[ प्रदीप सिंह ]: आरक्षण! यह एक ऐसा शब्द है जिसकी ताकत राजनीति और समाज में किसी परमाणु बम से कम नहीं। यह ऐसा मुद्दा है जिस पर देश का कोई नेता, कोई पार्टी या संगठन सौ बार सोचने के बाद भी बोलने से बचता है। पर पिछले कुछ महीनों का घटनाक्रम बताता है कि समय का चक्र घूम रहा है। अचानक ऐसा लगने लगा है कि आरक्षण के मुद्दे पर आक्रामकता दलित वर्ग के लिए राजनीतिक रूप से घाटे का सौदा हो सकती है। अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निरोधक कानून पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले और सरकार के उसे उलटने के निर्णय से सामाजिक ध्रुवीकरण की धुरी ही अपनी जगह से खिसक गई है। यह दलित क्रांति की धार को कुंद कर रही है। दलित राजनीति की चैंपियन मायावती ने इस बदलाव को भांप लिया है।

पिछले कुछ महीनों में आरक्षण का मुद्दा एक बार फिर से खबरों में है। आरक्षण के मुद्दे पर देश में एक तरह की आम सहमति है, लेकिन इस आम सहमति के बावजूद कई दल अपने वोट बैंक के अनुसार थोड़ा बहुत समायोजन करते रहते हैं। जैसे समाजवादी पार्टी ने प्रोन्नति में आरक्षण के खुले विरोध का फैसला किया। उसकी वजह उसका वोट बैंक था। दलितों को प्रोन्नति में आरक्षण से पिछड़ों को नुकसान हो रहा था। उससे पहले बिहार में लालू प्रसाद यादव ने कर्पूरी ठाकुर फार्मूले को रद कर दिया, क्योंकि उसकी वजह से यादवों को नुकसान होता।

उत्तर प्रदेश में भाजपा ने राजनाथ सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में हुकुम सिंह समिति का गठन करके पिछड़े वर्ग के आरक्षण के कोटे में अति पिछड़ों के लिए अलग आरक्षण का फार्मूला निकाला। इसी तरह की कोशिश इस समय एक बार फिर हो रही है। वजह वही है कि पिछड़ी जातियों में सबसे ज्यादा संख्या वाले यादव भाजपा का वोट बैंक नहीं हैं, जबकि अति पिछड़ी जातियों ने जब भी भाजपा का साथ दिया है, पार्टी को चुनावी कामयाबी मिली है। 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अति पिछड़ों ने भाजपा का भरपूर साथ दिया। 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में अति पिछड़ों ने भाजपा का साथ नहीं दिया तो महागठबंधन की जीत का रास्ता साफ हो गया।

दरअसल राजनीति सामाजिक समीकरण की धुरी बदल रही है। पिछली सदी के आखिरी दो दशकों में बिहार में लालू प्रसाद यादव और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव युगांतरकारी बदलाव लेकर आए थे। इस बदलाव ने आजादी के बाद से राजनीति और खासतौर से सत्ता पर सवर्णों के वर्चस्व को ध्वस्त कर दिया। समूचे उत्तर भारत में किसी सवर्ण का किसी भी राज्य का मुख्यमंत्री बनना अपवाद जैसा हो गया। उत्तर प्रदेश में पिछले तीन दशक में योगी आदित्यनाथ तीसरे सवर्ण मुख्यमंत्री हैं। बताने की जरूरत नहीं है कि ये तीनों ही मुख्यमंत्री भाजपा ने बनाए, पर बिहार में इन तीन दशकों में एक भी सवर्ण मुख्यमंत्री नहीं बना। दोनों राज्यों की डेमोग्राफी यानी जनसांख्यिकी भी अलग है। बिहार की तुलना में उत्तर प्रदेश में सवर्णों की संख्या काफी ज्यादा है। इस राजनीतिक बदलाव ने सवर्ण जातियों को हाशिये पर धकेल दिया। उसका नतीजा यह हुआ कि जिस पिछड़े वर्ग और दलितों में एकता की बात कपोल कल्पना मानी जाती थी, वह साकार हो गई।

1993 में मुलायम और कांशीराम साथ आ गए। उत्तर प्रदेश की विधानसभा में नारा लगा, मिले मुलायम कांशीराम, हवा हो गए जय श्रीराम। विधानसभा के इतिहास में पहली बार मारपीट हुई और सवर्ण विधायक पिटे, पर यह गठबंधन जमीन पर बेमेल था। इसलिए ज्यादा समय तक चल नहीं पाया, क्योंकि सामाजिक अंतर्विरोधों को लंबे समय तक समायोजित करना आसान नहीं होता। इसकी परिणति गेस्टहाउस कांड के रूप में हुई। इस गठबंधन के टूटने के बाद भी राज्य की राजनीति में सवर्ण हाशिये पर ही रहे। उनके हाथ में नेतृत्व नहीं आया। हां उन्हें दलित या पिछड़े वर्ग के नेता/पार्टी का अनुयायी बनने का अवसर जरूर मिला।

अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण कानून में सुधार के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से देश की राजनीति में बड़ा बदलाव आया है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद दलित संगठनों और राजनीतिक दलों, जिनमें देश के सारे भाजपा विरोधी दल शामिल थे, ने दो अप्रैल को भारत बंद की अपील की। बंद में जगह-जगह हिंसक घटनाएं हुईं। उसके बाद केंद्र सरकार पर ऐसा दबाव बना कि उसके सामने सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। वह ऐसा नहीं करती तो उसे भारी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ती, पर सरकार के इस कदम की अप्रत्याशित प्रतिक्रिया एक दूसरे वर्ग से हुई।

दशकों से राजनीति के हाशिये पर चल रहा सवर्ण आंदोलित हो गया। पहले विपक्षी दलों ने इसे हवा देने की कोशिश की, पर इस वर्ग ने जब साफ कर दिया कि वह किसी भी पार्टी को वोट नहीं देगा तो सन्नाटा छा गया। मध्य प्रदेश में भाजपा इस संकट से जूझ रही है, लेकिन कांग्रेस के लिए कोई अच्छी खबर नहीं है सिवा इसके कि यह वर्ग बड़ी संख्या में भाजपा को वोट देता रहा है।

बात सवर्णों तक ही रहती तो शायद राजनीतिक दलों की चिंता अपने वोट बैंक के मुताबिक ही होती। पर पिछड़े वर्ग के लोगों का भी दलितों के खिलाफ इस गोलबंदी को मौन समर्थन है। जो कभी भी मुखर समर्थन बन सकता है। मशहूर दार्शनिक रूसो ने कहा था कि ‘गुटबाजी नहीं होनी चाहिए, लेकिन यदि हो तो फिर खूब हो।’

अब ऐसा ही होता हुआ दिख रहा है, क्योंकि दलितों के खिलाफ अत्याचार का मामला हो या प्रोन्नति में आरक्षण का, पिछड़ा वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहा है। इसलिए अब धीरे-धीरे राजनीति की धुरी बदल रही है। नई गोलबंदी में सवर्ण और पिछड़े साथ आ रहे हैं और दलित हाशिये पर जा रहे हैं। यह बात दलित नेताओं को समझ में आ रही है। उसका एक प्रमाण यह है कि प्रोन्नति में आरक्षण बहाल रखने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर दलित नेताओं/ संगठनों की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई।

इस बात को सबसे पहले और अच्छी तरह समझा है, बसपा प्रमुख मायावती ने। दलित पार्टियों और संगठनों को समझ में आ गया है कि पिछली सदी के नौवें दशक का क्रांतिकारी दौर अब नहीं रहा। यही वजह है कि दलितों के खिलाफ अत्याचार के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के ताजा फैसले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। हाईकोर्ट ने कहा है कि जिन धाराओं में गिरफ्तारी होनी है उसमें यदि सात साल से कम की सजा का प्रावधान है तो जांच के बाद ही गिरफ्तारी होगी। इसके अलावा भी गिरफ्तारी के लिए कुछ शर्तें लगाई गई हैं।

मायावती समझ रही हैं कि ज्यादा आक्रामक होने से उनका चुनावी जीत का जातीय समीकरण नहीं बन पाएगा। एक दलित संगठन के नेता चंद्रशेखर उर्फ रावण से उनकी दूरी का यही कारण है। वह जानती हैं कि एनजीओ और राजनीतिक दल की प्राथमिकताएं एक जैसी नहीं हो सकतीं। ऐसे में लोकसभा चुनाव आते-आते एक नई सामाजिक गोलबंदी ठोस रूप ले सकती है।

[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]