[ ऋषभ कुमार मिश्र ]: प्राय: कुछ लोग हिंदी भाषा के बारे में एकपक्षीय निर्णय करते हुए यह फैसला सुना देते हैं कि भारत में हिंदी की स्थिति चिंतनीय है। सवाल है कि क्या यही सच्चाई है? यह केवल सरकारी और अकादमिक हिंदी के लिए सत्य है। लोक और जनभाषा के रूप में हिंदी अपनी स्वाभाविक गति से फल-फूल रही है। लोक में जहां-जहां सरकारी और अकादमिक अभिजात्य का हस्तक्षेप हो रहा है वहां-वहां हिंदी हिंग्लिश बनती जा रही है। अंग्रेजीदां अभिजात्य से परे हिंदी का समाज आज भी हिंदी के मुहावरे, लोकोक्तियों, स्थानीय गीतों, कविताओं और पहेलियों का रसास्वादन कर रहा है। लोक की यह हिंदी खुद को एक बंद भाषा नहीं मानती। इसमें नए शब्दों और मुहावरों के समावेश की पूरी गुंजाइश है।

आज भी सांस्कृतिक आयोजनों में सूर का पद, कबीर की बानी, प्रसाद की कामायनी, मैथिलीशरण गुप्त का वीर रस विद्यमान है। 21 वीं सदी का बच्चा प्रेमचंद्र की ईदगाह से परिचित है। हिंदी में समाज की सच्चाई को बयान करने वाली कृतियां आज भी रची जा रही हैं। टेक्नोक्रेट युवाओं का नया समूह अपनी अनुभूतियों को लोकप्रिय हिंदी रचनाओं में उतार रहा है। हिंदी के इस समृद्ध लोक का सर्वाधिक लाभ बाजार उठा रहा है। टीवी सीरियलों की हिंदी को देखिए। हिंग्लिश की धारा के बदले क्षेत्रीय बोलियों के प्रयोग की जगह बढ़ रही है। न केवल शब्दों के प्रयोग बल्कि उच्चारण, लहजे, आकर्षक शीर्षकों में इसका प्रयोग मिल रहा है। विज्ञापनों की पंच लाइनें हिंदी में जम रही हैैं।

खेल और खासकर क्रिकेट की हिंदी कमेंट्री और प्रस्तुति के लिए अलग चैनल हैं। हिंदी में ब्लॉग लिखने, ई-माध्यमों या ई-समाचार पत्रों का प्रयोग भी बढ़ा है। मोबाइल फोन या इस जैसे अन्य उपकरणों के प्रयोग के लिए हिंदी सॉफ्टवेयर बनाए गए हैं। हिंदी की इस प्रतिष्ठा का कारण सरल शब्दों में विचार संप्रेषण करने, भाव को पिरोने और संवाद को पोषित करने की क्षमता है। इसके विपरीत औपचारिक संस्थानों में हिंदी का प्रयोग जटिल शब्दों द्वारा विचार को बोझिल बनाने और ज्ञान के छद्म कलेवर को फैलाने के लिए किया जाता है। दरअसल इसी हिंदी की स्थिति चिंतनीय है। यह हिंदी राजभाषा हिंदी है जिसे समझना आम आदमी के लिए वैसे ही मुश्किल है जैसे राज्य की कार्यप्रणाली को समझना। देशज होना हिंदी की आत्मा है। इसे अभिजात्य मार्ग नहीं भाता। इसी कारण जब हिंदी पर अभिजात्य होने का बोझ पड़ता है उसे लोक में खारिज कर दिया जाता है। लोक को हिंदी की योजक शक्तिसुहाती है। यही शक्ति हिंदी की राष्ट्रीयता की पहचान है।

हिंदी को सर्वाधिक खतरा उसके बौद्धिक जगत में प्रयोग से है। यहां भाषा की क्लिष्टता को बढ़ाकर विचार पर भाषा की शब्दावली का बोझ बढ़ाया जाता है। स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक और सरकारी कार्यालयों में हिंदी के प्रयोग को देखिए। आदर्श स्थिति में इससे सहमति है कि मातृभाषा को शिक्षण का माध्यम बनाया जाए। ऐसी दशा में हिंदी पट्टी में हिंदी शिक्षा का माध्यम होगा। भारत के अन्य क्षेत्रों में यह दूसरी या तीसरी भाषा हो सकती है। वास्तविकता यह है कि हिंदी को शिक्षण के माध्यम के रूप में वही स्वीकारना चाहता है जिसके पास इंग्लिश मीडियम में जाने का विकल्प नहीं है। इसी कारण हिंदी पट्टी के कई सरकारी स्कूल प्रतिभाशाली बच्चों के लिए इंग्लिश मीडियम में शिक्षा का अवसर उपलब्ध कराते हैं। ऐसी नीतियां और प्रयोग हिंदी को उपेक्षित और पिछड़ों की भाषा के रूप प्रस्तुत करते हैं। आपने मुश्किल से ही किसी विज्ञापन, पोस्टर या होर्डिंग में सूट-बूट और टाई वाले को हिंदी बोलते देखा या सुना होगा। यह सामाजिक प्रस्तुति हिंदी को आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से कमजोर सिद्ध करती है।

