कपिल शर्मा। ब्रिटिश भारत में मद्रास पहला ऐसा राज्य था जिसने 1921 में महिलाओं को सबसे पहले मत डालने का अधिकार दिया था। भले ही यह अधिकार महिलाओं के एक सीमित वर्ग को मिला था, लेकिन इस कदम ने इतिहास के लिए वह राह खोल दी थी जो आजाद भारत में महिलाओं के मताधिकार के लिए मील का पत्थर बनने वाली थी। देश की आजादी के बाद पहली लोकसभा के गठन से लेकर आज तक महिलाओं का एक छोटा सा समूह संसद तक पहुंच रहा है। निश्चित तौर पर महिला सांसदों का यह समूह संसद में देश की आधी आबादी के अनुपात में छोटा है और देश की कुल महिला जनसंख्या का बहुत ही सीमित प्रतिनिधित्व है। राज्य विधानमंडलों की भी कमोबेश यही स्थिति है जहां महिला विधायकों और विधान पार्षदों का प्रतिनिधित्व अत्यंत सीमित है।

1990 के बाद से एक नया प्रयोग हुआ और कुछ महिला राजनीतिक दल भी भारत निर्वाचन आयोग में पंजीकृत हुए। इन दलों में नारी शक्ति पार्टी ने लोकसभा चुनाव 2004 में मुंबई उत्तर से अपने उम्मीदवार को उतारा, लखनऊ लोकसभा सीट से जगनमयी नारी संगठन ने 2009 के आम चुनावों में भागीदारी की। इसी चुनाव में उत्तर प्रदेश के अमेठी से महिला अधिकार पार्टी ने अपने उम्मीदवार को टिकट दिया। साल 2014 के लोकसभा चुनावों में महिला स्वाभिमान पार्टी ने लखनऊ की मोहनलालगंज लोकसभा सीट से अपने उम्मीदवार को टिकट दिया। इन महिलावादी राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों में से किसी को भी सफलता नहीं मिली। पूर्व उपराष्ट्रपति कृष्णकांत की पत्नी सुमन कृष्णकांत ने संसद में महिला जनप्रतिनिधियों के 33 प्रतिशत आरक्षण हेतु बहुप्रतीक्षित बिल के न आने पर महिलाओं के मुद्दों पर आधारित एक राजनीतिक दल यूनाइटेड वूमेन फ्रंट को नई दिल्ली में पंजीकृत कराया था।

इस राजनीतिक दल के अध्यक्ष का पद केवल महिला सदस्य के लिए आरक्षित था और कोई भी पुरुष राष्ट्रीय कार्यकारिणी में सदस्य नहीं हो सकता था। यह अपने आप में एक क्रांतिकारी प्रयास था। यूनाइटेड वूमेन फ्रंट ने 2008 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में सभी 72 सीटों पर अपने उम्मीदवारों को उतारने का प्रयास किया था, लेकिन दुर्भाग्यवश वह केवल एक ही उम्मीदवार को उतार पाया था। यूनाइटेड वूमेन फ्रंट ने 2009 के लोकसभा चुनावों में भी भागीदारी की थी। इसी तरह श्वेता शेट्टी की अध्यक्षता में बनाई गई नेशनल वूमेन पार्टी ने साल 2019 में आयोजित 17वें लोकसभा चुनावों में प्रतिभागिता की।

महिला जनप्रतिनिधियों को लेकर राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय राजनीतिक दलों के आंकड़े भी देखने लायक हैं। चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार पिछले तीन लोकसभा आम चुनाव को देखें तो 2009 में तृणमूल कांग्रेस ने पांच महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया था, 2014 में 13 महिला उम्मीदवार उतारे और 2019 में इसे बढ़ाकर 23 कर दिया। समाजवादी पार्टी ने साल 2009 में आठ, 2014 में 11 और 2019 में छह महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया गया है। वहीं 2004 के लोकसभा आम चुनावों में कांग्रेस ने 45, 2009 के चुनावों में 43, 2014 के आम चुनावों में 60 और 2019 में 54 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया। भारतीय जनता पार्टी भी महिलाओं को टिकट देने में अग्रणी राष्ट्रीय पार्टियों में से एक है। 2004 में भाजपा ने 30 महिला उम्मीदवारों को चुनाव में उतारा था। यह संख्या 2009 में 44, 2014 में 38 और 2019 में 55 हो गई।

वहीं 2004 के लोकसभा चुनावों में बसपा ने 20, 2009 के चुनावों में 28, 2014 के आम चुनावों में 27 और 2019 में 24 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया। वामदल सीपीआइ और सीपीएम राष्ट्रीय दल होने के बावजूद महिलाओं को टिकट देने में पीछे रहे हैं। सीपीआइ ने 2004 में दो, 2009 में चार, 2014 में छह और 2019 में चार महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया और इन चारों चुनावों में एक भी महिला उम्मीदवार सीपीआइ की तरफ से जीतकर लोकसभा नहीं पहुंची। सीपीएम ने 2004 में आठ, 2009 में छह, 2014 में 11 और 2019 में 10 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया। राज्य स्तरीय दलों में ओडिशा के बीजू जनता दल ने रचनात्मक कदम उठाते हुए महिला प्रतिनिधियों को 33 फीसद टिकट देने का प्रावधान किया है। यह एक स्वागत योग्य कदम है।

आजादी के बाद से संसद और राज्य विधानमंडलों में पहुंचने तक महिलाओं की स्थिति में व्यापक सुधार अवश्य हुआ है, लेकिन अभी भी मुल्क की आधी आबादी के लिए मंजिल बहुत दूर है। महिला सुधारों पर कार्य करने वाले संगठन यह बताते रहे हैं कि राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय दलों में सक्रिय महिला जनप्रतिनिधियों ने कभी महिलाओं के नेतृत्व के प्रसार के लिए संगठित-सक्रिय प्रयास नहीं किए। ज्यादातर राजनीतिक दलों में पुरुषों का बहुमत होने के कारण भी वे महिलाओं के नेतृत्व विस्तार की मांग को गंभीरता से नहीं लेते हैं। आजादी के बाद से यह भी ट्रेंड देखा गया है कि राजनीतिक दलों में लैंगिक असमानता को एक मौन सहमति मिली हुई है।

बहरहाल 2019 के लोकसभा चुनावों में रिकार्ड 78 महिला सांसद लोकसभा पहुंची हैं जो अभी तक की सर्वाधिक संख्या है, लेकिन इसके बावजूद आधी आबादी का प्रतिनिधित्व लक्ष्य से बहुत दूर है। इसे हासिल करने के लिए गंभीर प्रयास की जरूरत है।

(लेखक चुनाव संबंधी मामलों के जानकार हैं)

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