[संजय गुप्त]: लोकसभा चुनाव की तिथियां घोषित होने के बाद इस राजनीतिक महासंग्राम के लिए राजनीतिक दलों ने अपने प्रत्याशियों की सूची घोषित करनी शुरू कर दी है। जल्द ही ये प्रत्याशी अपना नामांकन दाखिल करने के लिए निकल पड़ेंगे, लेकिन इसी के साथ यह बहस छिड़ जाएगी कि उनका चयन किस आधार पर किया गया? क्या वे उपयुक्त उम्मीदवार हैं? क्या उनसे बेहतर उम्मीदवार नहीं हो सकते थे? हर चुनाव के समय मतदाताओं के सामने यह सवाल खड़ा होता है कि आखिर वह किस उम्मीदवार को बेहतर माने और दल की योग्यता को प्राथमिकता दे या फिर उम्मीदवार की योग्यता को? भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में राजनीति अब जनसेवा कम, बल्कि व्यवसाय का माध्यम अधिक बन गई है। ऐसे में यह आवश्यक है कि प्रत्याशी के चयन की कोई प्रक्रिया तय हो। फिलहाल ऐेसी कोई व्यवस्था नहीं है जो राजनीतिक दलों को इसके लिए बाध्य करे कि वह प्रत्याशियों का चयन एक सुनिश्चित प्रक्रिया के तहत करें।

नेताओं का पालाबदलना

प्रत्याशियों के चयन को लेकर जिस तरह किचकिच होती है वह किसी से छिपी नहीं। जो दावेदार प्रत्याशी नहीं बन पाते वे या तो भितरघात करते हैैं या विद्रोह करते हैैं अथवा दूसरे दलों में शामिल हो जाते हैं। दरअसल ऐसे नेता अपने निजी हित साधने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि राजनीति उनके लिए व्यवसाय बन गई है। हालांकि नेताओं के पालाबदल या भितरघात से खुद राजनीतिक दलों को ही नुकसान होता है, लेकिन वे प्रत्याशी चयन की कोई पारदर्शी व्यवस्था बनाने के लिए तैयार नहीं। बेहतर होगा कि निर्वाचन आयोग यह काम करे। इससे प्रत्याशी चयन की दौड़ में पिछड़े नेताओं को कोई मलाल नहीं रहेगा और वे चयनित प्रत्याशी के पक्ष में खड़े होंगे।

उम्मीदवारों का चयन

भारतीय लोकतंत्र का एक स्याह पहलू यह भी है कि राजनीतिक दल उम्मीदवारों का चयन निर्वाचन क्षेत्र के जातीय या फिर मजहबी समीकरणों के आधार पर करते हैैं। वे उम्मीदवारों की छवि के बजाय यह देखते हैैं कि वह जीतने की क्षमता रखता है या नहीं? उम्मीदवारों की जीतने की क्षमता को अधिक महत्व दिए जाने के कारण यह देखने से भी इन्कार किया जाता है कि वह साफ-सुथरी छवि वाला है या नहीं? उम्मीदवारों के चयन में जाति, उपजाति, मजहब आदि को प्राथमिकता इसलिए भी मिलती है, क्योंकि मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग अपनी जाति, उपजाति या मजहब वालों को वोट देना पसंद करता है। इसके चलते वह उनकी छवि और उनके क्रियाकलापों की अनदेखी करता है।

योग्य प्रत्याशी

जाहिर है कि अगर आम जनता यह चाहती है कि राजनीतिक दल उम्मीदवारों के चयन में जाति, मजहब को महत्व न दें और साफ-सुथरी छवि वाले योग्य लोगों को प्रत्याशी बनाएं तो उन्हें जाति, मजहब के आधार पर वोट देना बंद करना होगा। उन्हें ऐसे राजनीतिक दलों को भी हतोत्साहित करना होगा जो चुनाव बाद किसी से भी गठबंधन करने के लिए तैयार रहते हैैं। जब ऐसा होता है तो एक तरह से जनादेश का अपहरण ही होता है। यह भी आवश्यक है कि आम चुनाव में मतदाता राष्ट्रीय मुद्दों को प्राथमिकता दें और यह देखें कि कौन दल राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने को लेकर प्रतिबद्ध और समर्थ है। राष्ट्रीय हितों में तेज विकास भी शामिल है और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना एवं शासन-प्रशासन में सुधार करना भी। राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने में समर्थ राजनीतिक दलों का निर्धारण करते समय उनकी कथनी-करनी के अंतर को भी देखा जाना चाहिए और उनके अब तक के कार्य-व्यवहार को भी।

विकास का मुद्दा

जहां तक स्थानीय विकास की बात है तो इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि विकास के मामलों में सांसद की भूमिका सीमित ही होती है। एक अकेला सांसद किसी भी संसदीय क्षेत्र का अपने बलबूते विकास नहीं कर सकता। इसके लिए व्यवस्था में सुधार आवश्यक है और यह काम बदलाव लाने को प्रतिबद्ध राजनीतिक दल ही कर सकता है। राजनीतिक दलों पर सुधार की दिशा में आगे बढ़ने या फिर अपनी नीतियों में परिवर्तन लाने के लिए दबाव भी बनाया जा सकता है। राजनीतिक दल जन दबाव में आते भी हैैं और अपनी रीति-नीति को परिवर्तित भी करते हैैं। सांसद ऐसा मुश्किल से ही करते हैैं। वे जन दबाव में खुद को बदलने के बजाय दलबदल करना या फिर नए निर्वाचन क्षेत्र जाना पसंद करते हैैं।

नोटा का विकल्प

हालांकि मतदाताओं के सामने अब एक विकल्प नोटा का भी है। वह योग्य प्रत्याशियों के अभाव में किसी को भी वोट न देने के अधिकार का इस्तेमाल कर सकते हैैं, लेकिन मौजूदा स्थितियों में नोटा का इस्तेमाल एक तरह से अपने वोट को बेकार करना ही अधिक है। यह कहना कठिन है कि नोटा के इस्तेमाल से लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूती मिल रही है। नोटा का महत्व तभी है जब अधिसंख्य मतदाता इसी राय के हों कि उनके सामने उपस्थित कोई भी प्रत्याशी योग्य नहीं और वे सभी किसी को वोट न देने का फैसला करें।

मतदान का निर्धारण

मतदाताओं के सामने सबसे कठिन समस्या यह आती है कि वह अपने मतदान का निर्धारण किस तरह करे? समर्थ राजनीतिक दल को प्राथमिकता दे या फिर सक्षम उम्मीदवार को? यह समस्या तब बढ़ जाती है जब वह जिस राजनीतिक दल को वोट देना चाहता है उसका उम्मीदवार उसके मन मुताबिक नहीं होता। यह कोई सामान्य समस्या नहीं, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कोई भी राजनीतिक दल हो वह इतने बड़े देश की समस्याओं का समाधान आनन-फानन नहीं कर सकता। इतना अवश्य है कि वह ऐसी सरकार दे सकता है जो कठोर से कठोर फैसले लेने में सक्षम हो और राष्ट्रीय हितों की रक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देती हो। यह क्षमता किसी मजबूत सरकार में ही हो सकती है और यह किसी से छिपा नहीं कि गठबंधन सरकारें मजबूती का परिचय देने के बजाय राजनीतिक मजबूरियों का प्रदर्शन करती हैं।

गठबंधन की राजनीति

समस्या यह है कि अपने देश में गठबंधन राजनीति का भी कोई नियम-कायदा नहीं है। राजनीतिक स्वार्थों के आधार पर गठबंधन बनते-बिगड़ते ही रहते हैं। कई छोटे राजनीतिक दल ऐसे हैैं जो हर चुनाव में किसी एक बड़े दल को छोड़कर दूसरे बड़े दल के साथ जा मिलते हैैं। अब तो परस्पर विरोधी दल भी अपनी राजनीतिक जमीन बचाने के लिए एक-दूसरे के साथ आने लगे हैैं।

क्षेत्रीय राजनीतिक दल

ऐसा नहीं है कि क्षेत्रीय राजनीतिक दल राष्ट्र निर्माण में सहायक नहीं होते, पर आम तौर पर वे राज्य या क्षेत्र विशेष के मुद्दों को ही अधिक महत्व देते हैैं। इसके चलते कई बार वे राष्ट्रीय महत्व के मसलों की अनदेखी करते हैैं या फिर उनके प्रति संकीर्ण नजरिया अपनाते हैैं। नि:संदेह क्षेत्रीय बनाम राष्ट्रीय दल का सवाल भी दुविधा बढ़ाता है। इस सबके बीच यह ध्यान रहे कि अगर राजनीतिक दल राष्ट्रीय हितों की रक्षा और देश को आगे ले जाने में समर्थ नहीं तो फिर उसके उम्मीदवार सांसद बनकर भी कुछ खास नहीं कर सकते।

चयन की पारदर्शी प्रक्रिया

स्पष्ट है कि जब तक प्रत्याशी चयन की कोई पारदर्शी प्रक्रिया नहीं बनती तब तक मतदाताओं के लिए इसके अलावा और कोई उपाय नहीं कि वह राष्ट्रीय हितों की रक्षा में समर्थ राजनीतिक दल को प्राथमिकता दें, भले ही उनके सामने उस दल का प्रत्याशी उनकी अपेक्षा पर खरा न उतरता हो।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]