प्रो. सतीश कुमार। एलएसी यानी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत और चीन की सेनाओं के बीच पिछले करीब छह माह से जारी तनातनी के दौर में क्वाड सम्मलेन के उपरांत अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो ने चीन पर निशाना साधते हुए कहा है कि भारतीय सीमा पर करीब 60 हजार चीनी सैनिकों का जमावड़ा क्वैड देशों के लिए एक चुनौती है। ऐसे में आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना कई बुनियादी प्रश्नों को जन्म देता है। किस प्रकार से हम दुश्मन खेमे को भेद पाएंगे, जब हमारी सेना के लिए कारतूस से लेकर वर्दी तक विदेशों से मंगवाए जाते हैं? क्या आत्मनिर्भर भारत हमारी विदेश नीति के सांचे में ठीक बैठता है? क्या चीन का मुकाबला हम इन हालातों में कर पाएंगे? ये सारे प्रश्न किसी भी देश के नागरिक के स्वाभाविक चिंतन का अंग हो सकते हैं।

भारत के लिए भी आर्थिक व्यवस्था एक चुनौती : दरअसल सोच और चिंतन के जरिये ही देश की शक्ल बदलती है। वर्ष 1980 तक चीन भारत की तरह आर्थिक मजबूरियों से जूझ रहा था, लेकिन चीन के उस समय के प्रमुख नेता रहे देंग शियाओ पिंग की सोच ने उस देश को तीन दशकों में बदल दिया। भारत के लिए भी आर्थिक व्यवस्था एक चुनौती बनी हुई है। वर्ष 1991 के उदारीकरण ने भारत को विदेशी सामानों का केंद्र बना दिया। इस उदारीकरण ने वस्तुओं को खरीदने की ललक तो हमारे भीतर पैदा कर दी, लेकिन उसके निर्माण कार्य को कभी अहमियत नहीं मिली। इसका खामियाजा देश के सामने है। ताबूत से लेकर वर्दी तक हम विदेशों से मंगवाते रहे हैं। ऐसे माहौल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आत्मनिर्भर भारत अभियान एक व्यवस्था परिवर्तन का सूचक है, लेकिन उसके लिए हमें समग्रता में अपनी तैयारी को अंजाम देना होगा। इसलिए क्वैड की कूटनीति फिलहाल आत्मनिर्भरता के लिए काफी कारगर और हितकर है।

तेज करनी होगी भारत को अपनी रफ्तार : पिछले दिनों चतुर्भुज (क्वाड) सम्मलेन में चीन को नए सिरे से घेरने की बात कही गई। चीन की धार को काटने का सबसे अहम तरीका है, अपनी धार और रफ्तार को तेज करना। भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने चीन का नाम लिए बिना एक नियम संगत विश्व व्यवस्था बनाने की बात कही। वहीं अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोंपियो ने चीन को विश्व शांति का दुश्मन मानते हुए अन्य देशों के साथ मिलकर काम करने की वकालत की। महामारी पर की गई अपनी टिप्पणी की वजह से ऑस्ट्रेलिया पिछले कई माह से चीन के तीखे तेवरों का सामना कर रहा है। जापान की सीधी मुठभेड़ चीन के साथ दक्षिण चीन सागर में है। अब मुश्किल यह है कि इस मंच को कारगर कैसे बनाया जाए, क्योंकि जुमलेबाजी से बात नहीं बनेगी। चीन का रुख आक्रामक और व्यवस्था विरोधी है। वैसे भारत के लिए राहत की बात अमेरिकी विदेश मंत्री का वह बयान भी है जिसमें उन्होंने कहा है कि भारत और अमेरिका मिलकर इंडो-पैसिफिक में नई ऊर्जा पैदा करेंगे।

आत्मनिर्भरता आंदोलन की पहल : देश ने आत्मनिर्भरता आंदोलन के जरिये दुनिया को यह संदेश बखूबी दिया था। 15 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक सबल और आत्मनिर्भर भारत की ताíकक पेशकश की। अगर विदेश नीति के आईने में आत्मनिर्भर भारत को देखा जाए तो भारत की सोच आत्मबल पर हमेशा बनी हुई थी। शीत युद्ध के दौरान (वर्ष 1947 से 1991 तक) भारत दो खंडो में विभाजित विश्व का हिस्सा नहीं बना। अपनी पहचान और सोच के जरिये उसने गुटनिरपेक्षता का दामन थामे रखा। वर्ष 1991 से 2008 के बीच विश्व व्यवस्था अगर एकमुश्त अमेरिकी हाथों में चली गई, तब भी भारत ने अपनी संयमित दूरी को बनाए रखा। आज जब भारत एक मिडिल पावर की हैसियत से दुनिया के सामने खड़ा है, तब भी अमेरिका के साथ संबंध बहुत ही अच्छे हैं। भारत अपनी स्वायत्तता और स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाए हुए है। अमेरिका समेत रूस और फ्रांस के साथ भी भारत की मित्रता कायम है।

पड़ोसी प्रथम की नीति : प्रश्न उठता है कि आत्मनिर्भर भारत का विदेश नीति से क्या संबंध है? क्या विदेश नीति इस पहल को मजबूत बनाएगी? या हम आसमान से गिरकर खजूर के पेड़ पर लटकने की तैयारी में हैं? इन सभी प्रश्नों का उत्तर आवश्यक है। आत्मनिर्भर भारत का अर्थ बिल्कुल दुनिया से कटना या संबंध विच्छेद करना नहीं है, बल्कि दुनिया को विकास की धारा में जोड़ना और एक दूसरे की शक्ति का आधार बनना। अगर प्रथम पड़ोसी देशों की नीति की व्याख्या की जाए तो उसका मूल अर्थ पड़ोसी देशों को एक साथ जोड़ना है। पिछले दिनों आत्मनिर्भर भारत मुहिम के तहत भारत ने उत्तर पूर्वी राज्यों को बांग्लादेश, म्यांमार और भूटान से जोड़ने की कवायद भी शुरू कर दी है। ढाका से अगरतला के बीच मैत्री और बंधन एक्सप्रेस की लाइन खींची जा रही है। उसी तरह म्यांमार और थाईलैंड के बीच भी सड़क और रेलमार्ग के जरिये संपर्क की तैयारी जोर शोर से चल रही है।

भारत के पड़ोसी देश आत्मनिर्भर भारत अभियान से काफी उत्साहित हैं। रक्षा क्षेत्र में भी आत्मनिर्भरता की धार आगामी वर्षो में दिखाई दे सकती है। फिलहाल भारत खुद ही दुनिया का सबसे बड़ा हथियारों का आयातक देश है, लेकिन इस बात की पूरी उम्मीद है कि दो दशकों में इस परिदृश्य में पूरी तरह से बदलाव आ सकता है। चीन भारत के पड़ोसी देशों में अपने हथियार को बेचकर भारत विरोधी लहर पैदा करने की साजिश करता रहा है, लेकिन जब ये सारे हथियार भारत में बनने लगेंगे, तो चीन की खुराफात भी बंद हो जाएगी।

चीन से समझदारी बरतने का प्रयास : चीन भारत संबंध तमाम विरोधाभाषों के बावजूद व्यापार के क्षेत्र में निरंतर मजबूती की ओर बढ़ रहा था, लेकिन चीन की नीयत में खोट थी। चीन समझता था कि भारत का आर्थिक ढांचा महामारी में पूरी तरह से चरमरा गया होगा, इसलिए भारत चीन के सैनिक अतिक्रमण को ङोल नहीं पाएगा और अक्साई चिन का मसला हमेशा हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। लेकिन चीन को यह चाल उलटी पड़ गई। भारत के प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भर भारत पहल की शुरुआत के साथ चीन के आर्थिक अंकुश को केचुल की तरह निकाल फेंका।

यह सच है कि भारत अभी भी चीन के व्यापारिक भार से दबा हुआ है, लेकिन अब वैकल्पिक ढांचा तैयार दिख रहा है। ग्रीन एनर्जी को लेकर चीन की जमींदारी थी। भारत सौर ऊर्जा के लिए सोलर पैनल और विंड पैनल चीन से आयात करता था, मगर अब नहीं। दुनिया के अन्य देशों के पास भी साधन हैं। भारत उनकी मदद के साथ अपने निर्माण ढांचे को मजबूत बनाने की पहल में जुट चुका है।

[राजनीतिक विश्लेषक]