उपेक्षित प्रस्तुति के बावजूद एक बड़ी आबादी हिंदी माध्यम में शिक्षित हो रही है। इस बड़ी आबादी को स्कूलों के बाद पुन: भाषा की समस्या से उलझना पड़ता है। उच्च शिक्षा में अंग्रेजी का बोलबाला है। इस मुहावरे को समस्या के रूप में देखा जाता है और अक्सर इंजीनियरिंग और मेडिकल जैसे प्रोफेशनल क्षेत्र में हिंदी लागू करने का सुझाव दिया जाता है। मुझे लगता है कि ऐसे सुझाव भाषा और विषय को समानार्थी मान लेते हैं, जबकि ऐसा है नहीं। इन विषयों के शब्दकोश का निर्माण करें तो आप पाएंगें कि इन्हें समझने, बोलने और पढ़ने के लिए अंग्रेजी के अधिकतम हजार शब्द और उसके आधारभूत व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है। इसे प्रयोग द्वारा सीखा जा सकता है। असली समस्या अभ्यास अर्जित दक्षता के प्रयोग द्वारा खुद को औरों से अलग जताने की चेष्टा है। जो मूलत: हिंदी भाषी पृष्ठभूमि से आते हैं और जिन लोगों की पूरी विद्यालयी शिक्षा हिंदी में हुई है वे भी अपनी धौस जमाने के लिए अंग्रेजी के शब्दों का उपयोग करने लगते हैं।

इस समस्या का दूसरा पक्ष है कि अंग्रेजी में नकल उतारने में सुविधा होती है। यदि भाषा विचार का माध्यम है तो विचार की मौलिक प्रस्तुति के लिए मातृभाषा सर्वात्तम है। यहां मौलिकता को रेखांकित करने की आवश्यकता है। यदि आप विचारों की मौलिकता के बदले उसकी नकल उतारने का प्रयास करना चाहते हैं तो यह कार्य आपको अपनी भाषा के प्रयोग का अवसर नहीं देता। पर्यायवाची या समानार्थी के प्रयोग द्वारा अंग्रेजी में पढ़े विचार को अंग्रेजी में उतारने की आदत हिंदी में मौलिक लेखन और शब्द-सृजन को उपेक्षित कर देती है। रही-सही कसर अनुवाद की बैसाखी पूरा कर देती है।

हिंदी, खासकर कार्यालयी और अकादमिक हिंदी इसी बैसाखी पर खड़ी है। हिंदी में अकादमिक विषयों की गुणवत्तापूर्ण मौलिक किताबों का लेखन न के बराबर है। उच्च स्तरीय और बोधगम्य अनुवाद का भी संकट है। अस्पष्ट और जटिल अनुवाद के चलते यह धारणा पुष्ट होती है कि अनुदित हिंदी किताब पढ़ने से अच्छा है कि पुस्तक का अंग्रेजी संस्करण ही पढ़ लिया जाए। अनुवाद पर अधिक जोर देने से यह भी पुष्ट होता है कि हिंदी में मौलिक और प्रासंगिक लिखा ही नहीं जा सकता। यह सारा परिदृश्य हिंदी के कारण नहीं, बल्कि हमारी वैचारिक अभिव्यक्ति की सीमा के कारण है। हम नई शब्दावली और भाषा गढ़ने से बचना चाहते हैं और उधार की कमाई से काम चलाना चाहते हैं।

हिंदी को सीखना और रोजमर्रा के जीवन में इस्तेमाल करना केवल संज्ञानात्मक कार्य नहीं है, बल्कि इसका सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष अधिक महत्वपूर्ण है। इसके द्वारा आप अपने समाज से अपनत्व का रिश्ता कायम करते हैं। अपनी भाषा का व्यवहार गर्वबोध और आत्म सम्मान को बढ़ावा देता है। हिंदी लिखने, पढ़ने और बोलने का अभिप्राय अंग्रेजी न आना नहीं है। अंग्रेजी या किसी दूसरी भाषा को जानना और सीखना चाहिए, लेकिन इन भाषाओं की मानसिक गुलामी का प्रतिकार भी करना चाहिए। हिंदी के हित के लिए हमें रोजमर्रा के अकादमिक और सरकारी कामकाज में हिंदी के सरल, सरस और सुबोध प्रयोग को बढ़ावा देना होगा। इसके लिए हिंदी पखवाड़े या दिवस पर भाषण, कविता, निबंध के आयोजन मात्र पर्याप्त नहीं।

[ लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैैं ]