[ए. सूर्यप्रकाश]। कर्नाटक के हालिया जनादेश को देखते हुए सरकार गठन और दलबदल से जुड़े मौजूदा नियमों की नए सिरे से समीक्षा की जरूरत महसूस हो रही है। कर्नाटक में जिन दलों को जनता ने नकार दिया उन्होंने ही मिलकर सरकार बना ली। ऐसी सरकार के बारे में तो जनता ने शायद ही सोचा हो। इसे देखते हुए ऐसे कानून की आवश्यकता दिख रही है जिससे चुनाव पूर्व गठबंधन की शुचिता तय करने के साथ ही चुनाव बाद बने अवसरवादी गठबंधन को अमान्य किया जा सके। जनादेश और उसके बाद बनने वाली सरकार में कुछ तारतम्यता स्थापित करने के लिए ऐसा करना ही होगा। कर्नाटक में येद्दयुरप्पा का सिर्फ वह दांव गरिमामय रहा जब उन्होंने शपथ ग्रहण के कुछ समय बाद हालात को देखते हुए इस्तीफा देना मुनासिब समझा। एक समय ऐसा जरूर था जब विधायकों की खरीद-फरोख्त आसानी से संभव थी, लेकिन वे दिन तो अब लद गए। राजनीतिक दलबदल उन दिनों आम हो गया था जब 1960 के दशक में कांग्रेस उत्तर एवं मध्य भारत के कुछ प्रदेशों में अलोकप्रिय हो गई थी।

कांग्रेस के प्रदर्शन में आई गिरावट के बाद कुछ गठबंधन सरकारें अस्तित्व में आईं। चुनाव नतीजों के बाद बने इन गठबंधनों का मकसद कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखना था। कई बार ये गठबंधन पूरी तरह अनैतिक और सत्तालोलुप पार्टियों के इस एजेंडे पर आधारित होते थे कि कांग्रेस किसी भी तरह सत्ता पर काबिज न होने पाए। तब केंद्र और राज्यों में प्रभावी कांग्रेस के लिए खुद को सत्ता से बाहर रहने की बात पचा पाना मुश्किल था। ऐसे हालात में उसने सरकार गठन करने के लिए विधायकों की खरीद-फरोख्त पर अपने संसाधन झोंकने शुरू कर दिए। इसके साथ ही उसने राज्यों में सत्ता संभाल रहे गठबंधनों को येन-केन प्रकारेण अस्थिर करने का दांव भी चला। राजनीतिक दलबदल की बुराई पर अंकुश लगाने की पहली कोशिश 1985 में हुई जब संसद ने दलबदल विरोधी कानून बनाने के साथ ही उसे संविधान की दसवीं अनुसूची में डाल दिया। इसकी वजह से व्यक्तिगत तौर पर तो दलबदल प्रतिबंधित हो गया, पर पार्टी के धड़ों या समूह में विभाजन एवं विलय के लिए गुंजाइश छोड़ दी गई। इसने संसदीय दल के एक तिहाई सदस्यों द्वारा नई राजनीतिक इकाई बनाने का रास्ता साफ कर दिया। इसमें दो तिहाई सदस्यों द्वारा पार्टी को तोड़कर दूसरे दल में विलय का प्रावधान भी था।

शुरुआती स्तर पर तो यह कानून प्रभावी दिखा, पर राजनीतिक दलों और जनप्रतिनिधियों ने जल्द ही इससे बच निकलने के उपाय तलाश लिए। विधायक दल में विभाजन के प्रावधान का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हुआ। मिसाल के तौर पर यदि किसी मुख्यमंत्री को बहुमत के लिए दो विधायकों की जरूरत हो तो वह छह सदस्यों वाले किसी दल के दो सदस्यों से मिलकर उस दल में ‘विभाजन’ कराकर बहुमत हासिल कर सकता है। संसद ने 91वें संविधान संशोधन के माध्यम से इस खामी को दुरुस्त करने का फैसला किया जो 2004 में प्रभावी हुआ। इसने विभाजन के प्रावधान को खत्म कर दिया और इस तरह एक तिहाई सदस्यों के पाला बदलने पर विराम लग गया। कर्नाटक के विधानसभा चुनाव नतीजों और 2008 के जनादेश के आलोक में 91वां संविधान संशोधन बहुत ही प्रासंगिक है। 2008 के विधानसभा चुनाव में येद्दयुरप्पा ने भाजपा को शानदार जीत दिलाई, लेकिन वह पार्टी को केवल 110 सीटें ही जिता पाए। वह 224 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत से तीन पायदान पीछे रह गए। उन्होंने छह निर्दलीयों के साथ तुरंत सरकार भी बना ली। फिर अपनी स्थिति को और मजबूत बनाने के लिए उन्होंने ‘ऑपरेशन कमल’ शुरू किया और कांग्रेस एवं जनता दल-एस के तमाम विधायकों को अपनी सीट से इस्तीफा दिलाकर भाजपा के टिकट पर दोबारा चुनाव लड़ने के लिए तैयार किया। उनमें से तमाम जीत भी गए और इस प्रकार विधानसभा में उन्हें सुविधाजनक गुंजाइश भी मिल गई, लेकिन 2018 का मामला एकदम अलग है।

