति में उपरोक्त चीजें नहीं के बराबर हैं।भारत जैसे विशाल देश में ऑनलाइन शिक्षा के प्रसार में अनेक बाधाएं हैं। देश में हजारों ऐसे स्कूल हैं जिनके पास न तो समुन्नत तकनीक है, न संसाधन। ऐसे में बदलाव की इस कड़ी को सुदूर गांवों में बैठे छात्रों से कैसे जोड़ा जाए।

एक अनुमान के अनुसार देश में महज 20 प्रतिशत ही ऐसे संस्थान हैं जो पठन-पाठन की सुविधा छात्रों तक ऑनलाइन पहुंचा पा रहे हैं। एक ओर जहां तकनीक की अनुपलब्धता, उन्नत उपकरण, कुशल प्रशिक्षक और उचित परिवेश आदि इसकी राह में बाधक हैं तो दूसरी ओर इंटरनेट की खराब कनेक्टिविटी, छात्रों का सत्र के दौरान गायब हो जाना, संपर्क स्थापित करने में दिक्कत, अनौपचारिक या कैजुअल उपस्थिति आदि अन्य बड़ी चुनौतियां भी दीवार बनकर खड़ी हैं। दरअसल भारत में वर्चुअल शिक्षा के विस्तार पर पहले कभी ध्यान नहीं दिया गया। इससे संबंधित किसी समेकित योजना पर समय रहते संज्ञान नहीं लिया गया। यही कारण है कि आनन-फानन इसे लागू करने के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। कुल मिलाकर स्थिति संतोषजनक नहीं है और शिक्षा को पटरी पर लाने संबंधी दुश्वारियां कम होने का नाम नहीं ले रहीं।

अमेरिका और यूरोप के देशों में भी जहां एक दशक पूर्व से ही जीवन का अधिकांश क्षेत्र ऑनलाइन माध्यमों से संचालित है, वहां भी उच्च शिक्षा की बहुत अधिक फीस होने के बावजूद विद्याíथयों की यही इच्छा होती है कि वे कक्षीय पढ़ाई ही करें। यह तब है जब हार्वर्ड, एमआइटी और स्टैनफोर्ड आदि संस्थानों के कोर्स ऑनलाइन प्रारूप में उपलब्ध हैं। फिर भी भारत में अगर ऑनलाइन शिक्षा को रामबाण के रूप में पेश किया जा रहा है तो उसकी वजह या तो लोगों की आधी-अधूरी समझ या फिर शिक्षा को मुनाफा कमाने का धंधा मानने वाली मानसिकता है।

यदि भारत में इसे लागू करना ही है तो इसके लिए संबंधित विकसित प्रणाली की दरकार होगी ताकि सुगमता से छात्रों तक इसकी पहुंच सुनिश्चित की जाए। साथ ही अद्यतन तकनीकी और नवीनतम प्रणालियों से हमें खुद को अपडेट रखना होगा, ताकि इसका फायदा ज्यादा से ज्यादा छात्रों तक पहुचाया जा सके। मानव संसाधन विकास मंत्रलय द्वारा तैयार किए गए ई-लìनग प्लेटफॉर्म इस दिशा में मदद कर सकते हैं। कक्षीय पठन-पाठन के सहायक टूल के रूप में इन्हें अपनाना लाभकारी होगा। पूरी तैयारी के साथ यदि ऑनलाइन शिक्षा को प्रसारित किया जाए तो काफी हद तक शिक्षा के पहिये को दौड़ाया जा सकता है। प्रयास लगातार होते रहने चाहिए, क्योंकि आवश्यकता ही नए विकल्पों को जन्म दे सकती है और नवोन्मेष से नए रास्ते तलाशे जा सकते हैं।

(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)