येद्दयुरप्पा के पास 104 विधायकों का समर्थन ही था और वह बहुमत से नौ स्थान पीछे रह गए थे। चूंकि इस बार केवल दो निर्दलीय विधायक ही जीते इसलिए उनके लिए 2008 के कारनामे को दोहराने के लिए कांग्रेस और जनता दल-एस के लगभग दर्जन भर विधायकों से इस्तीफा दिलाकर भाजपा के चुनावचिन्ह पर जीत की गारंटी दिलाना खासा मुश्किल होता। इससे भाजपा के समक्ष राजनीतिक शुचिता का सवाल खड़ा होता और नैतिकता के मोर्चे पर पार्टी की स्थिति कमजोर पड़ती और प्रधानमंत्री मोदी के विरोधियों को उन पर हमला बोलने के लिए खुला मैदान मिल जाता। हालांकि इसका अर्थ यह नहीं कि वह दवा मिल गई जो डॉक्टर ने लिखी थी। मतदाताओं ने कांग्रेस और जद-एस के अपवित्र गठजोड़ के पक्ष में जनादेश नहीं दिया था। जनादेश और जनता को मिलने वाली सरकार में कोई साम्य नहीं है।

न्यायमूर्ति एमएन वेंकटचलैया के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय संविधान समीक्षा आयोग ने इस मुद्दे की गहराई से पड़ताल करते हुए कहा था कि संविधान की दसवीं अनुसूची में उल्लिखित प्रावधानों को उचित रूप से संशोधित किया जाना चाहिए। वे लोग जो पार्टी या गठबंधन से व्यक्तिगत रूप से या समूह में दलबदल करते हैं उन्हें अपनी निर्वाचन सीट से इस्तीफा देकर नए सिरे से चुनाव लड़ना चाहिए। आयोग की संस्तुतियां स्वीकार करते हुए सरकार ने 91वां संशोधन किया और उसने दल में टूट पर विराम लगा दिया। हालांकि आयोग की सिफारिशों को अभी भी पूरी तरह लागू नहीं किया गया है। वीरप्पा मोइली की अगुआई वाले द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने कहा था कि आज गठबंधनों की जरूरत इस तथ्य से उपजी है कि किसी एक पार्टी के लिए बहुमत से सरकार बनाना मुश्किल हो गया है। इस आयोग ने कहा, ‘किसी गठबंधन को वैधानिक बनाने के लिए जरूरी है कि गठबंधन सहयोगी व्यापक समझ वाले कार्यक्रमों पर सहमति जताएं। ऐसी सहमतियों को चुनाव से पहले या सरकार गठन से पूर्व न्यूनतम साझा कार्यक्रम के जरिये मूर्त रूप दिया जा सकता है।’

मोइली आयोग ने यह भी कहा था कि जब गठबंधन सहयोगी मझधार में पाला बदल लेते हैं तो गठबंधन सरकार की नैतिकता सवालों के दायरे में आ जाती है। इसमें मुख्य रूप से अवसरवाद और सत्ता की भूख ही छिपी होती है। इस आयोग के अनुसार, जनादेश का सम्मान करने के लिए एक ऐसा नैतिक ढांचा बनाना होगा ताकि अवसरवाद के चलते पाला बदलना संभव न हो। आयोग ने संविधान में संशोधन कर यह सुनिश्चित करने को भी कहा कि न्यूनतम साझा कार्यक्रम से किनारा करने वाले सदस्य या दल यदि बीच में पलटी मारें तो उन्हें नए सिरे से जनादेश लाना चाहिए। इस दलील के दायरे को बढ़ाएं तो चुनाव बाद रिश्तों की पींगे बढ़ाने वाले उन दलों का आचरण भी अनैतिक माना जाएगा जो चुनाव से पहले एक-दूसरे पर छींटाकशी का कोई मौका नहीं छोड़ते। जब तक इन सुझावों को अमल में नहीं लाया जाता तब तक जनादेश और सरकारों के गठन में ऐसा ही अंतर नजर आता रहेगा जिसमें जनता ठगा हुआ महसूस करेगी।

(लेखक प्रसार भारती के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)